चुकुम गांव (रामनगर)। उत्तराखंड में इस वर्ष अक्तूबर के महीने में हुई बेमौसमी बारिश ने बारिश के पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़ दिये, ऐसा मौसम विभाग की ओर से जारी किये गये बारिश के आंकड़े बताते हैं। राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के अनुसार इस बेमौसमी आपदा में जन-धन का बड़ा नुकसान हुआ है। जनचौक की टीम ने इस आपदा के बाद नैनीताल जिले के रामनगर तहसील के अंतर्गत आने वाले चुकुम गांव की स्थिति का जायजा लिया। यहां देखकर साफ पता चलता है कि इस गांव में हुए नुकसान के लिए इस क्षेत्र में कोसी के किनारे किये गये कुछ निर्माण पूरी तरह से जिम्मेदार हैं।
मुख्य विषय पर आने से पहले एक बार चुकुम गांव की भौगोलिक स्थिति के बारे में जान लेते हैं। कोसी नदी के किनारे स्थित चुकुम गांव तहसील मुख्यालय रामनगर से करीब 24 किमी की दूरी पर है। गांव पहुंचने के लिए कोसी नदी पार करनी होती है, लेकिन कोसी नदी पर कोई पुल नहीं है। सर्दी और गर्मी के दिनों में 165 परिवार वाले इस गांव के लोग कमर तक के पानी को पार करके मोटर मार्ग पर मोहान पहुंचते हैं। लेकिन, बरसात के दिनों में कोसी नदी का जलस्तर बढ़ जाने से यह गांव पूरी तरह बाकी दुनिया से कट जाता है। बहुत जरूरी होने पर करीब 16 किमी घने जंगल से पैदल चलकर मोटर मार्ग तक पहुंचते हैं।
इस बार सितंबर आखिर में तक बारिश होती रही। अक्तूबर में कोसी का जलस्तर कम होने के बाद लोग नदी पार कर बाकी दुनिया के संपर्क में आने की शुरुआत कर ही रहे थे कि 17 अक्तूबर से एक बार फिर पूरे उत्तराखंड में फिर में बारिश शुरू हो गई। नैनीताल जिले के रामनगर क्षेत्र में 18 अक्तूबर की शाम से बारिश तेज हो गई। कोसी का जल स्तर फिर से बढ़ने लगा। रात को अचानक कोसी नदी की धरा ने अपना रास्ता बदल दिया। पहले कोसी की धरा चुकुम गांव से करीब एक किमी दूर थी। लेकिन 18 अक्टूबर की रात को नदी की धरा चुकुम गांव को छूने लगी। देखते ही देखते पहले गांव के खेत और फिर निचले क्षेत्रों के घर कोसी में समाने लगे। लोग घर छोड़कर सुरक्षित जगहों की तरफ भागने लगे। 24 घंटे से ज्यादा समय तक कोसी नदी रौद्र रूप लिये रही। इस दौरान चुकुम गांव के 30 से ज्यादा घर और दर्जनों खेत बह गये।

आपदा के पांच दिन बाद जनचौक की टीम राफ्ट की मदद से चुकुम गांव पहुंची। गांव में पहुंचते ही हाई स्कूल के प्रिंसिपल एसएस हुसैन रिजवी से मुलाकात हुई। उन्होंने बताया कि वे और उनके साथी कई तरह की परेशानियों से जूझते हुए अपने घरों से स्कूल पहुंचते हैं। कोसी का पानी कम होता है तो कमर तक का पानी पैदल पार करके जाते हैं, बरसात के दिनों में जंगल के रास्ते जंगली जानवरों के खतरे के बीच 5 घंटे पैदल चलते हैं। 10 वीं के बाद बच्चे पढ़ाई करने कहां जाते हैं, रिजवी ने बताया कि बच्चे बरसात के दिनों में दूसरी तरफ अपने रिश्तेदारों के घरों में रहते हैं, बाकी दिनों में बच्चे भी नदी पार करके जाते हैं।
गांव में 12वीं की छात्रा निशा ने जो बताया वह चौंकाने वाला था। निशा के अनुसार ठंड के दिनों में भी कमर तक पानी से होकर रोज जाना पड़ता है। बच्चे एक-दूसरे का हाथ पकड़कर नदी पार करते हैं। लड़के कपड़े उतारकर बैग में रखते हैं और बैग सिर पर। नदी पार करके कपड़े बदलते हैं। लेकिन, लड़कियों को बड़ी दिक्कत होती है। लड़कियां बैग में दूसरी जोड़ी कपड़ा ले जाती हैं। दूसरी तरफ जाकर झाड़ियों में कपड़े बदलती हैं।
गांव में आधा बह चुके एक घर में रमेश राम से मिलते हैं। रमेश राम के अनुसार घर का बड़ा हिस्सा बह गया है। बाकी हिस्सा भी नीचे से खोखला हो गया है। घर रहने लायक नहीं रह गया है। कुछ खेत भी बह गये हैं, खेतों में धान बोई हुई थी। सिर पर लोहे-लक्कड़ का एक दरवाजा रखे एक महिला नदी की धार में होकर गांव की तरफ आती नजर आई। किनारे आने पर हमने महिला से बात करने की इच्छा जताई। महिला ने अपना नाम चंपा देवी बिष्ट बताया। चंपादेवी ने बताया कि उसका पक्का मकान और गौशाला बह गई है। धारा की दूसरी तरफ एक टूटे हुए पेड़ की तरफ इशारा करके उन्होंने बताया कि वहां उनका मकान था और मकान के साथ गौशाला और खेत थे। अब वहां रोखड़ हैं। सिर पर जो लोहे-लक्कड़ का दरवाजा वह समेटकर लाई थी। वह गौशाला का दरवाजा था। दरवाजे का एक हिस्सा मलबे के ऊपर दिख रहा था। आसपास का मलबा हटाकर उसने वह टूटा-फूटा दरवाजा समेटा था।

इसी दौरान मुन्नी देवी भी वहां पहुंच गईं। उनका मकान भी आपदा की भेंट चढ़ गया है। मुन्नीदेवी ने करीब 500 मीटर दून रोखड़ की तरफ इंगित करते हुए बताया कि वहां उसका घर था। जानवरों और अपनी जिन्दगी को उन्होंने बचा लिया, लेकिन बाकी कुछ नहीं बचा पाये। न कपड़े, न बर्तन और न राशन। फिलहाल बेघर हुए ये लोग गांव के ऊपरी हिस्से में जंगल के साथ टेंट लगाकर रह रहे हैं और जंगली जानवरों का निवाला बनने के खतरे के बीच रातें काट रहे हैं। 5 दिनों में सरकार की ओर से कुछ मीटर की पॉलीथीन की पन्नी, 5 किलो आटा और एक-एक सोलर टॉर्च के अलावा प्रभावितों को कुछ नहीं मिल पाया है।
अब पुल नहीं पुनर्वास चाहिए
ग्रामीणों ने बताया कि वे पिछले कई सालों से कोसी नदी पर पुल बनाने की मांग करते रहे हैं। चुनाव के समय आने वाले नेता उन्हें पुल का आश्वासन देते रहे, लेकिन आज तक पुल नहीं बना। गांव वालों का कहना है कि अब पुल से कोई फायदा नहीं। कोसी गांव के बड़े हिस्से को लील चुकी है और अब जिस तरह से कोसी की एक धारा गांव के पास आ गई है, उससे साफ हो गया है कि कभी भी दूसरी बड़ी धारा भी गांव के पास पहुंच जाएगी। ऐसी स्थिति में गांव में रहना अब किसी भी हालत में संभव नहीं रह गया है। इसलिए अब सिर्फ एक ही विकल्प है कि गांव में रहने वाले परिवारों का किसी सुरक्षित जगह पर पुनर्वास किया जाए।
नदी पर अतिक्रमण बना कारण
आखिर ऐसा क्या हुआ कि कोसी धारा अपना मुख्य मार्ग छोड़कर एक किमी दूर चुकुम गांव की तरफ चली गई। यह पता लगाने के प्रयास में जनचौक की टीम कोसी नदी के किनारे उस जगह पहुंची जहां से कोसी ने 18 अक्तूबर की रात को पलटी मारी थी। यहां से चुकुम गांव करीब डेढ़ किमी नीचे की तरफ है। सामने एक छोटा सा कस्बा है मोहान और मोहान में हैं कुछ बड़े-बड़े रिजॉर्ट। आपदा की रात इस रिजॉर्ट में भी कई फिट पानी भर गया था और करीब 150 पर्यटक फंस गए थे। इन रिजॉर्ट में से एक रिजॉर्ट के लिए नदी के एक बड़े हिस्से को कवर किया गया है। इसके लिए कोसी के किनारे सीमेंट की पक्की वाल बनाई गई थी। जिसका एक बड़ा हिस्सा अब टूट गया था।
पहाड़ों की तरफ से आ रही कोसी नदी यहां अर्द्धचंद्राकार रास्ता बनाकर गुजरती है। समझा जाता है कि 18 अक्तूबर की रात को कोसी में भारी मात्रा में पानी आया तो बहाव रिजॉर्ट की दीवार से टकराया। दीवार टूट गई और पानी इन रिजॉर्ट की बाउंड्री में घुस गया। लेकिन वहां बड़ी-बड़ी पक्की बिल्डिंग होने से कोसी का प्रवाह बाधित हो गया। इससे नदी की धारा दूसरी तरफ पलट गई और करीब डेढ़ किमी आगे चुकुम गांव में भारी नुकसान पहुंचाते हुए आगे निकल गई।
(त्रिलोचन भट्ट स्वतंत्र पत्रकार हैं और आजकल देहरादून में रहते हैं।)
+ There are no comments
Add yours