केंद्र सरकार लोकतंत्र और जनाधिकार का गला घोंटने में कितनी ढिठाई से पेश आ रही है, इसका जीता-जागता एक सबूत सूचनाधिकार की अनदेखी करना है।
सार्वजनिक मंचों पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत तमाम सरकारी तर्जुमान और नुमाइंदे अपनी वाहवाहियां बताते नहीं थकते। लेकिन, ढोल के अंदर जो पोल है, वह कुछ और ही कहानी कहती है।
केंद्रीय सूचना आयोग में दस सूचनायुक्तों के पद हैं, जिनमें आठ पद लंबे अरसे से खाली हैं। पिछले साल अध्यक्ष समेत दो पद भरे गए थे, तो सरकारी और गोदी मीडिया ने उसे ऐसे पेश किया था, जैसे मोदी सरकार ने जाने कौन से तीर मारे हैं।
सूचनायुक्तों की नियुक्ति न होने से अकेले केंद्रीय सूचना आयोग में 23,000 अपीलें अपनी सुनवाई की राह देख रही हैं। जनता के अधिकारों को कुचलने का यह भी एक तरीका है कि जन-संस्थाओं को नपुंसक बना दिया जाए। दुर्भाग्य यह है कि कुछ राज्य सरकारें भी केंद्र के पद-चिह्नों पर चल रही हैं।
सूचनाधिकार अधिनियम बनने के दो दशक बाद भी यही देखा जा रहा है कि सरकारें पारदर्शिता और जन-सशक्तिकरण के नाम से थर्राने लगती हैं। इसकी धार कुंद करने के लिए जानकारी में देरी करना या इनकार करते रहना तो बड़ा शगल है ही।
इसे पूरी तरह तबाह करने का सबसे बढ़िया तरीका यही है कि पीठों को खाली रखा जाए। न सुनवाई होगी, न सूचनाएं बाहर जा पाएंगी। मगर, सार्वजनिक बहसों में जनकल्याण के मुद्दे पर सरकारी प्रवक्ता अपनी पीठ थपथपाते रहेंगे।
सीधी बात है कि जब बड़ी संख्या में रिक्तियां होंगी तो उसी अनुपात में अपीलों का अंबार लगेगा। इसका सीधा मतलब है कि सूचनाधिकार के बावजूद सूचनाएं देने के रास्ते को बंद कर दिया जाए। क्या सत्ताधारी यही चाहते हैं ?
शुक्र है सुप्रीम कोर्ट का कि यह मुद्दा एक बार फिर सामने आया है। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्रीय और कुछ राज्य सूचना आयोगों में बड़ी संख्या में रिक्तियों पर सवाल उठाए हैं।
सुप्रीम कोर्ट की खंड पीठ के न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति उज्जवल भुइयां ने कहा है कि ये वे आयोग हैं, जहां जनता तब अपील करती है, जब उसे सूचनाओं की पहुंच से वंचित कर दिया जाता है या विभिन्न विभागों और संस्थानों में नामित अधिकारी सूचनाएं देने में बहानेबाजी करते हैं।
खंडपीठ ने इस पर गौर फरमाया है कि केंद्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) में सूचना आयुक्तों के आठ पद खाली हैं, जबकि 23,000 अपीलें उसके समक्ष लंबित हैं।
कुछ राज्य सरकारों ने भी सूचना आयोगों तक जनता की पहुंच को बाधित करने के लिए उन्हें निष्क्रिय कर रखा है। देर से ही सही, शीर्ष अदालत ने अब सरकारों से जवाब-तलब किया है।
अदालत ने माना है कि अगर कानून के तहत जरूरी कर्तव्यों का पालन करने के लिए संस्थाओं के पास कोई व्यक्ति ही नहीं है तो वह कोई भी काम कैसे करेगी।
अदालत ने केंद्र के डिपार्टमेंट ऑफ पर्सनल एंड ट्रेनिंग को शीघ्र चयन प्रक्रिया को पूरा करने और सीआईसी में आठ सूचना आयुक्तों की नियुक्तियों को अधिसूचित करने के लिए समय सीमा बताने का निर्देश देकर मामले में कुछ तेजी लाने के लिए कहा है।
अदालत ने सर्च कमेटी और पदों के लिए आवेदकों की सूची के बारे में भी विवरण मांगा है। इसी तरह, जिन राज्यों ने नियुक्ति प्रक्रिया तो शुरू की है, लेकिन बिना किसी निश्चित समय सीमा के तय किए बिना उसे लटकाकर रखा है, उन्हें भी निर्दिष्ट समय के भीतर प्रक्रिया को पूरा करने के लिए कहा गया है।
सरकार ने एक काम यह भी किया है कि नियुक्ति के लिए शुरू में जो पांच साल की सीमा तय की गई थी, उस शर्त को हटा दिया गया है। यह भी देखने में आया है कि सूचनायुक्तों की नियुक्ति में इस बात पर जोर है कि उन्हें विभिन्न क्षेत्रों से चुना जाए, लेकिन ज्यादातर यही होता है कि सेवानिवृत्त लोकशाहों को ही चुना जाता है।
जो स्थिति सामने है, उसे देखते हुए अगर यह सवाल पूछा जाए कि क्या मोदी सरकार समेत कुछ राज्य सरकारें सूचना के अधिकार को कुचल रही हैं, तो क्या सही नहीं होगा?
क्या है सूचनाधिकार अधिनियम
सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 का मकसद था नागरिकों को सशक्त बनाना, सरकार की कार्यशैली में पारदर्शिता और जवाबदेही बढ़ाना, भ्रष्टाचार को रोकना, और लोकतंत्र को मजबूत बनाना। नागरिकों को सरकार की गतिविधियों के बारे में जानकारी हासिल करने में मदद मिलती है।
अधिनियम के तहत, किसी भी तरह की सामग्री को सूचना माना जाता है, जिसमें रिकॉर्ड, दस्तावेज, मेमो, ई-मेल, प्रेस विज्ञप्ति, परिपत्र, आदेश, लॉगबुक वगैरह शामिल हैं। अगर सूचना देने में देरी होती है, तो प्रतिदिन 250 रुपए का जुर्माना लगाया जाता है। यह जुर्माना अधिकतम 25,000 रुपए तक हो सकता है।
(रामजन्म पाठक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)