प्रेस पर बर्बरता : ‘इमरजेंसी’ के खिलाफ भाषण के बीच बनारस में घोंट दी गई लोकतंत्र की गर्दन, छह पत्रकारों पर मुकदमे का फंदा !

वाराणसी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र बनारस में इन दिनों लोकतंत्र की असलियत और सत्ता की नीयत दोनों कटघरे में हैं। यह विडंबना नहीं, बल्कि लोकतंत्र के चेहरे पर एक करारी तमाचा है कि जिस शहर को सरकार अपने गौरव और विकास का प्रतीक बताती है, वहीं आज पत्रकारों को सच बोलने की कीमत झूठे मुकदमों में फंसाकर चुकानी पड़ रही है। सच बोलने पर बनारस के छह पत्रकारों के खिलाफ रिपोर्ट ऐसे समय में लिखी गई जब बीजेपी के तमाम दिग्गज नेता ‘इमरजेंसी’ खिलाफ भाषण दे रहे थे।

मामले की सबसे दुखद बात यह है कि यह सब कुछ उस शहर में हो रहा है, जो खुद प्रधानमंत्री का संसदीय क्षेत्र है। यही वह समय है जब केंद्र सरकार अपने नेताओं को वाराणसी भेजकर देश को यह सिखा रही थी कि आपातकाल के दौर में भी प्रेस स्वतंत्र नहीं था और उस समय की सरकार ने अभिव्यक्ति की आजादी का गला घोंट दिया था। बनारस में एक ओर बीजेपी सरकार के दिग्गज नेता आपातकाल पर कांग्रेस को कठघरे में खड़ा कर रहे थे और दूसरी ओर, सरकार के नुमाइंदे बनारस के वरिष्ठ पत्रकारों की आवाज दबाने के लिए उनके खिलाफ फर्जी केस दर्ज करा रहे थे।

मालवीय जी की प्रतिमा पर चढ़कर बैठा बच्चा

लंका क्षेत्र में भारत रत्न महामना मदन मोहन मालवीय की प्रतिमा पर एक युवक चढ़कर बैठ गया और उसका पैर प्रतिमा की छाती पर था। यह तस्वीर वायरल हुई और पत्रकारों के एक निजी समूह में इस पर चर्चा हुई, चिंता जताई गई। लेकिन जिन पत्रकारों ने सवाल उठाए उन्हें ही आईटी एक्ट और गंभीर धाराओं में फंसा दिया गया। असली दोषी कहां है, किसी को नहीं पता, लेकिन जो सच बोल रहे थे, वे अब आरोपी बना दिए गए हैं। यह कोई प्रशासनिक चूक नहीं, बल्कि एक सुनियोजित और सोची-समझी कार्रवाई  लगती है। सवाल यह है कि क्या अब पत्रकारिता का मतलब केवल सत्ता की जय-जयकार करना रह गया है? क्या अब सवाल पूछना साजिश और चिंता जताना अपराध बन चुका है?

बनारस, जो संवाद, विद्या और विचारों की भूमि मानी जाती है-आज वहां खौफ तारी है। लोकतंत्र का यह हाल तब है जब सत्ता यह दावा कर रही है कि आपातकाल में भी प्रेस की स्वतंत्रता सुरक्षित थी। सवाल उठता है कि फिर आज क्यों एक फोटो पर चर्चा करने मात्र से पत्रकारों पर फर्जी मुकदमे लाद दिए जाते हैं? यह कार्रवाई किसी एक पत्रकार के खिलाफ नहीं, यह पूरी पत्रकारिता को संदेश देने की कोशिश है कि मत बोलो, मत पूछो, चुप रहो।  यही सबसे बड़ा खतरा है, क्योंकि जब पत्रकार डरता है तो समाज गूंगा हो जाता है।

लावारिस हो गईं युग पुरुषों की प्रतिमाएं

बनारस को ‘स्मार्ट सिटी’ का दर्जा तो मिला, लेकिन जिन युग पुरुषों ने इस शहर को वैचारिक और सांस्कृतिक ऊंचाई दी, उनकी स्मृति चिन्हों की यह दुर्गति कलंक का सबब बनती जा रही है। साहित्य सम्राट मुंशी प्रेमचंद की प्रतिमा आज लावारिस हाल में पड़ी है। पांडेयपुर स्थित मुंशी प्रेमचंद चौराहा, जहां से बनारस की सांस्कृतिक चेतना का गौरवशाली अतीत झांकता था। कभी यह चौराहा शहरवासियों के लिए श्रद्धा का प्रतीक था, आज प्रशासनिक उपेक्षा का मूक गवाह बन गया है।

पांडेयपुर चौराहे पर मुशी प्रेमचंद की प्रतिमा

मुंशी जी की प्रतिमा न तो नियमित रूप से साफ की जाती है, न ही उस पर अब माला चढ़ती है। जो कभी सुबह-सुबह माल्यार्पण और स्वच्छता का केंद्र हुआ करता था, आज धूल, कूड़े और खामोशी से घिरा हुआ है। शहर के तमाम अन्य चौराहों पर लगीं युग पुरुषों की मूर्तियां भी कमोबेश ऐसी ही उपेक्षा झेल रही हैं। बनारस प्रधानमंत्री का संसदीय क्षेत्र है, जहां हर गली, हर चौराहा इतिहास की परतों से भरा हुआ है, लेकिन उन पर बैठा वर्तमान बेशर्मी से आंखें मूंदे है। बनारस में मुंशी प्रेमचंद के गांव लमही जाएंगे तो देख सकेंगे कि वहां देश के महान कथाकार की विरासत को दीमक किस तरह से चाट रहे हैं?

बनारस के लमही में खोखली होती विरासत

मुंशी प्रेमचंद की उपेक्षा की कहानी यहीं खत्म नहीं होती। ठीक उसी चौराहे पर, उनके समकक्ष, एक चमचमाता हुआ अवैध मंदिर खड़ा कर दिया गया है, बिना किसी कानूनी औपचारिकता के, बिना किसी सार्वजनिक चर्चा के। यह मंदिर अब सत्ता और साधु-संतों के गठजोड़ का प्रतीक बन गया है, जबकि साहित्य के देवता प्रेमचंद की मूर्ति एक कोने में गंदगी के ढेर के बीच पड़ी है। यह दृश्य सिर्फ दुखद नहीं, शर्मनाक भी है।

बैठके की दीवारें चाटते जा रहे दीमक

शहर के मेयर अशोक तिवारी को इस स्थिति की न कोई चिंता है, न ही कोई जवाबदेही का भाव। वे न तो इन ऐतिहासिक चौराहों की सफाई व्यवस्था पर ध्यान दे रहे हैं, न ही इन महापुरुषों की प्रतिमाओं को सम्मानित बनाए रखने में कोई रुचि दिखा रहे हैं। नागरिक सुविधाएं भी अव्यवस्था और उपेक्षा की भेंट चढ़ चुकी हैं।

पुलिस का आरोप बनाम पत्रकारिता

बनारस के लंका थाने में दर्ज प्राथमिकी के मुताबिक, 24/25 जून की रात बीएचयू के महामना मदन मोहन मालवीय जी की प्रतिमा की सफाई की जा रही थी। यह कार्य “नियमित प्रक्रिया” के अंतर्गत पीडब्ल्यूडी कर्मियों और एक ठेकेदार के निर्देशन में किया जा रहा था। उसी कार्य का एक वीडियो वायरल हुआ, जिसमें कहा गया कि इस प्रक्रिया को जातिगत भावना के आधार पर तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया और समाज में “द्वेष भावना” फैलाने का प्रयास हुआ।

प्राथमिकी में खास बात यह है कि किसी वीडियो में कोई पत्रकार दिखाई नहीं देता। किसी भी पत्रकार ने स्वतः उस वीडियो को वायरल नहीं किया, बल्कि व्हाट्सएप्प ग्रुप में एक लिंक या फुटेज शेयर किया गया, जैसा कि रोज़मर्रा की पत्रकारिता में होता है। इसके बावजूद बनारस के आधा दर्जन वरिष्ठ पत्रकारों-अरशद (एडमिन, खबर बनारस व्हाट्सएप ग्रुप), अभिषेक झा (दैनिक भास्कर), अभिषेक त्रिपाठी, सोनू सिंह (दैनिक जागरण) और शैलेश (टीवी जर्नलिस्ट) के खिलाफ आनन-फानन में पुलिस द्वारा एफआईआर दर्ज की गई। इनमें से कोई भी पत्रकार प्रतिमा की सफाई या उस पर टिप्पणी का सीधा स्रोत नहीं है। सवाल उठता है कि क्या अब पत्रकार व्हाट्सएप ग्रुप में साझा किसी वीडियो को सिर्फ देखने या फॉरवर्ड करने के आधार पर अपराधी करार दे दिए जाएंगे?

यह अकेली घटना नहीं है। देश भर में पत्रकारों पर झूठे केस, मानहानि, आईटी एक्ट, या राजद्रोह जैसी धाराएं लगाकर उन्हें चुप कराने की साजिशें चल रही हैं। पत्रकारों को फर्ज़ी मामलों में फंसाना अब एक रणनीति बन गई है। कभी जमीन की रिपोर्टिंग करो, कभी दलितों की आवाज़ उठाओ, कभी स्थानीय प्रशासन पर सवाल करो और अगली सुबह तुम एफआईआर में हो।

जिस वीडियो को लेकर प्रशासन इतना बौखलाया हुआ है, उसमें कहीं भी सार्वजनिक मंच पर प्रसारण नहीं किया गया था। यह चर्चा महज़ एक बंद ग्रुप तक सीमित थी। फिर इस पर मुकदमा किस आधार पर? क्या अब पत्रकार आपस में भी बात नहीं कर सकते? क्या प्रशासन अब हमारी निजी बातचीत पर भी पहरा बिठाना चाहता है? जो वीडियो वायरल हुआ, उसमें कथित सफाई कर्मचारी मालवीय जी के कंधे पर बैठा दिखाई दे रहा है, लेकिन उसके हाथ में न कोई सफाई का औजार था, न ही कोई कार्यरत मुद्रा। सवाल उठना स्वाभाविक है। और अगर कोई पत्रकार इस पर सवाल उठाता है तो वह सवाल ‘आपत्तिजनक’ कैसे हो गया?

इस पूरे मामले में सबसे शर्मनाक बात यह है कि जिस व्हाट्सएप ग्रुप में संवाद हुआ, उसमें कई प्रशासनिक अधिकारी भी जुड़े हुए हैं। अगर कोई तथ्यात्मक चूक थी, तो उनकी जिम्मेदारी थी कि पहले जानकारी लेकर सफाई मांगते, न कि सीधे पत्रकारों पर आपराधिक मुकदमा ठोंक दिया जाए। यह न सिर्फ नियमों की अवहेलना है, बल्कि लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की गरिमा पर सीधा हमला है। लोकतंत्र में आलोचना शासन का आईना होती है, लेकिन बनारस में प्रशासन इस आईने को ही चकनाचूर करने पर आमादा है।

कमेटी अगेंस्ट असाल्ट ऑन जर्नलिस्ट के मुताबिक साल 2017-2022 के बीच उत्तर प्रदेश में 12 पत्रकारों की हत्या हुई है। इस दौरान 138 पत्रकारों पर हमले भी हुए हैं। पिछले साल अक्तूबर 2024 में फतेहपुर में एक पत्रकार दिलीप सैनी की भी हत्या की गई थी। अकेले 2020 में ही कुल सात पत्रकार राज्य में मारे गये-राकेश सिंह, सूरज पांडे, उदय पासवान, रतन सिंह, विक्रम जोशी, फराज़ असलम और शुभम मणि त्रिपाठी।

 “अब फर्ज़ी केसनया हथियार

आज जब देश के कोने-कोने में पत्रकारों पर हमलों की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं, तब बनारस से उठी एक आवाज़ ने पूरे समाज को झकझोर दिया है। वरिष्ठ पत्रकार और ‘अचूक रणनीति’ के संपादक विनय मौर्य ने भावुक और तीखे अंदाज़ में कहा, “फर्ज़ी केस अब नया हथियार बन गया है। यह कोई इकलौती घटना नहीं है, बल्कि एक पैटर्न बन चुका है। आज देशभर में पत्रकारों के खिलाफ आईटी एक्ट, मानहानि और राजद्रोह जैसी धाराओं का जिस तरह दुरुपयोग हो रहा है, वह एक सोची-समझी साज़िश का हिस्सा है।”

उनकी बातों में वह दर्द था, जो हर उस पत्रकार ने महसूस किया है, जिसने सच को उजागर किया है। विनय कहते हैं, “ज़मीन की बात करो, दलितों की पीड़ा दिखाओ, सिस्टम की नाकामी उजागर करो और फिर देखो, अगली सुबह आपका नाम एफआईआर में दर्ज होता है। बनारस के पत्रकारों पर एफआईआर सिर्फ पत्रकार पर नहीं, लोकतंत्र की आत्मा पर है। जब सच बोलना गुनाह बन जाए, तो समझिए कि अंधेरा गहराता जा रहा है। उन्होंने बहुत ही संवेदनशीलता से सवाल किया, “क्या अब पत्रकारों को अपनी कलम तोड़ देनी चाहिए? क्या अब सिर्फ वही दिखाएं जो सत्ता पसंद करे? क्या अब सवाल उठाना जुर्म है?”

 “बनारस की गलियों से आवाज़ उठ रही है कि हम चुप नहीं रहेंगे। हमारी स्याही से जो डरता है, वही हमें कलम छोड़ने को कहता है। लेकिन हम डरेंगे नहीं, हम लिखते रहेंगे, क्योंकि यही हमारी ज़िम्मेदारी है। पत्रकारिता कोई बाधा नहीं, लोकतंत्र की रीढ़ है। आज पत्रकारों को झूठे मामलों में फंसाया जा रहा है, कल यही तरीका आम नागरिकों की आवाज़ दबाने के लिए इस्तेमाल होगा। इसलिए हमें आज ही खड़ा होना होगा सच के साथ।”

विनय मौर्य ने सरकार और पुलिस प्रशासन से इस पूरे प्रकरण की निष्पक्ष जांच की मांग की। उन्होंने कहा कि “डराओ मत, संवाद करो। पत्रकारों को दुश्मन मत समझो, वे समाज का आईना हैं। जब सच्चाई पर ताले लगाए जाते हैं, तो इतिहास गवाह बनता है और जब इतिहास लिखता है, तब सत्ता की साजिशें नहीं, सच की आवाज़ गूंजती है। मेरा यह बयान सिर्फ एक प्रतिक्रिया नहीं है, यह एक लड़ाई का ऐलान है, जो कलम से लड़ी जाएगी।

वरिष्ठ पत्रकार आकाश यदुवंशी और शैलेंद्र सिंह कहा है कि, “बनारस में पत्रकारों के खिलाफ दर्ज हुआ यह फर्जी मुकदमा न केवल मीडिया जगत के लिए एक चिंताजनक संकेत है, बल्कि लोकतंत्र की नींव को कमजोर करने वाला क़दम भी है। जब एक पत्रकार अपने संवैधानिक कर्तव्यों का पालन करते हुए सवाल करता है, तो उस पर मुकदमा दर्ज करना एक गंभीर अन्याय है। आज़ाद भारत के इस तथाकथित लोकतांत्रिक दौर में, जब कोई पत्रकार किसी वायरल तस्वीर पर सवाल उठाता है, तो उसे ही कठघरे में खड़ा कर दिया जाता है।”

“अगर बनारस जैसे ऐतिहासिक और सांस्कृतिक शहर में पत्रकारों को यूं चुप कराया जा सकता है, तो फिर पूरे देश के लिए खतरे की घंटी बज चुकी है। यह वक्त चेतने का है। अगर आज आवाज़ नहीं उठी, तो कल शायद यह आज़ादी सिर्फ किताबों के पन्नों में रह जाएगी। पत्रकारिता कोई अपराध नहीं, वह एक जिम्मेदारी है और उसे निभाने वालों को आरोपित नहीं, सम्मानित किया जाना चाहिए। यहां सिर्फ छह पत्रकारों की लड़ाई नहीं है। यह उस अधिकार की लड़ाई है जो संविधान ने हर नागरिक को दिया है-सवाल पूछने का, सच कहने का और सत्ता को जवाबदेह ठहराने का।”

वरिष्ठ पत्रकार अमरेंद्र पांडेय ने अपनी फेसबुक पोस्ट में तीखे शब्दों में लिखा है, “प्रशासन अगर कह रहा है कि मजदूर प्रतिमा की सफाई कर रहे थे, तो क्या सफाई का मतलब भारतरत्न महामना मालवीय जी के कंधे पर चढ़ जाना और सीने पर पैर रख देना होता है? शर्म आनी चाहिए! मूर्तियों की सफाई के लिए सीढ़ियां लगती हैं, जूते नहीं! लेकिन बनारस में अब सूचना देना भी गुनाह है। सिर्फ फोटो डालने पर पत्रकारों पर मुकदमे दर्ज हो रहे हैं। क्या यही है ‘बदलता बनारस’? साहब, क्या आपकी अंतरात्मा मर चुकी है?”राहुल सावर्ण सवाल उठाते हैं, “सोए हुए सिस्टम को जगाना, आईना दिखाना अब अपराध हो गया है? अब सवाल पूछना राजद्रोह है? कौन तय करेगा कि जनता की आवाज किस श्रेणी का अपराध है?”

फोटो जर्नलिस्ट विपिन सिंह बनारस के पत्रकारों के बीच चल रही सत्ता-परस्ती और गिरोहबाज़ी पर सीधा हमला करते हुए लिखते हैं, “बनारस में पत्रकारिता अब पत्रकारों के गिरोहों से चल रही है। एक खास ग्रुप है, जहां पत्रकार नहीं, सत्ता के पालतू सेवक पलते हैं। बड़े अफसरों की चाटुकारिता करने वाले इन पत्रकारों ने पत्रकारिता को धंधा बना दिया है। पुलिस की वसूली, अपराध और सिस्टम पर सवाल उठाओ और तुरंत ग्रुप से बाहर कर दिए जाओगे! ये ग्रुप एडमिन तय करता है कि कौन पत्रकार है और कौन नहीं? “

“बनारस में पत्रकारों को भी अलग-अलग वर्गों में बांट दिया गया है, कुछ ‘सरकारी पत्रकार’, कुछ ‘बाग़ी पत्रकार’। जनता को समझना चाहिए कि जी-हुजूरी और तलवे-चाट पत्रकारिता ने शहर को क्या बना दिया है। पत्रकार का काम सत्ता की चप्पल उठाना नहीं, सवाल पूछना होता है। लेकिन इन लोगों ने अपना ईमान चंद पैसों के खर्चे-पानी में गिरवी रख दिया है। खबर चलती नहीं, बिकती है। अधिकारी भी इनकी ‘मर्जी’ से खबर देखकर ‘सम्मानित’ किए जाते हैं।”

पत्रकारिता की आत्मा पर हमला

दूसरी ओर, बनारस शहर के प्रबुद्धजनों का कहना है कि बनारस के पत्रकारों पर सिर्फ एक प्राथमिकी नहीं, बल्कि पत्रकारिता की आत्मा पर किया गया सीधा हमला है। बीएचयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष अनिल श्रीवास्तव ने इस पूरे घटनाक्रम को बेहद चौंकाने वाला बताते हुए सवाल उठाया है कि “क्या अब सवाल पूछना भी अपराध है?” उन्होंने स्पष्ट कहा कि यह एफआईआर नहीं, बल्कि पत्रकारों को डराने और चुप कराने की सोची-समझी रणनीति है। उन्होंने तल्ख लहजे में पूछा, “क्या प्रशासन को यह भय है कि कहीं इस वीडियो की सच्चाई सामने न आ जाए? क्या किसी पत्रकार का किसी ग्रुप का एडमिन होना उसे अपराधी बना देता है? क्या एक वायरल वीडियो को ग्रुप में शेयर करना अब कानून व्यवस्था बिगाड़ने जैसा कृत्य हो गया है?

अनिल ने तीखा आरोप लगाते हुए कहा, “यदि प्रशासन को लगता था कि कोई भ्रामक जानकारी फैल रही है, तो लोकतंत्र का तकाज़ा था कि वह उसका स्पष्टीकरण जारी करता, खंडन  करता एफआईआर नहीं लिखता। योगी राज में तो उल्टा पत्रकारों पर ही कार्रवाई की जा रही है, वह भी ऐसे समय जब देशभर में आपातकाल की बरसी पर प्रेस की स्वतंत्रता की दुहाई दी जा रही है। आज वाराणसी की पत्रकारिता के लिए यह क्षण किसी आपातकाल से कम नहीं है। जब सवाल उठाना जुर्म बन जाए, जब प्रतिक्रिया देना ‘षड्यंत्र’ कहलाने लगे और जब सत्ता की विफलताओं को उजागर करना ‘जातीय विद्वेष’ ठहरा दिया जाए, तो समझ लेना चाहिए कि लोकतंत्र पर खतरा मंडरा रहा है।”

बनारस के पत्रकारों पर एफआईआर न केवल प्रेस की स्वतंत्रता का अपमान है, बल्कि लोकतंत्र के उस चौथे स्तंभ को गिराने की साजिश है, जो हमेशा सत्ता से सवाल करता रहा है। यह सिर्फ पत्रकारों को डराने की कवायद नहीं, बल्कि पूरे समाज को संदेश देने की कोशिश है कि अगर सवाल पूछोगे तो सजा पाओगे। यह वक्त सिर्फ विरोध करने का नहीं, बल्कि एकजुट होकर खड़े होने का है। अभी जरूरत है एक स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच की, न कि डराने वाले झूठे मुकदमों की। अगर प्रशासन को सच्चाई से डर लगने लगे तो वह शासन नहीं, बल्कि दमनकारी तंत्र बन जाता है। पत्रकारों पर नहीं, झूठ पर मुकदमा चलाओ। डराओ मत, संवाद करो। सच को कुचलने की कोशिश करोगे, तो इतिहास तुम्हें कभी माफ नहीं करेगा।”

अनिल श्रीवास्तव ने दो टूक कहा, “जब सच बोलना सजा बन जाए, जब सवाल उठाना जुर्म बन जाए, तो समझ लीजिए, प्रेस नहीं दब रही है, बल्कि लोकतंत्र की नींव हिल रही है। प्रेस की स्वतंत्रता पर यह हमला सिर्फ पत्रकारों की नहीं, पूरे समाज की चेतना पर हमला है। इसीलिए आज का सवाल है कि क्या अब पत्रकार को अपनी आवाज़ बंद कर लेनी चाहिए? क्या पत्रकार को सिर्फ वही दिखाना चाहिए जो सरकार और सिस्टम कहे? क्या अब रिपोर्टिंग एक अपराध है? इस पूरे प्रकरण की निष्पक्ष जांच होनी चाहिए। सरकार और पुलिस को यह समझना चाहिए कि प्रेस लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है और  उसे गिराया नहीं, संभाला जाता है।”

विपक्ष ने सरकार को घेरा

बनारस के पत्रकारों के खिलाफ दर्ज मामले ने सियासी तूल पकड़ लिया है। उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के प्रदेश अध्यक्ष अजय राय ने बीजेपी सरकार के नीयत पर सवाल उठाते हुए कहा है कि, “प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र काशी में अब महापुरुषों के अपमान पर सवाल पूछना अपराध बन गया है और पत्रकारिता देशद्रोह। यह दौर सिर्फ खतरनाक नहीं, लोकतंत्र के लिए लज्जाजनक है। एक वीडियो वायरल होता है जिसमें भारत रत्न पंडित मदन मोहन मालवीय जी की प्रतिमा पर एक युवक चढ़ा दिखाई देता है। इस शर्मनाक घटना पर जब कुछ पत्रकार सवाल उठाते हैं, तब उन्हें ही कटघरे में खड़ा कर दिया जाता है। लंका थाने में छह पत्रकारों पर मुकदमा दर्ज कर दिया जाता है। आखिर यह कैसा न्याय है?”

“भारत रत्न मालवीय जी, जिनका समस्त जीवन शिक्षा, राष्ट्रनिर्माण और सांस्कृतिक चेतना को समर्पित था, उनकी प्रतिमा पर चढ़कर कोई युवक अगर अपमान करता है तो वह पूरी काशी का अपमान है। उस पर कार्यवाही की जगह उन पत्रकारों को निशाना बनाया जा रहा है जिन्होंने सवाल उठाया यह न सिर्फ निंदनीय है, बल्कि खतरनाक संकेत है कि सत्ता अब आईना नहीं देखना चाहती। क्योंकि सरकार के चेहरे पर इतने धब्बे हैं कि सच का आईना उसे चुभता है। पत्रकारों के खिलाफ मुकदमा दर्ज किए जाने की घटना ने न सिर्फ पत्रकारों को, बल्कि हर उस नागरिक को झकझोर दिया है जो भारत के लोकतंत्र में विश्वास करता है। यह घटनाक्रम बताता है कि मौजूदा सरकार में दोषियों पर कार्रवाई नहीं होती, बल्कि सवाल पूछने वालों को अपराधी बना दिया जाता है। यह प्रशासनिक अमानवीयता नहीं तो और क्या है? “

राय ने कहा है, “पत्रकार समाज की अंतरात्मा होते हैं। उनकी कलम वह औज़ार है जिससे सच्चाई सामने आती है, और इसी औजार को कुंद करने की कोशिशें की जा रही हैं। अजय राय ने स्पष्ट कहा कि “जो पत्रकार निष्पक्ष हैं, सच्चाई के पक्षधर हैं, उन्हें यह सरकार दुश्मन मानती है। यह सत्ता की कायरता का परिचय है, क्योंकि जो सवालों से डर जाए, वो तानाशाही की राह पर चल पड़ा होता है। बीजेपी सरकार भूल रही है कि जब-जब भारत में आवाज़ें दबाने की कोशिश की गई, तब-तब वह आवाज़ और ऊंची हुई। आज भी जब पत्रकारों को प्रताड़ित किया जा रहा है, जब उन पर झूठे मुकदमे लादे जा रहे हैं, तब कांग्रेस पार्टी पूरी ताकत के साथ उनके साथ खड़ी है।

कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष ने कहा है कि, “हम यह मांग करते हैं कि इस मामले में दोषी युवक और दोषी अफसरों पर तत्काल सख्त एक्शन लिया जाए। सवाल पूछने वाले पत्रकार साथियों पर दर्ज फर्जी मुकदमे अविलंब वापस लिए जाएं। प्रशासन अपनी जवाबदेही स्पष्ट करे और ऐसा दोहराव न हो, इसकी गारंटी दी जाए। कांग्रेस मानती है कि पत्रकारिता सिर्फ पेशा नहीं, यह लोकतंत्र की रक्षक है। और जो लोकतंत्र की रक्षा करता है, उस पर हमला देश की आत्मा पर हमला है। हम इस तानाशाही रवैये का विरोध करते हैं और यह स्पष्ट करते हैं कि कलम पर मुकदमा बर्दाश्त नहीं होगा। कांग्रेस पत्रकारों के साथ है। हर मोर्चे पर, हर संघर्ष में।”

समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता मनोज राय धूपचंडी ने इस कार्रवाई को सरकार की तानाशाही मानसिकता और लोकतांत्रिक संस्थाओं के दमन का प्रतीक बताया है। उन्होंने कहा, ““प्रदेश में कानून व्यवस्था का हाल बेहाल है। प्रतिमा का अपमान करने वालों को छोड़कर पत्रकारों को फंसाना साफ़ दर्शाता है कि योगी सरकार असल दोषियों को बचाने और सच को दबाने की कोशिश कर रही है। जब पत्रकार जन भावना और सम्मान के लिए सवाल उठाते हैं, तो उनके खिलाफ ही मुकदमा क्यों होता है? क्या अब पत्रकार सिर्फ सरकार की जय-जयकार करने के लिए हैं? पत्रकारों की सुरक्षा के लिए कोई ठोस कानून अब तक नहीं बना, जबकि महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में पत्रकार सुरक्षा कानून पहले से प्रभावी हैं।”

“उत्तर प्रदेश में तहसील और गांव स्तर पर काम कर रहे पत्रकारों की स्थिति बेहद नाज़ुक है। उनके पास न कोई मंच है, न कोई सुरक्षा। वे या तो खुद लड़ते हैं या फिर राघवेंद्र वाजपेयी की तरह शिकार बना दिए जाते हैं। अब सरकार खुद के मुताबिक कमेटियां बनाकर जांच के नाम पर लीपापोती कर रही है। इससे न्याय और पारदर्शिता दोनों खत्म हो रही है। आज जो पत्रकारों को झूठे मामलों में फंसाया जा रहा है, वह कल आपके हक़ की आवाज़ को भी कुचल सकता है। पत्रकारों पर नहीं, झूठ पर मुकदमा चलाओ। डराओ मत-संवाद करो, क्योंकि जब सच्चाई पर ताले लगते हैं, तो इतिहास में दरवाज़े टूटते हैं।”

धूपचंडी कहते हैं, ” यह विडंबना ही नहीं, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा पर सीधा प्रहार है कि जो कुछ बनारस में घट रहा है, वह उसी शहर में हो रहा है जिसे देश के प्रधानमंत्री ने अपनी कर्मभूमि और संसदीय क्षेत्र के रूप में चुना है। एक ओर केंद्र सरकार देशभर में आपातकाल की याद दिलाकर यह समझाने में जुटी है कि उस दौर में प्रेस की स्वतंत्रता का गला घोंटा गया था  और वह समय भारतीय लोकतंत्र के लिए काला अध्याय था तो दूसरी ओर उसी वक्त, उसी धरती पर, ठीक बनारस में, सत्ता के प्रतिनिधि पत्रकारों को चुप कराने के लिए उनके खिलाफ फर्ज़ी मुकदमे दर्ज करवा रहे हैं।

“बीजेपी ने अपने कई दिग्गज नेताओं को बनारस भेजा ताकि वे देश को आपातकाल की भयावहता समझाएं और वे उसी ज़मीन पर खड़े होकर अभिव्यक्ति की हत्या के मूकदर्शक बन रहे। इससे बड़ा विरोधाभास और क्या हो सकता है? यह दोहरा चरित्र अब छिपा नहीं रह गया है। एक तरफ भाषणों में अभिव्यक्ति की आज़ादी की दुहाई दी जा रही है और दूसरी तरफ सवाल उठाने वाले पत्रकारों को अपराधी की तरह पेश किया जा रहा है। क्या यही लोकतंत्र है? क्या यही ‘नया भारत’ है? यह घटना न सिर्फ प्रेस की आज़ादी पर हमला है, बल्कि प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र की गरिमा को भी धूमिल करता है।”

धूपचंडी कहते हैं, ” सपा पत्रकारों के हक की लड़ाई लड़ेगी। यह लड़ाई सिर्फ पत्रकारों की नहीं है, यह उस सोच के खिलाफ है जो सच से डरती है, सवालों से भागती है और जवाबदेही को कुचल देना चाहती है। यह भी सच है कि अगर आज बनारस की गलियों में सच बोलना गुनाह बन गया है, तो कल पूरे देश में खामोशी ही सबसे बड़ा अपराध मानी जाएगी। आज जरूरत है कि देश का हर नागरिक, हर बुद्धिजीवी, हर संवेदनशील मनुष्य इस अन्याय के खिलाफ खड़ा हो, क्योंकि अगर आज चुप रहे, तो कल सवाल पूछने का अधिकार भी छिन जाएगा और जब सवाल मर जाते हैं, तब समाज भी गुलाम हो जाता है।”

पत्रकारों ने किया आंदोलन का ऐलान

बनारस में हाल ही में जो हुआ, उसने पत्रकारिता को ही नहीं, लोकतंत्र की मूल भावना को झकझोर कर रख दिया है। महापुरुषों की प्रतिमाओं की मर्यादा के नाम पर असल सवाल पूछने वालों, यानी पत्रकारों पर फर्जी मुकदमे लादे गए। काशी पत्रकार संघ और ग्रामीण पत्रकार एसोसिएशन ने इस मामले को लेकर जबरदस्त आंदोलन छेड़ने की चेतावनी दी है।

पत्रकारों ने स्पष्ट कहा है कि यह मामला न सिर्फ लोकतंत्र के मूल्यों पर चोट है, बल्कि एक खतरनाक संकेत भी है कि अब सच दिखाने और पूछने वालों को ही अपराधी बना दिया जाएगा। पत्रकार संगठनों ने मदन मोहन मालवीय की प्रतिमा के अपमान पर कोई ठोस कार्रवाई न करने और पत्रकारों को फर्जी मामलों में फंसाने के लिए जिम्मेदार पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कड़ी सजा और विभागीय जांच की मांग की है। पत्रकार संगठनों ने इस मुद्दे पर मुख्यमंत्री से हस्तक्षेप करने और फास्ट ट्रैक जांच की मांग की है।

नव-निर्वाचित पत्रकार संघ अध्यक्ष अरुण मिश्रा ने कहा है कि शहर के वरिष्ठ पत्रकारों पर मुकदमा तानाशाही का प्रतीक है। बनारस की धरती पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचलने की एक शर्मनाक और अलोकतांत्रिक मिसाल पेश की गई है। वह कहते हैं, “एक व्हाट्सएप ग्रुप में प्रशासन की नाकामी पर चर्चा करना अपराध कब से हो गया? सिर्फ ग्रुप में एक वीडियो की चर्चा करने पर पांच पत्रकारों के खिलाफ मुकदमा दर्ज कर देना क्या यह साबित नहीं करता कि बनारस में अब सच बोलना और सच लिखना जुर्म बन गया है? यदि कोई बात असत्य या भ्रामक थी तो पहले नोटिस दिया जाता, जवाब मांगा जाता। क्या अब पत्रकार भीड़ का हिस्सा हो गया है? क्या अब मीडिया को सरकार का प्रवक्ता बना देना चाहिए? क्या अब हर न्यूज़ रिपोर्ट पुलिस की इजाज़त लेकर छपेगी? “

“अगर पुलिस और प्रशासन का यही रुख रहा, तो वह दिन दूर नहीं जब अखबारों के दफ्तरों में पुलिस तैनात होगी और खबरें वही छपेंगी जो सरकार को रास आए। यह बनारस की आत्मा पर हमला है। प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र में अगर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोंटा जाएगा, तो देश के बाकी हिस्सों में क्या होगा? इस तानाशाही प्रवृत्ति के खिलाफ आवाज़ उठनी ही चाहिए। वरना कल हर पत्रकार, हर लेखक, हर जागरूक नागरिक की कलम बंद कर दी जाएगी  और तब न लोकतंत्र बचेगा, न सच।”

अरुण मिश्रा ने स्पष्ट कहा है कि, “इस मामले में वे पुलिस कमिश्नर से मिलेंगे और जरूरत पड़ी तो मुख्यमंत्री से भी सीधी बात की जाएगी। यह लड़ाई सिर्फ पत्रकारों की नहीं है, यह उस हर नागरिक की लड़ाई है जो सच के पक्ष में खड़ा है। अगर प्रशासन की आलोचना करना ही अपराध हो गया है, तो फिर लोकतंत्र और तानाशाही में फर्क क्या रह गया? “

लोकतंत्र की आत्मा पर हमला

बनारस के पत्रकारों के खिलाफ दर्ज मुकदमे के बाद पूरे घटनाक्रम पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए ग्रामीण पत्रकार एसोसिएशन, उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष महेंद्र नाथ सिंह ने जनचौक से कहा कि, “आपातकाल में तानाशाही का सवाल खड़ा करने वाले खुद तानाशाही की राह पर चल रहे हैं और अपने भाषणों से जनता को छलने का काम कर रहे हैं। मौजूदा दौर में पत्रकारिता सत्ता और तंत्र के बीच पिसती जा रही है। बनारस के पत्रकारों के खिलाफ फर्जी मामला दर्ज कर उन्हें आतंकित और परेशान किया जाना कुछ अफसरों और नेताओं की सोची-समझी साजिश का नतीजा है।” 

“पत्रकारों पर की गई यह कार्रवाई अभिव्यक्ति की आजादी पर सीधा हमला है। उन्होंने कहा कि आपातकाल के दौर में भी ऐसा दुस्साहस नहीं हुआ था, जैसा आज एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में हो रहा है। विडंबना देखिए, एक ओर बीजेपी सरकार खुद को आपातकाल की मुखर विरोधी बताती है, दूसरी ओर उसी की छाया में पत्रकारों पर आपातकाल से भी बदतर कार्रवाई की जा रही है।”

महेंद्र नाथ सिंह ने दो टूक कहा कि, “यह घटना केवल कुछ रिपोर्टरों के खिलाफ कार्रवाई नहीं है, बल्कि यह सत्ता के सामने सच बोलने वालों को कुचलने की कोशिश है। बनारस में जिन छह पत्रकारों के खिलाफ सुनियोजित ढंग से एफआईआर दर्ज कराई गई है, वह लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को कमजोर करने की मंशा से उठाया गया कदम है। जब महापुरुष की प्रतिमा पर कोई युवक चढ़ता है और उसका वीडियो सामने आता है, तब दोषियों पर कार्रवाई करने के बजाय पत्रकारों पर मुकदमा क्यों? क्या इसलिए कि उन्होंने सवाल उठाए? “

महेंद्र नाथ सिंह ने भावुक होकर कहा, “ऐसा प्रतीत होता है जैसे बनारस पुलिस प्रशासन ने अपना विवेक और संवेदनशीलता खो दी है। बिना किसी जांच के, बिना पत्रकारों का पक्ष सुने सीधे मुकदमा ठोंक देना न सिर्फ तानाशाही है, बल्कि यह लोकतंत्र की नींव को हिला देने वाला कृत्य है। वीडियो क्लिपिंग की जांच होनी चाहिए थी, पत्रकारों को नोटिस भेजा जाना चाहिए था, पर सब कुछ जल्दबाज़ी और किसी सनकी अफसर के आदेश पर हुआ प्रतीत होता है। पत्रकारों पर एफआईआर से सिर्फ प्रदेश सरकार नहीं, बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की साख पर भी बट्टा लगेगा, क्योंकि यह मामला उनके ही संसदीय क्षेत्र का है।”

महेंद्र नाथ सिंह ने बताया कि ग्रामीण पत्रकार एसोसिएशन (ग्रापए) ने इस पूरे मामले की जांच के लिए एक पांच सदस्यीय जांच समिति गठित की है। इस समिति में बनारस मंडल अध्यक्ष विंदेश्वरी सिंह, जिला अध्यक्ष सीबी तिवारी राजकुमार (वाराणसी), जिलाध्यक्ष चंदौली आनंद सिंह, वरिष्ठ पत्रकार गजेंद्र प्रताप सिंह और विकास दत्त मिश्र को शामिल किया गया है। यह समिति तीन जुलाई 2025 तक अपनी रिपोर्ट प्रदेश अध्यक्ष को सौंपेगी। इसके बाद रिपोर्ट को प्रेस काउंसिल और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को भेजा जाएगा, ताकि न्याय की मांग सिर्फ आवाज़ों में न रह जाए, दस्तावेज़ों में दर्ज हो।

ग्रापए के प्रदेश अध्यक्ष ने मुख्यमंत्री से मांग की है कि इस मामले की निष्पक्ष और उच्चस्तरीय जांच कराई जाए, ताकि सच सामने आ सके और फर्जी मुकदमे वापस लिए जाएं। सरकार इस मामले को गंभीरता से नहीं लेती, तो ग्रामीण पत्रकार एसोसिएशन राज्य भर में आंदोलन की राह पर उतरेगा। उन्होंने कहा, “यह हमला सिर्फ पत्रकारों पर नहीं, काशी की उस महान परंपरा पर भी है, जिसने सैकड़ों वर्षों से सच को ज़िंदा रखा है। यह वक्त है जब देश को तय करना है कि क्या पत्रकारिता अब जुर्म बन चुकी है? क्या सवाल पूछना अब गुनाह है? अगर हां, तो हम सबको मिलकर जवाब देना होगा। कलम अभी टूटी नहीं है, आवाज़ें अभी खामोश नहीं हुई हैं।”

प्रेस की स्वतंत्रता का संकट

बनारस की इस घटना ने पत्रकारों को यह साफ संदेश दिया है कि यहां न चर्चा की आज़ादी है, न सवाल पूछने का हक़। लेकिन यह अकेली घटना नहीं है। पत्रकारों के खिलाफ मुकदमे और हमलों की यह परंपरा वर्षों से चली आ रही है। उन्नाव में पत्रकार सूरज पांडेय की संदिग्ध मौत आज भी ताज़ा है। मामले में महिला दारोगा और सिपाही को निलंबित किया गया, लेकिन पत्रकार की जान क्यों गई, इसका जवाब किसी के पास नहीं है। यह घटना भी उन अनेक उदाहरणों में से एक है जहां पत्रकारों की जान जोखिम में डाली गई।

अगर हम पीछे मुड़कर देखें, तो 2020 से पहले की घटनाएं एक के बाद एक चेतावनी बनकर सामने आती रहीं। बलिया में पत्रकार रतन सिंह को पीट-पीट कर गोली मार दी गई थी। गाज़ियाबाद में विक्रम जोशी को सरेआम इसलिए मारा गया क्योंकि उन्होंने एक छेड़छाड़ की घटना पर आवाज़ उठाई थी। उन्नाव में शुभममणि त्रिपाठी की हत्या इसलिए हुई क्योंकि उन्होंने सरकारी ज़मीन पर कब्जे का खुलासा किया था। कानूनी शिकंजा भी पत्रकारों को चुप कराने का औज़ार बनता गया। सुप्रिया शर्मा ने वाराणसी के डोमरी गांव की भुखमरी पर रिपोर्ट लिखी तो उन पर दलित महिला की भावनाएं आहत करने का आरोप लगा। सिद्धार्थ वरदराजन और प्रशांत कनौजिया जैसे पत्रकारों को मुख्यमंत्री पर टिप्पणी करने की कीमत जेल में रहकर चुकानी पड़ी।

मिर्जापुर में पवन जायसवाल ने जब स्कूल में बच्चों को नमक-रोटी खिलाने का वीडियो दिखाया, तो प्रशासन ने उनके खिलाफ ही एफआईआर दर्ज कर दी। अजय भदौरिया ने नेत्रहीन दंपति की भूख की कहानी सामने रखी तो उनके खिलाफ मुकदमा दर्ज हुआ और पत्रकारों को जल सत्याग्रह करना पड़ा। यह भी याद रखा जाना चाहिए कि जनसंदेश टाइम्स में भूख से जूझते बच्चों की खबर प्रकाशित करने पर इस लेखक  (विजय विनीत) को कानूनी नोटिस जारी किया गया था। सवाल उठाना, सच्चाई लिखना, भूख और लाचारी की तस्वीरें दिखाना आज ये सब अपराध बन चुके हैं।

बनारस में पत्रकारों पर एफआईआर इसी क्रम का अगला पड़ाव है। यह बताता है कि सत्ता अब न सिर्फ सवालों से डरती है, बल्कि उन्हें दबाने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है। प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत की रैंकिंग पहले ही खतरनाक स्थिति में पहुंच चुकी है। 180 देशों में 151वां स्थान। लेकिन अफसोस की बात है कि सरकारें अब भी बधाइयों, शुभकामनाओं और औपचारिक आयोजनों से पत्रकारिता की हकीकत को ढकने की कोशिश कर रही हैं।

“पत्रकारिता अगर लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है, तो उसे गिराने का सबसे सस्ता हथियार आर्थिक दबाव बन गया है।” यह वाक्य रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स (RSF) द्वारा जारी विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक 2025 की आत्मा है। दुनिया भर में प्रेस की स्थिति का आकलन करने वाली इस अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट ने एक बार फिर भारत सहित पूरे विश्व के लोकतांत्रिक स्वास्थ्य पर गंभीर प्रश्न खड़े कर दिए हैं।

इस वर्ष भारत 180 देशों में से 151वें स्थान पर पहुंच गया है, जबकि पिछले वर्ष 2024 में यह 159वें स्थान पर था। यह गिरावट सिर्फ एक आंकड़ा नहीं है, यह दर्शाता है कि लोकतांत्रिक देश होने के बावजूद भारत में प्रेस की स्वतंत्रता लगातार सिमटती जा रही है। 2019 में भारत 140वें स्थान पर था, 2020-21 में 142, 2022 में 150, और 2023 में 161 पर आ गया था। यह क्रम दर्शाता है कि भारत में मीडिया की स्थिति लगातार गिरावट की ओर है।

रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि भारत में मीडिया का स्वामित्व और संचालन अब राजनीतिक ताकतों के इशारे पर हो रहा है। मीडिया घरानों की स्वतंत्रता धीरे-धीरे खत्म होती जा रही है, और कई समाचार संस्थान अब केवल सत्ता के प्रचारक बनकर रह गए हैं। स्वतंत्र पत्रकारिता एक साहसिक कर्म बन चुका है। जो पत्रकार सच्चाई के पक्ष में खड़े हैं, उन्हें कभी आर्थिक रूप से, कभी कानूनी रूप से, तो कभी जान से मारने की धमकी देकर चुप कराया जा रहा है।

2025 की रिपोर्ट का सबसे अहम निष्कर्ष यह है कि पत्रकारिता अब आर्थिक दबावों के समक्ष नतमस्तक होती जा रही है। रिपोर्ट के अनुसार, 160 देशों में मीडिया आउटलेट्स को अपनी वित्तीय स्थिरता बनाए रखना “कठिन” या “असंभव” हो गया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि गूगल, एप्पल, फेसबुक, अमेज़न और माइक्रोसॉफ्ट जैसी टेक कंपनियों का एकाधिकार विज्ञापन राजस्व पर है, जिससे पारंपरिक पत्रकारिता का आर्थिक आधार खत्म हो गया है।

भारत में यह संकट और भी गहरा है क्योंकि यहां कई मीडिया संस्थानों को राजनीतिक व कॉर्पोरेट हितों से जुड़ा वित्तीय सहयोग ही जिंदा रखे हुए है। रिपोर्ट ने विशेष रूप से भारत, लेबनान, आर्मेनिया और बुल्गारिया का ज़िक्र करते हुए कहा है कि इन देशों में पत्रकारिता का भविष्य सशर्त वित्तपोषण पर टिका हुआ है, जिससे निष्पक्ष रिपोर्टिंग असंभव होती जा रही है।

भारत से नीचे जिन देशों को स्थान मिला है, वे अधिकतर तानाशाही या एकदलीय शासन वाले देश हैं, जैसे उत्तर कोरिया (179), चीन (178), वियतनाम (173), म्यांमार (169), रूस (162), और अफगानिस्तान (170)। यह तुलना अपने आप में चिंताजनक है, क्योंकि भारत जैसे लोकतांत्रिक देश को इन राष्ट्रों की श्रेणी में खड़ा कर देना दर्शाता है कि प्रेस की स्वतंत्रता के मामले में हम किस दिशा में जा रहे हैं।

पाकिस्तान 2023 में 150वें स्थान पर था और 2025 में 158 पर आ गया है। भूटान जैसे शांतिप्रिय देश भी भारत से ऊपर हैं। यह भारत के लिए एक चेतावनी है कि पत्रकारों की सुरक्षा, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और स्वतंत्र मीडिया पर ध्यान दिए बिना लोकतंत्र केवल एक भ्रम बनकर रह जाएगा।

रिपोर्ट ने यह भी बताया कि 42 देशों में स्थिति “बहुत गंभीर” है और वहाँ पत्रकारिता करना खतरे से खाली नहीं है। गाज़ा, म्यांमार, इरान, अफगानिस्तान, सूडान, बेलारूस जैसे देशों में प्रेस की स्वतंत्रता न के बराबर है। गाज़ा में इज़रायली हमलों में लगभग 200 पत्रकार मारे गए हैं। अमेरिका जैसे देश, जो प्रेस की स्वतंत्रता के समर्थक माने जाते हैं, वहाँ भी आर्थिक संकट के कारण स्थानीय पत्रकारिता संकट में है। अमेरिका इस साल दो स्थान नीचे गिरकर 57वें स्थान पर आ गया है।

रिपोर्ट का यह निष्कर्ष भारत जैसे लोकतंत्र के लिए बेहद चिंताजनक है कि, “फर्ज़ी केस, आर्थिक बहिष्कार, और संपादकीय हस्तक्षेप अब स्वतंत्र पत्रकारिता के खिलाफ नया हथियार बन चुके हैं।” यह बात बनारस, दिल्ली, या लखनऊ की नहीं, बल्कि देशभर के उन सैकड़ों पत्रकारों की है, जो जमीनी हकीकत सामने लाने की कीमत अपनी नौकरी, पहचान, और कभी-कभी जीवन देकर चुका रहे हैं।

2025 की प्रेस स्वतंत्रता रिपोर्ट केवल आंकड़ों की एक सूची नहीं है, बल्कि यह लोकतंत्र के स्वास्थ्य का पैमाना है। अगर भारत को सच में लोकतांत्रिक कहलाना है, तो उसे सबसे पहले अपनी मीडिया की रीढ़ मजबूत करनी होगी। सरकार, न्यायपालिका और नागरिक समाज को यह समझना होगा कि प्रेस की स्वतंत्रता कोई विलासिता नहीं, बल्कि लोकतंत्र का मूलाधार है। वरना वो दिन दूर नहीं जब भारत उन देशों की कतार में खड़ा मिलेगा जहां पत्रकारिता का मतलब होगा, सिर्फ वही बोलो जो सरकार सुनना चाहती है।

(विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार-लेखक हैं)

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