1975 का आपातकाल बनाम 2023 की अघोषित इमरजेंसी

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1975 की 25-26 जून की रात के दरमियान तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल (इमरजेंसी) घोषित कर दिया था। तत्काल तमाम नागरिक अधिकार स्थगित। विपक्ष और विरोधियों की धरपकड़। केंद्रीय एजेंसियों को ऊपर से लेकर नीचे तक जुल्म करने के बाकायदा अधिकार। पुलिस बेकाबू कर दी गई। इस महादेश में ऐसा पहली बार हुआ था। बेशक श्रीमती गांधी को 1977 में अवाम ने लोकतांत्रिक सांचों में रहकर जबरदस्त सबक सिखाया। अब ये सब बातें बीते कल का हिस्सा हैं। लेकिन केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार उस बर्बर आपातकाल की शिद्दत से याद दिलाती है। अपने विचारधारात्मक एजेंडे और कारगुज़ारियों के जरिए।

इंदिरा गांधी ने तो बाकायदा संबोधन के बाद आपातकाल (राष्ट्रपति के जरिए) लागू किया था और इसका सबसे तीखा विरोध राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा उससे वाबस्ता संगठनों ने किया था। 1975 के आपातकाल के दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके सहयोगी संगठनों पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। अब 2023 चल रहा है। 75 के आपातकाल के कई खलनायक स्वाभाविक मृत्यु को हासिल हो गए और कतिपय कुछ लोग हाशिए पर हैं। जिन्होंने श्रीमती गांधी द्वारा लागू आपातकाल देखा और भुगता है; वे बखूबी कहते मिलते हैं कि 75 का आपातकाल एलानिया था लेकिन अब अपरोक्ष रूप से इमरजेंसी लगी हुई है।

नरेंद्र मोदी सरकार की कारगुज़ारियों को देखें तो यह सौ फीसदी सच है। दरअसल, स्वभाव और कामकाज के लिहाज से सख्त मिजाजी वाले नरेंद्र मोदी ने गुजरात का मुख्यमंत्री बनते ही अपने किस्म का मौलिक आपातकाल लागू किया। उनके मुख्यमंत्री बनते ही गुजरात भयावह दंगों की आग में सुलग उठा। उन पर और गृहमंत्री अमित शाह पर मानवाधिकार संगठनों और रातों-रात लावारिस कर दिए गए अल्पसंख्यकों ने खुले आरोप लगाए थे कि मोदी और शाह के हाथ बेगुनाहों के खून से सने हुए हैं। अकूत ताकत और कंधे पर आरएसएस का मजबूत हाथ होने के चलते वह बच निकले। गुजरात के पूर्व गृहमंत्री हरेन पांड्या की हत्या में भी मोदी और शाह का नाम आया।

एक साल के भीतर ऐसे कई बड़े घटनाक्रम हुए; जिनसे साबित हुआ कि तानाशाही की बाबत नरेंद्र मोदी इंदिरा गांधी से दो कदम आगे हैं। 1914 में वह प्रधानमंत्री बने। मंत्रिमंडल चयन में सिर्फ उनकी चली। आडवाणी खेमे की सुषमा स्वराज को विदेश मंत्री बनाया गया लेकिन कागजी। हर मंत्री के कामकाज में नरेंद्र मोदी ने सीमाएं पार करके हस्तक्षेप किए। जानने वाले जानते हैं कि किसी भी मंत्रालय की फाइल प्रधानमंत्री की इजाजत के बगैर रत्ती भर भी आगे नहीं बढ़ती। कई फाइलें तो बरसों से धूल चाट रही हैं। इसलिए भी कि मोदी ने उन पर कोई फैसला नहीं लिया।

आपातकाल लागू करने वाला अपनी मूल प्रवृत्ति में कहीं न कहीं ‘हिटलरशाही’ की अलामत का शिकार होता है। निसंदेह इंदिरा गांधी थीं। नरेंद्र मोदी भी हैं। यही वजह है कि हम 2023 को जून 1975 में जीने को अभिशप्त हैं। पूरे देश में आज अघोषित आपातकाल लागू है। विरोध में उठी हर आवाज को अमानवीय हथकंडों से बेरहमी के साथ कुचला जा रहा है। ईडी और सीबीआई को सीधे पीएमओ से निर्देश मिलते हैं और उनका सख्ती के साथ पालन किया जाता है।

सरकार बुद्धिजीवियों से ही नहीं बल्कि बुद्धिमानों से भी खुन्नस रखती है। एक-दो नहीं, बेशुमार उदाहरण हैं। खिलाफत में बोलने वाले बुजुर्ग और बीमार बुद्धिजीवियों को भी सलाखों के पीछे डाला जा रहा है। नोटबंदी हुई तो कई अंतर्राष्ट्रीय स्तर के अखबारोंं ने लिखा कि यह अपने आपमें अघोषित इमरजेंसी है। ऐसे हालात बन भी गए थे। 1975 के आपातकाल में ‘बुलडोजर कल्चर’ फला-फूला था। उत्तर प्रदेश सहित कई राज्यों में भाजपा सरकारें हैं। वहां किसी भी प्रतिद्वंदी को गुनाहगार बताकर उसके बेकसूर परिवार को बुलडोजर के जरिए चंद घंटों में बिना छत के कर दिया जाता है। कोई अपील नहीं कोई दलील नहीं। गोया 1975 क्रूरता के नए लबादे के साथ लौट आया है।

नरेंद्र मोदी सरकार के अनेक फैसले आपातकाल से प्रभावित हैं। अंतर सिर्फ यही है कि 1975 में इंदिरा गांधी ने बाकायदा आपातकाल की घोषणा की और नरेंद्र मोदी कुछ कदम आगे जाकर भी अघोषित इमरजेंसी लागू किए हुए हैं। देश में बहुतेरे लोग मानते हैं कि नरेंद्र मोदी सरकार के तमाम मंत्री, अमित शाह तथा नितिन गडकरी को छोड़कर गूंगे और बहरे हैं। आजाद मीडिया उनकी तुलना कठपुतलियों के साथ भी करता है।

बहरहाल, देश, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भाजपा और नरेंद्र मोदी की राजनीति को बारीकी से जानने वाले विश्लेषणात्मक दावा करते हैं कि भारत एकबारगी फिर घोषित आपातकाल के साए तले होगा। यह तब संभव होगा जब लगेगा कि अब भाजपा किसी भी सूरत में सत्ता में नहीं आ सकती।

(अमरीक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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