6 अप्रैल को भारतीय जनता पार्टी अपना स्थापना दिवस मनाती है। यह अवसर सिर्फ संगठन की यात्रा को याद करने का नहीं, बल्कि यह सोचने का भी है कि देश आज किस रास्ते पर जा रहा है। “सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास” का नारा देने वाली पार्टी की नीतियाँ और ज़मीनी हकीकत क्या इस आदर्श से मेल खाती हैं?
इस सवाल का उत्तर खोजने के लिए ज़रा चारों ओर नज़र डालिए। आज़ादी के 75 साल बाद, भारत एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है जहाँ उसकी बहुलतावादी आत्मा, विविधता और सह-अस्तित्व के मूल विचार को चुनौती मिल रही है। भारतीय जनता पार्टी के मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का घोषित लक्ष्य “हिंदू राष्ट्र” है। यह विचार संविधान की उस भावना के बिल्कुल विपरीत खड़ा होता है, जिसमें “हम भारत के लोग” समानता, धर्मनिरपेक्षता और न्याय के मूल मंत्र पर विश्वास करते हैं।
हाल के वर्षों में ऐसे कई कानून और फैसले सामने आए हैं, जिनका असर सीधे तौर पर एक विशेष धार्मिक समुदाय, मुख्य रूप से मुस्लिमों, पर पड़ा है। नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA), राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (NRC), अनुच्छेद 370 का हटाया जाना, वक्फ बोर्ड कानून में संशोधन, और अब समान नागरिक संहिता की ओर बढ़ते कदम। उत्तराखंड पहले ही यूसीसी लागू कर चुका है, जो कि हिंदू नागरिक संहिताओं का ही घालमेल है। यह एक तरह से अल्पसंख्यकों के नागरिक कानूनों की कब्रगाह ही है। अन्य भाजपा शासित राज्य उत्तराखंड के नक्शेकदम पर चलने को आतुर हैं।
लोकसभा में गृहमंत्री अमित शाह समान नागरिक संहिता का संकल्प दोहरा चुके हैं। इन सब में एक पैटर्न नज़र आता है। यह पैटर्न “सबका विश्वास” से नहीं, बल्कि बहुसंख्यक सोच की ओर देश को मोड़ने की नीति से जुड़ा लगता है। और अब जिस तरह से जनसंख्या नियंत्रण कानून की बात की जा रही है, वह भी उसी दिशा में एक और कदम प्रतीत होता है।
राज्यों के स्तर पर भी यह प्रवृत्ति और अधिक स्पष्ट होती जा रही है। उत्तराखंड में ‘लव जिहाद’, ‘भूमि जिहाद’, ‘मज़ार जिहाद’ और ‘थूक जिहाद’ जैसे शब्द सरकार के स्तर पर सार्वजनिक रूप से बोले जा रहे हैं। उत्तराखंड में हिंदुत्व की होड़ में सरकार ने 17 स्थानों के अकबरपुर, खानपुर और औरंगज़ेबपुर जैसे मुस्लिम प्रभाव वाले नाम बदलकर उनका हिंदुकरण कर दिया। गोलवलकर के नाम पर भी नगर का नामकरण कर दिया गया। मुस्लिम विरोधी मानसिकता से ग्रस्त राज्य सरकार ने मियांवाला कस्बे का नाम तक बदल डाला, जबकि उत्तराखंड में “मियां” जाति राजपूतों की भी है।
असम के मुख्यमंत्री ‘मिया मुस्लिम संस्कृति’ को खुले मंच से निशाना बनाते हैं। NRC के ज़रिए लाखों मुसलमानों की नागरिकता को संदेह के घेरे में डाला गया, और फिर CAA के ज़रिए बाकी धर्मों के लोगों को सुरक्षा दी गई—मुसलमानों को छोड़कर। उत्तर प्रदेश में बुलडोज़र न्याय की जिस नीति को महिमामंडित किया गया है, उसमें भी एक समुदाय विशेष को निशाना बनाए जाने की प्रवृत्ति बार-बार देखी गई है। दिल्ली, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, हरियाणा जैसे राज्यों में नमाज़ स्थलों पर रोक, हिजाब पर प्रतिबंध, हलाल मांस के बहिष्कार और मुस्लिम व्यापारियों को मेलों से बाहर करने जैसी घटनाएं इस बात की ओर संकेत करती हैं कि देश में एक सुनियोजित सामाजिक ध्रुवीकरण चल रहा है।
यह सब सिर्फ सामाजिक या राजनीतिक घटना नहीं है, बल्कि संविधान के मूल स्वरूप पर सीधी चोट है। भारत का संविधान हर नागरिक को धर्म, जाति, भाषा और संस्कृति के आधार पर बिना भेदभाव के समान अधिकार देता है। लेकिन जब सरकारें खुद कानून बनाकर एक समुदाय को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाने की प्रक्रिया शुरू करें, तो यह केवल एक समुदाय की समस्या नहीं, बल्कि पूरी लोकतांत्रिक संरचना के लिए खतरे की घंटी बन जाती है।
“सबका विश्वास” केवल एक नारा नहीं होना चाहिए, बल्कि शासन का मूल आधार बनना चाहिए। लेकिन जब तक नीतियाँ समावेशी न हों, जब तक राजनीतिक प्रतिनिधित्व में सभी समुदायों की समान भागीदारी सुनिश्चित न की जाए, जब तक धर्म के नाम पर भेदभाव करने वालों के खिलाफ कठोर कार्रवाई न हो, और जब तक शासन की दिशा संविधान की भावना से तय न हो, तब तक यह नारा केवल एक चुनावी औजार बना रहेगा।
आज सवाल यह नहीं है कि सत्ता में कौन है, बल्कि सवाल यह है कि क्या भारत में सभी धर्मों और समुदायों को समान नागरिक माना जाएगा या नहीं? क्या भारत की आत्मा “हिंदू राष्ट्र” के विचार से संचालित होगी, या “संविधानिक राष्ट्र” के विचार से? क्या मुस्लिम समुदाय धीरे-धीरे देश में दूसरे दर्जे का नागरिक बनता जा रहा है? क्या हमारी लोकतांत्रिक संरचना बहुसंख्यक जनभावना के दबाव में झुक रही है?
भारतीय जनता पार्टी का स्थापना दिवस केवल एक जश्न नहीं, बल्कि आत्ममंथन का दिन भी है। यह वह दिन है जब सत्ता को यह सोचना चाहिए कि उसका रास्ता किस ओर जा रहा है-विविधता और समरसता की ओर, या एकरूपता और वर्चस्व की ओर। भारत का भविष्य इस बात पर निर्भर करेगा कि हम संविधान के रास्ते पर चलते हैं या बहुसंख्यकवाद के। लोकतंत्र की रक्षा बहुसंख्यक के विवेक से नहीं, संविधान की शक्ति से होती है।
(जयसिंह रावत वरिष्ठ पत्रकार हैं और देहरादून में रहते हैं)
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