भारत में लोकतंत्र खत्म होने का असर पूरी दुनिया पर पड़ेगा : अरुंधति रॉय 

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(मशहूर लेखिका अरुंधति रॉय को 12 सितंबर को उनके निबंध ‘आजादी’ के फ्रांसीसी अनुवाद – लिबर्टे, फासिस्म, फिक्शन- के अवसर पर उनकी आजीवन उपलब्धि के लिए 45वें यूरोपीय निबंध पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इस मौके पर उनके द्वारा दिए गए व्याख्यान का पाठ-संपादक)

2023 के ‘यूरोपीय निबंध पुरस्कार’ से मुझे सम्मानित करने के लिए मैं चार्ल्स वेइलॉन फाउंडेशन को धन्यवाद देती हूँ। मैं इस समय बता नहीं सकती कि इसे पाकर मैं कितनी खुश हूँ। शायद मैं इतरा रही हूँ। मुझे सबसे ज्यादा ख़ुशी इस बात की है कि यह पुरस्कार साहित्य के लिए है। शांति के लिए नहीं, संस्कृति या सांस्कृतिक स्वतंत्रता के लिए नहीं, बल्कि साहित्य के लिए। लेखन के लिए; और उस तरह के लेखन के लिए, जैसा कि मैं लिखती हूँ और पिछले 25 वर्षों से लिखती आ रही हूँ।

भारत में, आज उन्होंने कदम-दर-कदम आगे बढ़ते हुए, देश के पहले बहुसंख्यकवाद और फिर पूर्ण विकसित फासीवाद में पतन को सुनिश्चित कर लिया है। (हालाँकि कुछ लोग इसे उत्थान समझ रहे हैं।) हां, हमारे यहां चुनाव होते रहते हैं और इसी वजह से, एक विश्वसनीय मतदाता समूह तैयार करने के लिए, सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के हिंदू वर्चस्ववाद के संदेश को 1.4 अरब लोगों की आबादी तक लगातार प्रसारित किया गया है। नतीजतन, चुनाव का मौसम, भारत के अल्पसंख्यकों, खास करके मुसलमानों और ईसाइयों के लिए सबसे खतरनाक समय हो जाता है, जब उनकी हत्याएं, लिंचिंग और उनको निशाना बनाकर की जाने वाली बयानबाजियां आम बात हो जाती हैं।

हालत यह है कि हमें अब सिर्फ अपने नेताओं से नहीं, बल्कि आबादी के एक पूरे हिस्से से डरने की जरूरत आ पड़ी है। गंदगी इतनी आम, इतनी सामान्यीकृत हो चुकी है कि अब हमारी सड़कों पर, हमारी कक्षाओं में, बहुत सारे सार्वजनिक स्थानों पर प्रकट होने लगी है। मुख्यधारा की प्रेस, 24 घंटे चलने वाले सैकड़ों खबरिया चैनलों को फासीवादी बहुसंख्यकवाद के प्रसार के लिए इस्तेमाल किया गया है। भारत के संविधान को वस्तुतः दरकिनार कर दिया गया है। भारतीय दंड संहिता को फिर से लिखा जा रहा है। यदि वर्तमान शासन 2024 में फिर से बहुमत हासिल कर लेता है, तो पूरी संभावना है कि हमारे सामने एक नया संविधान होगा।

पूरी संभावना है कि “परिसीमन” किया जाएगा, यानि अपने चुनावी फायदे के लिए निर्वाचन क्षेत्रों के पुनर्निर्धारण की चालाकी, जिसे अमेरिका में गैरीमांडरिंग कहा जाता है। इससे उत्तर भारत के उन हिंदी भाषी राज्यों में ज्यादा संसदीय सीटें आ जाएंगी जहां भाजपा का बड़ा जनाधार है। इससे दक्षिणी राज्यों में भारी आक्रोश फैलेगा और पूरी आशंका है कि इससे भारत भीतर से खंडित हो जाएगा क्षेत्रीय टकराव शुरू हो जाएगा। यहां तक ​​कि अगर ये चुनाव में पराजित भी हो जाते हैं, जिसकी संभावनाएं कम हैं, तब भी यह वर्चस्ववादी जहर बहुत गहरा हो चुका है और इसने हर उस सार्वजनिक संस्थान में अपनी पैठ बना लिया है जो सत्ता के नियंत्रण और संतुलन की निगरानी करने के लिए बनाया गया था। वस्तुतः पहले से ही खोखला और कमज़ोर बना दिये गये सुप्रीम कोर्ट को छोड़कर इस समय कोई अन्य संस्थान बचा ही नहीं है।

मैं एक बार फिर मुझे यह प्रतिष्ठित पुरस्कार देने के लिए और मेरे काम को मान्यता देने के लिए आपको धन्यवाद देती हूँ – हालांकि मैं आपको यह भी बताना चाहूंगी, कि लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार एक व्यक्ति को बूढ़ा महसूस कराने लगता है। यानि मुझे यह दिखावा अब बंद करना होगा कि मैं अभी बूढ़ी नहीं हुई हूँ। किस दिशा में हमारा पतन हो रहा है, उसके बारे में चेतावनी देने वाला लेखन 25 वर्षों तक करते रहने के लिए पुरस्कार प्राप्त करना कुछ मायनों में एक बड़ी विडंबना है। हालाँकि – उस पर ध्यान नहीं दिया गया, बल्कि उदारवादियों और खुद को “प्रगतिशील” मानने वाले लोगों द्वारा अक्सर इसका मजाक उड़ाया जाता रहा और आलोचना की जाती रही।

लेकिन अब चेतावनी का समय ख़त्म हो गया है। हम इतिहास के एक अलग चरण में हैं। एक लेखक के रूप में, मैं केवल यह आशा कर सकती हूँ कि मेरा लेखन मेरे देश के जीवन में आ रहे इस काले अध्याय का गवाह बनेगा। और उम्मीद है कि मेरे जैसे अन्य लोगों का काम जारी रहेगा, ताकि सनद रहे, कि जो कुछ हो रहा था, हम सभी उससे सहमत नहीं थे।

मैंने अपने जीवन की कोई ऐसी योजना नहीं बनायी थी कि मैं एक निबंधकार बनूंगी। यह तो बस यूं ही हो गया। मेरी पहली किताब ‘द गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स’ थी, जो 1997 में प्रकाशित एक उपन्यास था। वह ब्रिटिश उपनिवेशवाद से भारत की आजादी की 50वीं वर्षगांठ थी। शीत युद्ध समाप्त हुए आठ साल हो चुके थे और सोवियत साम्यवाद अफगान-सोवियत युद्ध के मलबे में दब चुका था। यह अमेरिकी प्रभुत्व वाले एकध्रुवीय विश्व की शुरुआत थी जिसमें पूंजीवाद निर्विरोध विजेता था। भारत ने खुद को संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ जोड़ लिया और इसने अपने बाज़ार कॉर्पोरेट पूंजी के लिए खोल दिये।

‘निजीकरण’ और ‘संरचनात्मक समायोजन’ और कुछ नहीं, महज मुक्त बाज़ार का दुंदुभी था। भारत ऊंचे आसनों में अपना स्थान ले रहा था। लेकिन तभी 1998 में भाजपा के नेतृत्व वाली हिंदू राष्ट्रवादी सरकार सत्ता में आयी। सबसे पहला काम जो उसने किया वह था, एक के बाद एक परमाणु परीक्षण। लेखकों, कलाकारों और पत्रकारों समेत अधिकांश लोगों ने उनका स्वागत जहरीली, उग्र राष्ट्रवाद की भाषा में किया। सार्वजनिक चर्चा का विषय अचानक बदल चुका था।

उस समय, अपने उपन्यास के लिए ‘बुकर पुरस्कार’ जीतने के बाद, मुझे अनजाने में इस आक्रामक नये भारत के सांस्कृतिक राजदूतों में से एक के रूप में प्रस्तुत किया जाने लगा था। मैं प्रमुख पत्रिकाओं के मुखपृष्ठ पर छा गयी थी। मैं जानती थी कि अगर मैं कुछ नहीं कहूँगी तो यह मान लिया जाएगा कि मैं इन सब बातों से सहमत हूँ। तब मुझे समझ आया कि चुप रहना भी बोलने जितना ही राजनीतिक है। मैं यह भी समझ गयी कि बोलने से साहित्य जगत की परी-राजकुमारी के रूप में मेरा करियर ख़त्म हो जाएगा। इससे भी अधिक, मैं यह समझ गयी कि अगर मैंने परिणामों की परवाह किए बिना वह नहीं लिखा जो मैं मानती हूँ, तो मैं खुद अपनी सबसे बड़ी दुश्मन बन जाऊंगी और वे बातें संभवतः फिर कभी नहीं लिख पाऊंगी।

इसलिए, मैंने लिखा, अपने लेखन को बचाने के लिए। मेरा पहला निबंध, ‘द एंड ऑफ इमेजिनेशन’, बड़े पैमाने पर पढ़ी जाने वाली दो प्रमुख पत्रिकाओं, ‘आउटलुक’ और ‘फ्रंटलाइन’ में एक साथ प्रकाशित हुआ था। मुझे तुरंत देशद्रोही और राष्ट्र-विरोधी करार दे दिया गया। मैंने इस अपमान को प्रशंसा के रूप में स्वीकार किया। यह प्रतिष्ठा किसी ‘बुकर पुरस्कार’ से कम नहीं थी। यह क़दम मुझे बांधों, नदियों, विस्थापन, जाति-व्यवस्था, खनन, गृहयुद्ध के बारे में एक लंबी लेखन यात्रा पर ले गया – एक ऐसी यात्रा जिसने मेरी समझ को और गहरा किया और मेरी कल्पना और गैर-कल्पना को इस तरह से आपस में गूंथ दिया कि उन्हें अब अलग नहीं किया जा सकता है।

जब मेरे निबंध पहली बार प्रकाशित हुए (पहले बड़े पैमाने पर प्रसारित होने वाली पत्रिकाओं में, फिर इंटरनेट पर और अंत में किताबों के रूप में), तो उन्हें कम से कम कुछ हलकों में, अक्सर उन लोगों द्वारा भी अनिष्टकारी संदेह की दृष्टि से देखा गया, जो आवश्यक रूप से इसके राजनीतिक पक्ष से असहमत भी नहीं थे। दरअसल यह लेखन उससे कुछ हट कर था, जिसे परंपरागत रूप से साहित्य समझा जाता है। साहित्य को अलग-अलग विधाओं में बांटकर देखने के आदी लोगों द्वारा इसे अनिष्टकारी समझना स्वाभाविक भी था, क्योंकि वे यह तय नहीं कर पा रहे थे कि वास्तव में यह लेखन क्या था – कोई पर्चा था, या राजनीतिक बहस था, अकादमिक लेखन था, या पत्रकारीय लेखन, यात्रा-वृतांत था, या सिर्फ साहित्यिक दुस्साहस?

कुछ लोग तो इसे लेखन मान ही नहीं रहे थे। वे कहते, “अरे, आपने लिखना क्यों बंद कर दिया है? हम आपकी अगली किताब का इंतज़ार कर रहे हैं।” दूसरे सोचते थे कि सिर्फ पैसे देकर मुझसे लिखवाया जाता है। मेरे पास हर तरह के प्रस्ताव आए: “डार्लिंग, तुमने बांधों पर जो लेख लिखा था, वह मुझे बहुत पसंद आया, क्या तुम बाल शोषण पर मेरे लिए एक काम कर सकती हो?” (ऐसा वास्तव में हुआ था।) मुझे सख्ती से व्याख्यान भाषण पिलाया गया, (ज्यादातर उच्च जाति के पुरुषों द्वारा) कि कैसे लिखना है, मुझे किन विषयों पर लिखना चाहिए, और मुझे कौन सा लहजा अपनाना चाहिए।

लेकिन अन्य स्थानों पर इन निबंधों का तुरंत अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद किया गया, पर्चों के रूप में मुद्रित किया गया और मुफ्त में वितरित किया गया, खास करके जंगलों और नदी घाटियों में, हमले झेल रहे गांवों में, उन विश्वविद्यालय परिसरों में जहां छात्र अपनी कक्षाओं में झूठे व्याख्यान सुनते-सुनते तंग आ चुके थे। क्योंकि ये पाठक वे लोग थे, जो वहां अगली क़तारों में थे, और उस फैल रही आग से सीधे झुलस रहे थे, और इसीलिए साहित्य क्या है या साहित्य को क्या होना चाहिए, इसके बारे में उनके विचार पूरी तरह से अलग थे।

मैं इसका जिक्र इसलिए कर रही हूँ क्योंकि इसने मुझे सिखाया कि साहित्य के लिए जगह लेखकों और पाठकों द्वारा खुद बनायी जाती है। यह कुछ मायनों में एक नाजुक जगह है, लेकिन यह जगह अविनाशी है। जब यह टूट जाती है, तो हम इसे दोबारा बना लेते हैं। क्योंकि हमें आश्रय की जरूरत है। मुझे यह विचार बहुत पसंद है, कि साहित्य वही है, जिसकी जरूरत है। ऐसा साहित्य, जो आश्रय प्रदान करता हो। हर तरह का आश्रय।

आज के समय में यह बिल्कुल अकल्पनीय है कि भारत में कोई भी मुख्यधारा का मीडिया घराना, जिन सभी का जीवन कॉर्पोरेट विज्ञापनों पर टिका है, इस तरह के निबंध प्रकाशित करेगा। पिछले 20 वर्षों में, मुक्त बाज़ार, फासीवाद और तथाकथित स्वतंत्र प्रेस ने मिलकर भारत को एक ऐसी जगह पहुँचा दिया है जहाँ इसे किसी भी कोण से लोकतंत्र नहीं कहा जा सकता है।

इस साल जनवरी में घटित दो घटनाएं इसे बखूबी स्पष्ट कर देंगी। बीबीसी ने ‘इंडिया: द मोदी क्वेश्चन’ नामक दो-भाग वाली डॉक्यूमेंटरी प्रसारित की, और कुछ ही दिनों बाद, ‘हिंडनबर्ग रिसर्च’ नामक एक छोटी अमेरिकी फर्म, जो एक्टिविस्ट शॉर्ट-सेलिंग कंपनी के रूप में जानी जाती है, उसने एक रिपोर्ट प्रकाशित किया, जिसे अब ‘हिंडनबर्ग रिपोर्ट’ के रूप में जाना जाता है। इसमें भारत के सबसे बड़े निगम – अडानी समूह द्वारा किये गये गलत कामों का चौंकाने वाला विस्तृत खुलासा किया गया।

लेकिन बीबीसी-हिंडनबर्ग खुलासों को भारतीय मीडिया ने भारत के जुड़वा स्तंभों (ट्विन टॉवरों)- प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भारत के सबसे बड़े उद्योगपति, गौतम अडानी पर हमले के रूप में प्रस्तुत किया। अडानी हाल तक दुनिया के तीसरे सबसे अमीर आदमी थे। उनके खिलाफ लगाए गए आरोप मामूली नहीं हैं। बीबीसी की फिल्म में मोदी पर सामूहिक हत्या के लिए उकसाने का आरोप लगाया गया है। हिंडनबर्ग रिपोर्ट में अडानी पर “कॉर्पोरेट इतिहास में सबसे बड़ा घोटाला” करने का आरोप लगाया गया है। अभी 30 अगस्त को, ‘द गार्जियन’ और ‘फाइनेंशियल टाइम्स’ ने ‘ऑर्गेनाइज्ड क्राइम एंड करप्शन रिपोर्टिंग प्रोजेक्ट’ (ओसीसीआरपी) द्वारा प्राप्त उन दस्तावेजों पर आधारित लेख प्रकाशित किए जो अडानी समूह द्वारा किये गये अपराधों के प्रमाण हैं। ये लेख हिंडनबर्ग रिपोर्ट को और अधिक पुष्ट करते हैं।

भारतीय जांच एजेंसियां ​​और अधिकांश भारतीय मीडिया न तो इन मामलों की जांच करने की स्थिति में हैं, न ही इन्हें प्रकाशित करने की स्थिति में हैं। जब विदेशी मीडिया यह काम कर रहा है, तो छद्म अति-राष्ट्रवाद के वर्तमान माहौल में, इसे भारतीय संप्रभुता पर हमले के रूप में चित्रित करना एक आसान काम है।

बीबीसी फिल्म ‘द मोदी क्वेश्चन’ का एपिसोड -1 2002 के मुस्लिम विरोधी नरसंहार के बारे में है, जो गुजरात राज्य में तब भड़का था, जब उस रेलवे कोच में आग लगाने के लिए मुसलमानों को जिम्मेदार ठहराया गया था, जिसमें 59 हिंदू तीर्थयात्री जिंदा जल गये थे। नरसंहार से कुछ महीने पहले ही मोदी राज्य के मुख्यमंत्री नियुक्त (निर्वाचित नहीं) किये गये थे। यह फिल्म सिर्फ हत्याओं के बारे में नहीं है, बल्कि भारत की पेचीदा कानूनी प्रणाली पर विश्वास, और न्याय तथा राजनीतिक जवाबदेही की उम्मीद बरक़रार रखते हुए, कुछ पीड़ितों ने 20 साल की जो यात्रा जारी रखी, उसके बारे में भी यह फिल्म है।

इसमें चश्मदीद गवाहों की गवाही शामिल है। सबसे मार्मिक गवाही इम्तियाज पठान की है, जिन्होंने “गुलबर्ग सोसाइटी नरसंहार” में अपने परिवार के दस सदस्यों को खो दिया था, इस हत्याकांड में भीड़ ने 60 लोगों की हत्या कर दी थी, जिसमें एक पूर्व सांसद एहसान जाफरी भी शामिल थे, जिनके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिए गए थे और उन्हें जिंदा जला दिया गया था। वे मोदी के राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी थे और हाल के चुनाव में उन्होंने उनके खिलाफ प्रचार किया था। यह नरसंहार उन कुछ दिनों में ही गुजरात में हुए ऐसे ही कई भीषण नरसंहारों में से एक था।

अन्य नरसंहारों में से एक वह था, (जिसका जिक़्र फिल्म में नहीं है) जिसमें 19 वर्षीया बिलकिस बानो का सामूहिक बलात्कार और उसकी 3 वर्षीय बेटी सहित उसके परिवार के 14 सदस्यों की हत्या कर दी गयी थी। पिछले अगस्त में, स्वतंत्रता दिवस पर, जबकि मोदी ने महिलाओं के अधिकारों के महत्व के बारे में राष्ट्र को संबोधित किया, उसी दिन, उनकी सरकार ने बिलकिस और उसके परिवार के उन सभी बलात्कारियों-हत्यारों को माफ कर दिया, जिन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गयी थी। उन्होंने अपना जेल का भी अधिकांश समय पैरोल पर बाहर बिताया था। और अब वे स्वतंत्र व्यक्ति हैं। जेल के बाहर उनका फूलमालाओं से स्वागत किया गया, वे अब समाज के सम्मानित सदस्य हैं और सार्वजनिक कार्यक्रमों में भाजपा नेताओं के साथ मंच साझा करते हैं।

बीबीसी फिल्म ने अप्रैल 2002 में ब्रिटिश विदेश कार्यालय द्वारा शुरू की गई एक आंतरिक रिपोर्ट का खुलासा किया, जो अब तक सार्वजनिक नहीं की गयी थी। इस तथ्य-खोज रिपोर्ट का अनुमान है कि “कम से कम 2,000” लोगों की हत्या की गयी थी। इस रिपोर्ट ने गुजरात नरसंहार को एक पूर्व नियोजित नरसंहार कहा है, जिसमें “जातीय सफाये के सभी लक्षण” मौजूद थे। इसमें कहा गया है कि विश्वसनीय संपर्कों ने उन्हें सूचित किया था कि पुलिस को चुपचाप खड़े रहने के आदेश दिये गये थे। रिपोर्ट में सीधे तौर पर मोदी को दोषी माना गया है। गुजरात नरसंहार के बाद अमेरिका ने उन्हें वीजा देने से इनकार कर दिया था। मोदी ने लगातार तीन चुनाव जीते और 2014 तक गुजरात के मुख्यमंत्री बने रहे। उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद यह प्रतिबंध हटा दिया गया।

मोदी सरकार ने फिल्म पर बैन लगा दिया है। प्रत्येक सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म ने प्रतिबंध का अनुपालन किया और इसके सभी लिंक और संदर्भ हटा दिये हैं। फ़िल्म की रिलीज़ के कुछ हफ़्तों के भीतर ही बीबीसी के कार्यालयों को पुलिस ने घेर लिया और कर अधिकारियों ने छापेमारी की।

‘हिंडनबर्ग रिपोर्ट’ में अडानी समूह पर “बेशर्म स्टॉक हेरफेर और अकाउंटिंग धोखाधड़ी” करने का आरोप लगाया गया है, जिसने – ऑफशोर शेल संस्थाओं के माध्यम से – कृत्रिम रूप से अपनी प्रमुख सूचीबद्ध कंपनियों के शेयरों के भाव बढ़ाये जिससे समूह के चेयरमैन की कुल संपत्ति काफी बढ़ गयी। रिपोर्ट के मुताबिक, अडानी की सात सूचीबद्ध कंपनियों का मूल्यांकन वास्तविक मूल्य से 85% अधिक है। मोदी और अडानी एक-दूसरे को दशकों से जानते हैं। 2002 के गुजरात नरसंहार के बाद उनकी दोस्ती मजबूत हुई।

उस समय, कॉर्पोरेट भारत सहित भारत का अधिकांश हिस्सा, “बदला” लेने की मांग कर रही उग्र हिंदू भीड़ द्वारा गुजरात के कस्बों और गांवों की सड़कों पर मुसलमानों के खुलेआम कत्लेआम और सामूहिक बलात्कार को देख कर भय से ठिठक गया था। उस समय गौतम अडानी मोदी के साथ खड़े रहे। गुजराती उद्योगपतियों के एक छोटे समूह के साथ उन्होंने व्यवसायियों का एक नया मंच स्थापित किया। उन्होंने मोदी के आलोचकों की निंदा की और मोदी का समर्थन किया क्योंकि उन्होंने “हिंदू हृदय सम्राट” के रूप में एक नया राजनीतिक करियर शुरू कर लिया था। इस प्रकार “विकास” के गुजरात मॉडल का जन्म हुआ। यह था कॉर्पोरेट धन द्वारा अनुमोदित हिंसक हिंदू राष्ट्रवाद।

2014 में, गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में तीन कार्यकाल के बाद, मोदी भारत के प्रधान मंत्री चुने गए। वह दिल्ली में अपने शपथ ग्रहण समारोह के लिए एक निजी जेट विमान से उड़ान भर कर गये, उस विमान के पूरे हिस्से पर अडानी का नाम लिखा हुआ था। मोदी के नौ साल के कार्यकाल में अडानी दुनिया के सबसे अमीर आदमी बन गये। इस बीच उनकी संपत्ति 8 अरब डॉलर से बढ़कर 137 अरब डॉलर हो गयी। अकेले 2022 में, उन्होंने 72 बिलियन डॉलर कमाए, जो दुनिया के अगले नौ अरबपतियों की कुल कमाई से भी अधिक है। अब एक दर्जन शिपिंग बंदरगाहों पर अडानी समूह का नियंत्रण है जिनसे भारत के 30% माल की आवाजाही होती है। इसके साथ ही सात हवाई अड्डे जो भारत के 23% एयरलाइन यात्रियों को संभालते हैं, और गोदाम जो सामूहिक रूप से भारत का 30% अनाज रखते हैं, उन पर भी अडानी समूह का नियंत्रण है। यह उन बिजली संयंत्रों का मालिक है और उनका संचालन करता है जो देश की निजी बिजली के सबसे बड़े उत्पादक हैं।

हां, गौतम अडानी दुनिया के सबसे अमीर व्यक्तियों में से एक हैं, लेकिन अगर आप चुनावों के दौरान उनके खर्च को देखें, तो भाजपा न केवल भारत की, बल्कि शायद दुनिया की सबसे अमीर राजनीतिक पार्टी भी है। 2016 में भाजपा ने निगमों को उनकी पहचान सार्वजनिक किए बिना राजनीतिक दलों को फंड देने की अनुमति देने के लिए चुनावी बांड की योजना शुरू की। यह कॉरपोरेट फंडिंग में अब तक की सबसे बड़ी हिस्सेदारी वाली पार्टी बन गई है। ऐसा लगता है मानो इन जुड़वा स्तंभों (ट्विन टावरों) की जड़ों के बीच एक साझा तहखाना हो।

जिस तरह जरूरत के समय में अडानी मोदी के साथ खड़े थे, उसी तरह मोदी सरकार भी अडानी के साथ खड़ी है और संसद में विपक्ष के सदस्यों द्वारा उठाए गए एक भी सवाल का जवाब देने से इनकार कर दिया है, यहां तक ​​कि उनके भाषणों को संसद के रिकॉर्ड से हटा दिया गया है।

जहां एक तरफ भाजपा और अडानी अपनी संपत्ति जमा करते जा रहे हैं, वहीं ऑक्सफैम ने एक भयावह रिपोर्ट में कहा है कि भारतीय आबादी के शीर्ष 10% लोगों के पास कुल राष्ट्रीय संपत्ति का 77% हिस्सा है। 2017 में उत्पन्न संपत्ति का 73 प्रतिशत सबसे अमीर 1% लोगों के हिस्से में गया है, जबकि आबादी के सबसे गरीब आधे हिस्से, यानि 67 करोड़ भारतीयों की संपत्ति में केवल 1% की वृद्धि हुई है। हालांकि भारत को एक विशाल बाजार वाली आर्थिक शक्ति के रूप में जाना जाता है, लेकिन इसकी अधिकांश आबादी अत्यधिक गरीबी में रहती है। 

यहां लाखों लोग मोदी के फोटो वाले पैकेटों में दिए जाने वाले राशन पर जीवन यापन करते हैं। भारत बेहद गरीब लोगों वाला एक बहुत अमीर देश है। यह दुनिया के सबसे असमान समाजों में से एक है। इस रिपोर्ट के बाद ‘ऑक्सफैम इंडिया’ पर भी छापा मारा गया। साथ ही ‘एमनेस्टी इंटरनेशनल’ और परेशानी पैदा करने वाले कई अन्य एनजीओ को परेशान करके भारत में अपना काम बंद करने के लिए मजबूर किया गया है।

इससे पश्चिमी लोकतंत्रों के नेताओं पर कोई फर्क नहीं पड़ा है। हिंडनबर्ग-बीबीसी मामले के कुछ ही दिनों के भीतर, “गर्मजोशी भरी और सार्थक” बैठकों के बाद, प्रधानमंत्री मोदी, राष्ट्रपति जो बाइडेन और राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रॉन ने घोषणा की कि भारत 470 बोइंग और एयरबस विमान खरीदेगा। बाइडेन ने कहा कि इस समझौते से अमेरिका में दस लाख से अधिक नौकरियां पैदा होंगी। ‘एयरबस’ में रोल्स रॉयस इंजन लगाये जाएंगे। प्रधानमंत्री ऋषि सुनक का कहना है कि “ब्रिटेन के संपन्न एयरोस्पेस क्षेत्र के लिए अब आकाश ही सीमा है।”

जुलाई में मोदी राजकीय यात्रा पर अमेरिका गए और बास्तील दिवस पर मुख्य अतिथि के रूप में फ्रांस गए। क्या आप विश्वास करेंगे, कि मैक्रॉन और बाइडेन ने जिस तरीके से उनकी प्रशंसा की, वह शर्मनाक है। वे यह अच्छी तरह से जानते हैं कि यह प्रशंसा 2024 के आम चुनावों में मोदी के लिए सोना साबित होगी, जिसमें वे तीसरे कार्यकाल के लिए खड़े होंगे। ऐसा नहीं है कि मैक्रॉन और बाइडेन उस आदमी के बारे में नहीं जानते होंगे जिसे वे गले लगा रहे हैं।

उन्हें गुजरात नरसंहार में मोदी की भूमिका के बारे में पता होगा। उन्हें उन निरंतर घटने वाली घृणित घटनाओं के बारे में भी पता होगा, जिनमें मुसलमानों को सार्वजनिक रूप से पीट-पीट कर मार डाला जा रहा है, कि कैसे मोदी के मंत्रिमंडल के एक सदस्य ने कुछ लिंचरों को माला पहनाई और वे यह भी जानते होंगे कि किस तेजी से मुस्लिमों को अलगाव और अलग-थलग तंग बस्तियों की ओर धकेला जा रहा है। उन्हें हिंदू निगरानीकर्ताओं द्वारा सैकड़ों चर्चों को जलाए जाने के बारे में भी पता होगा।

उन्हें विपक्षी राजनेताओं, छात्रों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, वकीलों और पत्रकारों पर हमलों के बारे में भी पता होगा। इनमें से कुछ को लंबी जेल की सजा मिली है। पुलिस और संदिग्ध हिंदू राष्ट्रवादियों द्वारा विश्वविद्यालयों पर हमले, इतिहास की पाठ्यपुस्तकों के पुनर्लेखन, फिल्मों पर प्रतिबंध, ‘एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडियाֹ’ का बंद होना, बीबीसी के भारतीय कार्यालयों पर छापा, कार्यकर्ताओं, पत्रकारों और सरकारी आलोचकों को रहस्यमय ‘उड़ान-प्रतिबंधित’ (नो-फ्लाई) सूची में डाला जाना और भारतीय और विदेशी शिक्षाविदों पर दबाव, यह सब वे जानते होंगे।

उन्हें पता होगा कि भारत अब विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में 180 देशों में से 161वें स्थान पर है, कि कई सर्वश्रेष्ठ भारतीय पत्रकारों को मुख्यधारा के मीडिया से बाहर कर दिया गया है और पत्रकारों को जल्द ही सेंसरशिप नियामक व्यवस्था के अधीन किया जा सकता है। सरकार द्वारा नियुक्त निकाय के पास यह निर्णय लेने की शक्ति होगी कि सरकार के बारे में मीडिया रिपोर्ट और टिप्पणियाँ फेक, यानि नकली या भ्रामक हैं। और नया आईटी कानून जो सोशल मीडिया पर असहमति की आवाजों को रोकने के लिए बनाया गया है।

वे उस तलवारधारी, हिंसक हिंदू निगरानी भीड़ के बारे में भी जानते होंगे जो नियमित रूप से और खुले तौर पर मुसलमानों के विनाश और मुस्लिम महिलाओं के बलात्कार का आह्वान करते हैं।

उन्हें कश्मीर की स्थिति के बारे में पता होगा, जो 2019 की शुरुआत में महीनों लंबे संचार ब्लैकआउट के अधीन था -जो किसी लोकतंत्र में सबसे लंबी इंटरनेट बंदी थी- और वहां के पत्रकारों को उत्पीड़न, गिरफ्तारी और पूछताछ का सामना करना पड़ा। 21वीं सदी में किसी को भी इस तरह नहीं रहना चाहिए, जिस तरह से वे बूटों तले दबी गर्दनों के साथ जी रहे हैं।

उन्हें 2019 में पारित नागरिकता संशोधन अधिनियम के बारे में पता होगा जो मुसलमानों के खिलाफ खुले तौर पर भेदभाव करता है, इसके कारण बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए और कैसे ये विरोध प्रदर्शन तभी समाप्त हुए जब अगले वर्ष दिल्ली में हिंदू भीड़ द्वारा दर्जनों मुसलमानों को मार डाला गया (जो, संयोगवश, तब हुआ जब राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प राजकीय दौरे पर शहर में थे, और जिसके बारे में उन्होंने एक शब्द भी नहीं कहा)। उन्हें पता होगा कि कैसे दिल्ली पुलिस ने गंभीर रूप से घायल युवा मुस्लिम पुरुषों को, जो सड़क पर लेटे हुए थे, भारतीय राष्ट्रगान गाने के लिए मजबूर किया और उन्हें चिढ़ाया और लात मारी। उनमें से एक की बाद में मृत्यु हो गई। उन्हें पता होगा कि जिस समय वे मोदी का स्वागत कर रहे थे, उसी समय उत्तर भारत में उत्तराखंड के एक छोटे से शहर से मुसलमान भाग रहे थे, क्योंकि भाजपा से जुड़े हिंदू चरमपंथियों ने उनके दरवाजों पर ‘एक्स’ का निशान लगा दिया था और उन्हें वहां से चले जाने के लिए कहा था। खुलेआम “मुस्लिम मुक्त” उत्तराखंड की बात हो रही है। उन्हें पता होगा कि मोदी की निगरानी में, भारत के उत्तर पूर्व में मणिपुर राज्य एक बर्बर गृहयुद्ध में उतर गया है। एक प्रकार का जातीय सफाया हो चुका है। वहां केंद्र की मिलीभगत है, राज्य सरकार पक्षपातपूर्ण है, सुरक्षा बल पुलिस और अन्य के बीच बंटे हुए हैं और उनके पास कमान का कोई सोपान क्रम नहीं है। इंटरनेट काट दिया गया है, समाचारों को बाहर आने में हफ्तों लग जाते हैं।

फिर भी, विश्व की शक्तियां मोदी को सामाजिक ताने-बाने को नष्ट करने और भारत को जलाने के लिए आवश्यक सारा ऑक्सीजन देने का विकल्प चुन रही हैं। मेरे लिए, यह नस्लवाद का एक रूप है। वे लोकतांत्रिक होने का दावा करते हैं, लेकिन वे नस्लवादी हैं। वे नहीं मानते कि उनके घोषित “मूल्य” गैर-श्वेत देशों पर भी लागू होने चाहिए। बेशक अब यह एक गये दिनों की बात हो चुकी है।

कोई फर्क नहीं पड़ता। हम अपनी लड़ाई खुद लड़ेंगे – और अंततः हम अपने देश को वापस जीतेंगे। हालाँकि, अगर वे यह कल्पना करते हैं कि भारत में लोकतंत्र के ख़त्म होने का असर पूरी दुनिया पर नहीं पड़ेगा, तो वे वास्तव में भ्रम में हैं।

उन सभी के लिए जो मानते हैं कि भारत अभी भी एक लोकतंत्र है – ये कुछ घटनाएं हैं जो पिछले कुछ महीनों में घटित हुई हैं। जब मैंने कहा कि हम एक अलग चरण में चले गए हैं तो मेरा यही मतलब था। चेतावनियों का समय समाप्त हो गया है, और हमें अब लोगों के एक हिस्से से भी उतना ही डरना चाहिए जितना हम अपने नेताओं से डरते हैं:

मणिपुर में जहां गृह युद्ध छिड़ा हुआ है, पुलिस ने, जो पूरी तरह से पक्षपातपूर्ण है, दो महिलाओं को एक भीड़ को सौंप दिया ताकि उन्हें पूरे गांव में नग्न घुमाया जा सके और फिर उनके साथ सामूहिक बलात्कार किया जा सके। उनमें से एक ने अपनी आँखों के सामने अपने छोटे भाई की हत्या होते देखी। जो महिलाएं बलात्कारियों के ही समुदाय से हैं, वे बलात्कारियों के साथ खड़ी हुई हैं और यहां तक ​​कि उन्होंने अपने पुरुषों को बलात्कार के लिए उकसाया है।

महाराष्ट्र में एक सशस्त्र रेलवे सुरक्षा बल अधिकारी ने एक ट्रेन की बोगियों में घूम-घूम कर कई मुस्लिम यात्रियों को गोली मार दी और लोगों से मोदी को वोट देने के लिए कहा।

एक अत्यंत लोकप्रिय हिंदू निगरानीकर्ता, जो अक्सर शीर्ष राजनेताओं और पुलिसकर्मियों के साथ मेलजोल के साथ तस्वीरें खिंचवाता था, उसने घनी आबादी वाली मुस्लिम-बहुल बस्ती के बीच से होकर गुजरने वाले एक धार्मिक जुलूस में भाग लेने का हिंदुओं से आह्वान किया। वह फरवरी में उन दो युवा मुसलमानों की हत्या का मुख्य आरोपी है जिन्हें एक वाहन से बांधकर जिंदा जला दिया गया था।

नूंह शहर गुड़गांव से सटा हुआ है, जहां प्रमुख अंतरराष्ट्रीय निगमों के कार्यालय हैं। इस जुलूस में हिंदुओं के पास मशीनगनें और तलवारें थीं। मुसलमानों ने अपना बचाव किया। जैसा कि अनुमान था, जुलूस का अंत हिंसा में हुआ। छह लोग मारे गये। एक 19 वर्षीय इमाम को उसके बिस्तर पर ही मार डाला गया, उसकी मस्जिद में तोड़फोड़ की गई और उसे जला दिया गया। राज्य की प्रतिक्रिया सभी सबसे गरीब मुस्लिम बस्तियों पर बुलडोजर चलाने और सैकड़ों परिवारों को अपनी जान बचाने के लिए भागने पर मजबूर करने की रही है।

प्रधानमंत्री के पास इस बारे में कहने के लिए कुछ नहीं है। चुनाव का मौसम है। अगले मई में आम चुनाव होंगे। यह सब चुनाव अभियान का हिस्सा है। हम पहले से ही ध्रुवीकृत आबादी को और अधिक ध्रुवीकृत करने के लिए और अधिक रक्तपात, सामूहिक हत्याएं, हाथ में नकली झंडे उठाकर किये जाने वाले हमलों, युद्ध के झूठे आरोपों जैसा और कुछ भी करने के लिए तैयार हैं।

मैंने अभी-अभी एक छोटे से स्कूल की कक्षा में फिल्माया गया एक रोंगटे खड़े कर देने वाला छोटा सा वीडियो देखा है। शिक्षिका एक मुस्लिम बच्चे को अपनी मेज के पास खड़ा करती है और बाकी छात्रों, हिंदू लड़कों, को एक-एक करके आने और उसे थप्पड़ मारने के लिए कहती है। वह उन लोगों को चेतावनी देती है जिन्होंने उस पर जोरदार थप्पड़ नहीं लगाया है। अब तक की कार्रवाई यह रही है कि गांव के हिंदुओं और पुलिस ने मुस्लिम परिवार पर आरोप न लगाने का दबाव डाला है। मुस्लिम लड़के की स्कूल फीस वापस कर दी गई है और उसे स्कूल से निकाल दिया गया है।

भारत में जो कुछ हो रहा है, वह इंटरनेट फासीवाद का कोई ढीला-ढाला रूप नहीं है। यह वास्तविक चीज है। हम नाज़ी बन गए हैं। न केवल हमारे नेता, न केवल हमारे टीवी चैनल और समाचार पत्र, बल्कि हमारी आबादी का एक बड़ा हिस्सा भी। अमेरिका, यूरोप और दक्षिण अफ्रीका में रहने वाली भारतीय हिंदू आबादी में से बड़ी संख्या इन फासीवादियों का राजनीतिक और भौतिक रूप से समर्थन करती है। अपनी आत्मा के लिए, अपने बच्चों और अपने बच्चों के बच्चों के लिए, हमें खड़ा होना होगा। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम असफल होते हैं या सफल। यह जिम्मेदारी अकेले हम भारतीयों की नहीं है। जल्द ही, अगर मोदी 2024 में जीत गए, तो असहमति के सभी रास्ते बंद हो जाएंगे। इस हॉल में आपमें से किसी को भी यह दिखावा नहीं करना चाहिए कि आप नहीं जानते कि क्या हो रहा है।

यदि आप मुझे अनुमति दें, तो मैं अपने पहले निबंध, द एंड ऑफ इमेजिनेशन का एक खंड पढ़कर अपनी बात समाप्त करूंगी। यह विफलता के बारे में एक मित्र के साथ बातचीत है – और व्यक्तिगत तौर पर मेरे लेखक का घोषणापत्र।

“मैंने कहा कि किसी भी मामले में उसका चीजों का एक बाहरी दृष्टिकोण था, यह धारणा कि किसी व्यक्ति की खुशी, या कहें कि संतुष्टि का उठान अपने चरम पर था (और अब इसे गिरना चाहिए) क्योंकि गलती से ‘सफलता’ के साथ उसको ठोकर लग गयी थी। यह इस अकल्पनीय विश्वास पर आधारित था कि धन और प्रसिद्धि हर किसी के सपनों की अनिवार्य चीज़ थी।

मैंने उससे कहा, तुम न्यूयॉर्क में बहुत लंबे समय तक रह चुकी हो। और भी दुनियाएं हैं। अन्य प्रकार के स्वप्न। ऐसे सपने जिनमें असफलता संभव हो, सम्माननीय हो, कभी-कभी यह असफलता पाने के लिए प्रयास करने लायक भी। ऐसी दुनिया जहां पहचान ही प्रतिभा या मानवीय मूल्य का एकमात्र पैमाना नहीं है। ऐसे बहुत से योद्धा हैं जिन्हें मैं जानती हूँ और प्यार करती हूँ, वे लोग मुझसे कहीं अधिक मूल्यवान हैं, जो हर दिन युद्ध में जाते हैं, यह पहले से जानते हुए कि वे असफल होंगे। सच है, वे शब्द के सबसे अश्लील अर्थ में कम ‘सफल’ हैं, लेकिन किसी भी तरह से कम पूर्ण नहीं हैं।

मैंने उससे कहा, एकमात्र सपना जो देखने लायक है, वह यह सपना है कि तुम जब तक जिंदा हो, तब तक जीवित भी रहो, और तभी मरो जब तुम वास्तव में मर जाओ। जीते जी मत मरो। (क्या यह पूर्वाभास था? शायद था।)

‘तुम् कहना क्या चाहती हो?’ (भौहें चढ़ाकर, खीझते हुए उसने कहा)

मैंने समझाने की कोशिश की, लेकिन उस पर बहुत अच्छा असर नहीं हुआ। कभी-कभी मुझे सोचने के लिए लिखना पड़ता है। इसलिए मैंने उसके लिए इसे एक पेपर नैपकिन पर लिखा। मैंने यही लिखा है: प्यार करना, प्यार पाना, अपना नाचीज होना कभी न भूलना, अपने आस-पास की अकथनीय हिंसा और जीवन की अश्लील असमानता का आदी कभी भी न बनना, सबसे दुखद स्थानों में खुशी की तलाश करना, सौंदर्य की तलाश में उसके उत्स तक पहुंच जाना, जो जटिल है उसे कभी सरल न बनाना और जो सरल है उसे कभी जटिल न बनाना, शक्ति का सम्मान करना, सत्ता का कभी नहीं। और सबसे बढ़कर, देखना, समझने की कोशिश करना, कभी भी निगाह मत फेरना और कभी भी भूलना मत, कभी भी नहीं।”

मैं इस पुरस्कार के सम्मान के लिए आपको फिर से धन्यवाद देती हूँ। मुझे पुरस्कार उद्धरण में वह हिस्सा पसंद आया जिसमें कहा गया है, “अरुंधति रॉय निबंध का इस्तेमाल युद्ध के एक रूप के तौर पर करती हैं।”

किसी लेखिका के लिए यह विश्वास करना कि वह अपने लेखन से दुनिया को बदल सकती है, अभिमानपूर्ण, अहंकारी और थोड़ी सी मूर्खता भी होगी। लेकिन अगर उसने कोशिश भी नहीं की तो यह दयनीय होगा।

जाने से पहले…मैं बस इतना कहना चाहती हूँ: यह पुरस्कार बहुत सारी धनराशि के साथ आता है। यह मेरे साथ नहीं रहेगा। इसे उन बहुत से साहसी कार्यकर्ताओं, पत्रकारों, वकीलों, फिल्म निर्माताओं के साथ साझा किया जाएगा, जो लगभग बिना किसी संसाधनों के भी इस शासन के खिलाफ खड़े हैं। स्थिति चाहे कितनी भी गंभीर क्यों न हो, कृपया जान लें कि ज़बरदस्त लड़ाई लड़नी होगी।

(‘स्क्रॉल.इन’ से साभार)

—अनुवाद : शैलेश

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    गौतम कश्यप

    अमेरिका, यूरोप और दक्षिण अफ्रीका में रहने वाली भारतीय हिंदू आबादी में से बड़ी संख्या इन फासीवादियों का राजनीतिक और भौतिक रूप से समर्थन करती है।

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