लोकतंत्र का पेपर लीक है आखिर सन्नाटा क्यों है गुमराही चच्चा

कोलाहल का हद के पार चला जाये तो अपने पीछे सन्नाटा छोड़ जाता है। विपक्षी गठबंधन के नेताओं के भाषणों से शब्दों और वाक्य खंडों को चुन-चुनकर शब्द गोलों को उछालते रहना चुनाव प्रचार की शैली नहीं हो सकती है। खासकर लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में दस साल के शासन के बाद कोई राजनीतिक दल तीसरी बार चुनाव मैदान में जनादेश के लिए चुनाव प्रचार कर रही हो। अचरज की बात है कि धीरे-धीरे जिनकी जबान ने हिलना बंद कर दिया था। लोक के जीवन में एक-से-बढ़कर-एक संकट आया, लेकिन उनका मुंह न खुला! अब वे भी बोलने की कोशिश कर रहे हैं। अफसोस है कि उनकी बातें अब प्रदूषण फैलानेवाले धुआं के आवारा छल्लों से अधिक कोई हैसियत नहीं रखती।

लोकतंत्र का पर्व सामने है। हर साल मनाये जानेवाले पवित्र पर्वों का लोग बेसब्री से इंतजार करते हैं। पांच साल में होनेवाले पर्व के इंतजार में कोई बेसब्री नहीं दिखती है, तो धरती पर कान लगाइये! हवा की सनसनाहट को कान से पढ़िये! जी, आंख को बचाइए, यह चित्र से चौंधियाने के खतरों से बचाव का वक्त है। सोचिए कि भारत में ऋषि-मुनि-दार्शनिक, सत्यान्वेषी भी अपनी साधना की शुरुआत ही आंख मूंदने से क्यों करते थे!’ वे ऋषि-मुनि थे उनके आंख के कारण अपनी जगह, यहां तो चित्र की चौंधियाहट के खतरों से बचाव की बात है, आंख मूंदने की नहीं। लोकतंत्र का पर्व सामने है, जनता के खामोश सब्र के पीछे की सुगबुगाहट में आनेवाले समय की आहट है।

गनीमत है कि रावण को रामायण लिखने का मौका नहीं मिला, मिलता तो पता नहीं क्या-क्या लिखता। वैसे छलछलाती हुई छलकारी आत्मीयता और दुम दबाकर गले लगती आत्महीनता की लोकतांत्रिक प्रक्रिया में सक्रिय वर्तमान के डील-डौल से कुछ-न-कुछ अनुमान तो लग ही सकता है। अपराधियों के झुंड और दलों के दलदल में दहाड़े वसंत में छिपे लोकतंत्र के पतझड़ के संकेतों को पढ़ लेना क्रिया सचमुच बहुत मुश्किल है! नहीं न! न्याय की बात! न्याय तो प्रमाण के इंतजार में उम्र गुजारता है। भारत में ‘न्याय शास्त्र’ के अनुसार प्रमाण चार तरह के होते हैं। प्रमाण चतुष्टय हैं, प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द। प्रत्यक्ष यानी आंख के सामने जो साफ-साफ दिख रहा हो। लेकिन, आंख तो चौंधियाहट की चपेट में है। उस का प्रमाण होना मुश्किल ही है।

अनुमान का मतलब मान यानी किसी मानदंड का सहारा लेते हुए सत्य के ज्ञान तक पहुंचना। जब न हो कोई मान और न बचा हो मानदंड तो अनुमान मृग-छौनों की तरह कभी उछलकर इधर तो कभी उधर! ऐसे में काम का बचता है, उपमान और शब्द। उपमान यानी उदाहरण। दूसरों के कारनामों के उदाहरण से कोई अपनी बेगुनाही का प्रमाण नहीं जुटा सकता है। सच की मुट्ठी खोलकर झूठ उछालने के लिए उदाहरणों के विविध प्रसंगों से भरा हुआ है सार्वजनिक परिदृश्य। बचा शब्द यानी आवाज! याद है न! प्यासे मां-बाप की प्यास बुझाने के लिए श्रवण कुमार पानी भरने गये थे।

पानी भरने की गुड़गुड़ी आवाज के चलते प्राण जाये पर वचन न जाये की दुहाई देने वाले दसरथ के वाण से बिंधकर प्राणहारी मुकाम पर पहुंच गये थे! याद है न! यक्ष के प्रश्नाकुल आवाज की! यक्ष की आवाज को अनसुनी करते हुए पानी लेना किस तरह प्राणघाती हो जाता है। याद रखना जरूरी है पानी के लिए हुई अब्बास की शहादत! लोकतंत्र का पानी सूख रहा है। लोकतंत्र को सूखा से बचाने की प्राथमिकता और प्रतिबद्धता के रास्ते में सुख-सुविधा के लालच से बचना जरूरी है। कठिन समय में प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द जैसे प्रमाण के किसी भी प्रसंग से लापरवाह शासकीय सिद्धांत का सूत्र होता है, जो साथ है वह ईमानदार, जो साथ नहीं वह गिरफ्तार!

मीडिया का सहारा! सहारे के सर्वेक्षण का विश्वास करे कोई या इंतजार के विवेक का मनोरंजन! कहना मुश्किल है। मीडिया सर्वेक्षण का अपना तरीका है। भारत में लोकतंत्र का पेपर लीक है। पंचर साइकिल खींचते आदमी के सामने सवाल उठाना कि आखिर ‎मुद्दा क्या है? जाहिर है, वह लोकतंत्र नहीं, साइकिल कहेगा! पता लगाना मुश्किल है कि पंचर साइकिल है ‎या साइकिल को खींचनेवाला आदमी है! या फिर लोकतंत्र! सवाल उठानेवाले के पंचर होने से भी इनकार नहीं किया जा ‎सकता है।

दिल्ली, झारखंड और छत्तीसगढ़ पता नहीं कहां-कहां विभागों और एजेंसियों का क्रिया-कलाप हो रहा है और चुनाव के दरमियान होगा! हर झूठ का जवाब खामोशी नहीं हो सकती है, मगर धीरे-धीरे होती चली गई है। ‎इसलिए वैसा कोलाहल नहीं बन पा रहा है जो किसी भी आधार पर ध्रुवीकरण को ‎अपने पक्ष में कर लेने में बड़बोलों का मददगार हो। मतदाताओं का इस तरह ऊपर से ‎बिखरा-बिखरा दिखना परेशानी पैदा कर रहा है।

विचलित और प्लावित ‎‎(Distracted ‎और Floating) मतदाताओं का इतना बड़ा आकार राजनीतिक दलों की ‎घबराहट का स्वाभाविक कारण है। इस समय स्थिति ऐसी बन गई है कि मतदाताओं ‎को भीतर से मथते हुए सवाल ने उसे इतना निराश कर दिया है कि वह पुरानी ‎प्राथमिकताओं और प्रतिबद्धताओं से तो विच्छिन्न कर दिया है और नई ‎प्राथमिकताओं, प्रतिबद्धताओं से जुड़ नहीं पाया है। यह लोकतंत्र और चुनाव के लिए ‎शुभ है या अशुभ अभी तय होना बाकी है। इस के शुभ-अशुभ का मामला मतदान के ‎प्रतिशत में छिपा है। मोटे तौर पर मतदान का बड़ा प्रतिशत शुभ का लक्षण है।

भारी संख्या में मतदाताओं को अपना-अपना मतदान कर लोकतंत्र के पर्व को सफल बनाना चाहिए। यह एक ऐसा पवित्र पर्व है जो पांच साल में एक बार आता है। चुनाव प्रचार और मीडिया सर्वेक्षण अपनी जगह अधिकार-हनन और अतिक्रमण की हर कोशिश को नाकाम करते हुए पूर्वग्रह मुक्त मन-मस्तिष्क और खुले दिल से मतदान में अपनी भूमिका का पाल नागरिकों का परम पावन संवैधानिक कर्तव्य है। चुनाव पर्व में पुष्प, पूजा और प्रसाद मतदान है। इस मतदान पर ही भारत का भाग्य निर्भर करता है यही मतदान प्रक्रिया है जो बड़े-बड़े लोगों के अपने भारत भाग्य विधाता बन जाने का भ्रम तोड़ देती है। विधायिका के विधाता बन जाने के भ्रम में पड़ने से बड़ी दुर्घटना लोकतंत्र में और क्या हो सकती है!

लोकतंत्र का पेपर लीक है आखिर सन्नाटा क्यों है ‎गुमराही चच्चा? जवाब की उम्मीद किस से है? यह याद रखने की जरूरत है, जवाब आम नागरिकों और मतदाताओं के ही पास है, गुमराही चच्चा पास नहीं! यह खासकर ‎‘फर्स्ट टाइम वोटर’ ‎ के लिए याद रखना बहुत जरूरी है कि मतदान का दिन राजनीतिक नेताओं का नहीं, मतदाताओं का दिन है। मतदाता के दिन ‎की पवित्रता की रक्षा करना हमारा कर्तव्य है। ‎

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)

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