हाथरस की घटना को उत्तर प्रदेश एवं देश में तेजी फैल रही निरंकुश, अराजक, स्वेच्छाचारी और हिंसक मनोवृत्ति से अलग कर एक एकाकी घटना के रूप में प्रस्तुत करने की छटपटाहट मुख्य धारा के मीडिया में स्पष्ट देखी जा सकती है। एक ऐसी घटना, जिसके लिए निजी कारण और स्थानीय परिस्थितियां जिम्मेदार हैं। स्वाभाविक रूप से इसके समाधान का स्वरूप भी वैसा ही व्यक्तिगत और स्थानीय होगा। घटना को एक ऐसे अंजाम तक पहुंचाने की कोशिश हो रही है कि वह पीड़ित और अपराधी के बीच का निजी मामला बन जाए, जिससे उसका वर्ग चरित्र छिप जाए और इस घटना के बहाने वंचित समुदाय में वर्ग चेतना जागृत न होने पाए।
देश के सबसे बड़े सूबे के बड़े ताकतवर मुख्यमंत्री ने एक दलित, दबे-कुचले, पीड़ित, भयभीत, अनिष्ट की आशंका से आतंकित पिता से वीडियो कॉल के जरिए बात की और उसे बढ़े हुए मुआवजे, परिवार के सदस्य को नौकरी, रहने के लिए मकान तथा दोषियों पर कठोर कार्रवाई का आश्वासन दिया। निश्चित ही उस हताश-निराश और भयभीत व्यक्ति के लिए यह राहत पैकेज बहुत आकर्षक है और हो सकता है कि वह अब उन सुझावों को मान ले जो निश्चित ही स्थानीय पुलिस और प्रशासन द्वारा कभी उसे धमकी की जुबान में और कभी सलाह के रूप में दिए जा रहे होंगे।
इन सुझावों से हर वह व्यक्ति अवगत है जो अत्याचार का शिकार है और निर्धन तथा दलित होने के बावजूद अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाने की जुर्रत करता है। अब लड़की तो वापस आने से रही, किस्मत वाले हो इतने बड़े आदमी बिना कहे इतनी मदद दे रहे हैं, चुपचाप उनकी बात मान लो, नेताओं के चक्कर में मत पड़ो, कोई काम नहीं आएगा। जब इन सुझावों को सुनने के बाद भी किसी अत्याचार पीड़ित दलित की आंखों में विद्रोह की ज्वाला फिर भी धधकती दिखती है तो फिर यह सुझाव धमकी का रूप ले लेते हैं- ज्यादा अकड़ बताओगे तो जो है वह भी चला जाएगा, बाज आ जाओ।
निजी चैनलों पर पीड़ित परिवार के हवाले से यह खबर चल रही है कि पीड़िता के परिजनों को भयभीत करने का सिलसिला जारी है। डीएम ने उन्हें धमकी देते हुए कहा है कि मीडिया वाले तो चले जाएंगे- हम रहेंगे। पुलिस ने भी पीड़ित युवती के घर वालों से कहा कि अगर तुम्हारी बेटी कोरोना से मरती तो मुआवजा नहीं मिलता अब जो मिल रहा है चुपचाप ले लो। यदि मीडिया में आ रही यह खबरें सत्य हैं तो संकेत बहुत खतरनाक और घबराने वाले हैं। जिस जघन्य अपराध के लिए मनुष्यता शर्मसार है, ऐसा लगता है कि उत्तर प्रदेश सरकार के लिए यह गौरव का विषय है, तब तो ऐसे अधिकारी न केवल अपने पदों पर बरकरार हैं, बल्कि बड़ी ढिठाई से अपनी करतूतों पर पर्दा डालने में लगे हैं।
एसआईटी की जांच के बहाने और कभी कोरोना की आड़ में मीडिया को पीड़िता के परिवार वालों से मिलने से रोका गया है और उन्हें घटना स्थल से एक किलोमीटर की दूरी पर रखा गया है। राहुल और प्रियंका जैसे देश के शीर्ष नेताओं को बिना समुचित कारण के हिरासत में ले लिया गया है, ताकि पीड़िता के परिजनों से उनकी मुलाकात न हो सके। यह घटनाक्रम अविश्वसनीय रूप से निर्लज्ज और दमनकारी है।
बहरहाल कोशिश यह है कि पीड़ित परिवार के लिए सौगातों की ताबड़तोड़ घोषणा कर और एसआईटी का गठन कर योगी आदित्यनाथ इस पूरे प्रकरण में अमानवीयता की हदें पार करने वाले पुलिस एवं प्रशासन की कार्य प्रणाली से खुद को अलग कर लें। ऐसा जाहिर किया जाने लगेगा कि प्रदेश के मुख्यमंत्री (जिनके पास गृह विभाग भी है) अपराधियों को संरक्षण देने वाली, पीड़िता के परिवार को धमकाने वाली और सबूत नष्ट करने के लिए पीड़िता के शव को रात्रि में ही जबरन जलाने वाली उत्तर प्रदेश पुलिस के कार्यकलापों से अवगत ही नहीं थे। जब देश के अति संवेदनशील प्रधानमंत्री ने फोन पर उन्हें समझाया तब भोले-भाले मुख्यमंत्री ने तहकीकात की और गलती पता कर तत्काल कार्रवाई की।
रात की बहसों में सरकार के प्रवक्ताओं को गरजने का अवसर मिल जाएगा, क्या मनमोहन सिंह ने निर्भया प्रकरण में ऐसी सक्रियता दिखाई थी? क्या किसी कांग्रेसी मुख्यमंत्री ने आज तक किसी बलात्कार पीड़िता के पिता से वीडियो कॉल कर बात की थी? हममें और दूसरे दलों में यह फर्क है कि हमें पता चलते ही हम किसी अपराधी को नहीं बख्शते। जब पीड़ित परिवार मुख्यमंत्री से बात करने के बाद संतुष्ट होता दिख रहा है तब उसे बहकाने की कोशिश प्रियंका क्यों कर रही हैं? कांग्रेस शासित राज्यों के बलात्कार क्या राहुल-प्रियंका को नहीं दिखते? आजकल प्रचलित वह प्रसिद्ध उक्ति भी दुहराई जाएगी कि इस संवेदनशील मामले पर सियासत नहीं होनी चाहिए, बिल्कुल उसी तरह जैसे श्रमिकों के मूलभूत अधिकारों को नकारने वाली श्रम संहिताओं और कृषि में कॉरपोरेट को लूट की छूट देने वाले कृषि सुधारों पर भी राजनीति करना मना है।

सत्ताधारी दल से पूछा जाना चाहिए कि पूरे सिस्टम और समाज की कार्यप्रणाली और सोच पर गहरे प्रश्न चिह्न लगाती हाथरस घटना पर राजनीति नहीं होगी तो किन विषयों पर होगी? क्या सोमनाथ मंदिर और रिया-सुशांत मामले जैसे आभासी, गैरजरूरी, जबरन थोपे गए, मीडिया निर्मित महत्वहीन मुद्दों पर राजनीति होनी चाहिए?
प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में उत्तर प्रदेश और देश में हो रही बलात्कार की अनेक घटनाओं की चर्चा है। बुलंदशहर और आजमगढ़ की घटनाओं में आरोपी संभवतः अल्पसंख्यक समुदाय के हैं। मीडिया में होने वाली बहसों में अब सत्ताधारी दल के प्रवक्ता पहले इस पहचान को छिपाते-छिपाते उजागर करेंगे और फिर यह गर्जना करेंगे कि हम तो अपराधी का जाति-धर्म नहीं देखते, यह तो विपक्ष है जो दलित-सवर्ण का एंगल ला रहा है।
कुछ कट्टर हिंदूवादी संगठनों के प्रवक्ता यह कहने लगेंगे कि जब मुसलमान लड़का हिंदू लड़की का बलात्कार करता है तब आपको क्यों सांप सूंघ जाता है? लव जिहाद के विषय में आपका क्या कहना है? फिर बात ‘भारतीय इतिहासातील सहा सोनेरी पाने’ में सावरकर द्वारा वर्णित इतिहास के उस हिंसक और प्रतिशोधी आख्यान तक जा पहुंचेगी जिसके अनुसार धर्म भ्रष्ट करने के लिए मुगल शासक हिंदू स्त्रियों के साथ दुष्कर्म करते और फिर उन्हें अपने हरम में रख लेते थे और आज के हिंदुओं को उन मुगल बादशाहों के कथित वंशजों से उस कथित अपराध का बदला लेना चाहिए। इसके बाद बलात्कार की भीषणता और दोषियों को दंडित करने में सरकार की नाकामी पर चर्चा के स्थान पर इस बात पर बहस होने लगेगी कि क्या बलात्कार धर्म सम्मत और नीति सम्मत भी हो सकते हैं?
इस प्रकार जातिवाद के जिंदा जहर की शिकार असंख्य बलात्कार पीड़िताओं का करुण क्रंदन धार्मिक घृणा के काल्पनिक इतिहास के वहशी ठहाकों में खो जाएगा। ऊंची जातियों के वर्चस्व को प्रदेश और देश की राजनीति का आधार बनाने वाले नेताओं और उनकी विचारधारा पर चर्चा न होने पाए, इसलिए बलात्कार पर राष्ट्रव्यापी चर्चा का ढोंग रचा जाएगा। यह चर्चा पोर्न फिल्मों, नैतिकता के गिरते स्तर, युवतियों के अंग दिखाऊ कपड़ों तथा मोबाइल के दुरुपयोग की गलियों में तब तक भटकती रहेगी जब तक हाथरस की घटना की न्यूज़ वैल्यू समाप्त नहीं हो जाती। यह मानवीय त्रासदियों को हिंसक और आपराधिक बौद्धिक विमर्श द्वारा महत्वहीन बना देने का युग है।
हाथरस की घटना सवर्ण जातियों का हिंसक उद्घोष है कि काल का पहिया पीछे घुमा दिया गया है और संविधान के जरिए निचली जातियों ने समानता की जो थोड़ी बहुत झलक देखी थी उसे अब उन्हें स्वप्न मान लेना चाहिए, हम वापस उस मध्य युगीन भारत में लौट रहे हैं, जब सवर्णों की तूती बोलती थी और दलितों को जूते तले रखा जाता था। फुले-गांधी-आंबेडकर की विरासत को हमने नकार दिया है। चाहे उन्नाव की घटना हो या हाथरस की– जिस तरह की बर्बरता और पाशविकता बलात्कार पीड़िताओं के साथ की गई है, जिस तरह के अत्याचार पीड़िता के परिजनों के साथ किए गए हैं, जिस तरह पुलिस-प्रशासन और सत्ताधीशों ने आरोपियों को संरक्षण देने और दुःखी परिजनों को भयाक्रांत करने की कोशिशें की हैं, उसके बाद भी यदि इन बलात्कार की घटनाओं को यौन सुख के लिए काम विकृत व्यक्तियों के कृत्य के रूप में परिभाषित किया जाता है तो या तो यह हद दर्जे की मासूमियत है या इससे भी ऊंचे स्तर की चालाकी।
इन घटनाओं में नव सामंतों ने यह संदेश देने की कोशिश की है कि वंचितों के आत्मसम्मान की हर आवाज़ को कुचल दिया जाएगा। निचली जातियों के भाग्य में अधीनता, सेवा और दास्य भाव ही लिखे हैं। अपमान के प्रतिकार की कल्पना तो दूर अपमान का बोध करने की क्षमता भी यदि वंचित समुदायों में बरकरार है तो उन्हें दंडित होना होगा और फिर दलित स्त्रियां तो आत्माहीन उपभोग की वस्तुएं हैं- ऐसे खिलौने जिनसे टूटते तक मन बहलाया जाता है!
भारत के उन ग्रामीण इलाकों में जहां जातिवाद राजनीति, लोक व्यवहार और समाज व्यवस्था के संचालन में निर्णायक तत्व होता है, वहां स्थिति इतनी भयानक है कि वंचित समुदाय की स्त्रियां ताकतवर लोगों के यौन शोषण की इतनी अभ्यस्त हो चुकी होती हैं कि यह उन्हें विचलित नहीं करता, बल्कि इसे वे अपनी नियति मान चुकी होती हैं। यह हमारी समाज व्यवस्था की सबसे बड़ी विडंबना है कि न तो शोषक में कोई ग्लानि है न ही पीड़ित में कोई आक्रोश शेष रह गया है, और तो और हम जैसे प्रबुद्ध लोगों से निर्मित समाज भी इन अत्याचारों से व्यथित नहीं होता और हम सब अपनी सुविधानुसार रणनीतिक मौन या सांकेतिक विरोध का आश्रय लेते रहते हैं। ऊंची जातियां दलित स्त्रियों के यौन उत्पीड़न को अपना अधिकार मानती हैं और पीढ़ियों तक दमन सहते-सहते दलित स्त्रियां भी इसे कर्त्तव्य के रूप में स्वीकार लेती हैं।

मानवीय संवेदनाओं का मर जाना किसी समाज के लिए सबसे भयंकर त्रासदी हो सकती है और हम उसी ओर अग्रसर हैं। ऐसा नहीं है कि पितृसत्तात्मक समाज सवर्ण स्त्रियों पर कोई रियायत करता है। कभी निकट संबंधी, कभी मित्र, कभी कार्य स्थल का साथी या अधिकारी– पितृसत्तात्मक मानसिकता नाना रूप धारण करती है। बलात्कार विषयक न्यायिक प्रक्रिया पर पितृसत्ता की ऐसी अमिट छाप लगी हुई है कि हर कानूनी संशोधन बेअसर हो जाता है, लेकिन यह भी ध्रुव सत्य है कि ऊंची जातियों की स्त्रियों को दलित स्त्रियों की तुलना में पुरुषों के अत्याचार से संघर्ष करने के बेहतर अवसर उपलब्ध होते हैं और समाज तथा राजसत्ता का रवैया भी उनके प्रति किंचित नरम एवं उदार होता है।
ऐसा विशेषकर तब होता है जब बलात्कारी सजातीय नहीं होता और उसकी कोई ऐसी अलग धार्मिक या जातीय पहचान होती है जो राजसत्ता के राजनीतिक हितों की सिद्धि के लिए प्रयुक्त की जा सकती है। ऊंची जातियों की स्त्रियों के लिए यौन उत्पीड़न एक भयंकर घटना है, किंतु अधिकांश दलित स्त्रियों के लिए यह दैनंदिन जीवन का एक भाग है।
पहले फार्मूला फिल्मों में सरकार, पुलिस और न्याय व्यवस्था को अपनी मुट्ठी में रखने वाले अत्याचारी और विलासी जमींदारों के किस्से एक प्रिय विषय हुआ करते थे। हम इन फार्मूला फिल्मों की अतिरंजित प्रस्तुति के लिए आलोचना भी करते थे और इन्हें यथार्थ से दूर ले जाने का दोषी भी ठहराते थे। किंतु योगी जी के उत्तर प्रदेश में दलितों और महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों को देखकर ऐसा लगता है कि इन फार्मूला फिल्मों में दिखाया जाने वाला काल्पनिक अतिरंजित अत्याचार अब दैनिक जीवन का यथार्थ बन गया है।
योगी जी प्रतीकों की राजनीति में निष्णात हैं। हम उन्हें दलितों के घर में भोजन करते और नवरात्रि में कन्याओं का पूजन करते देखते हैं, किंतु जिस तरह उत्तर प्रदेश का शासन चल रहा है वह दो वर्गों के वर्चस्व को इंगित करता है। व्यापक तौर पर हम बहुसंख्यक समुदाय के धार्मिक वर्चस्व को प्रदेश की राजनीति पर हावी होते देख रहे हैं, किंतु जब हम सूक्ष्मता से अवलोकन करते हैं तो यह ऊंची जातियों के वर्चस्व में बदलता नजर आता है। योगी शब्द हिंदू धर्म परंपरा में बहुत पवित्र एवं उच्च स्थान रखता है। इससे निष्पक्षता, उदारता और अनासक्ति एवं समदर्शिता जैसे गुण सहज ही संयुक्त हो जाते हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने योगी आदित्यनाथ नाम अवश्य धारण किया है किंतु लगता है उनके भीतर का अजय सिंह बिष्ट समाप्त नहीं हो पाया है।
पिछले कुछ वर्षों में संघ ने दलितों को अपनी ओर आकृष्ट किया है। दलितों को संघ के बौद्धिक प्रशिक्षण के दौरान अनेक प्रेरक प्रसंग भी सुनाए जाते हैं। एक प्रसंग 1969 में उडुप्पी में हुए हिंदू सम्मेलन का है। कहा जाता है कि गोलवलकर के प्रयासों से इस देश के शीर्षस्थ धर्माचार्यों की उपस्थिति में ‘हिंदवः सोदरा सर्वे’ और ‘न हिंदू पतितो भवेत’ जैसे सिद्धांतों को अंगीकार किया गया था एवं छुआछूत मिटाने के लिए प्रस्ताव पारित हुआ था और इसके बाद गंभीर छवि वाले गोलवलकर को खुशी से झूमते देखा गया था। दूसरा प्रसंग सावरकर से जुड़ा हुआ है। कहा जाता है कि उन्होंने 1929-1937 के बीच रत्नागिरि में छुआछूत मिटाने का विशाल अभियान चलाया था। आज उडुप्पी में पारित प्रस्ताव को पांच दशक बीत गए हैं और विगत छह वर्षों से संघ अप्रत्यक्षतः भारतीय राजनीति की दिशा तय करने में निर्णायक भूमिका निभा रहा है तब यह मूल्यांकन किया जाना चाहिए कि भाजपा शासित राज्यों में दलितों के दमन की घटनाओं में असाधारण वृद्धि क्यों हो रही है?
उदारचेता महात्मा गांधी ने सावरकर और गोलवलकर से अछूतोद्धार के विषय पर संवाद का सेतु अवश्य कायम रखा था किंतु गांधी यह भली प्रकार जानते थे कि अल्पसंख्यक समुदायों और अन्य धर्मावलंबियों के प्रति घनघोर घृणा और प्रतिशोध का भाव रखने वाली यह कट्टर हिंदूवादी शक्तियां कभी भी दलितों को वास्तविक सत्ता नहीं दे सकतीं। गांधी उस विरोधाभास को भली प्रकार समझते थे कि नस्लीय सर्वोच्चता और रक्त की शुद्धता के लिए हिंसा की खुली वकालत करने वाली विचारधारा कभी भी समावेशी नहीं हो सकती। संघ का दलित प्रेम अल्पसंख्यकों और अन्य धर्मावलंबियों के प्रति गहन घृणा से सना हुआ है।
आंबेडकर भी यह भली प्रकार जानते थे कि मनु स्मृति पर अगाध श्रद्धा रखने वाली विचारधारा कभी दलितों को निर्णायक और केंद्रीय स्थिति नहीं प्रदान कर सकती, इसीलिए उन्होंने धर्म के विमर्श को नकारते हुए संविधान के माध्यम से दलितों को अधिकार संपन्न बनाने की चेष्टा की। हमेशा की तरह देश की स्त्रियां धर्म, जाति और राजनीति के विमर्श में उलझकर हाथरस घटना की खुलकर निंदा या प्रखर विरोध से परहेज कर रही हैं। शायद वे भूल रही हैं कि दुनिया के प्रत्येक धर्म पर पितृसत्ता की छाप है और इनकी कोशिश नारी को बंधनों में बांधकर सेविका और सहायिका की भूमिका तक सीमित करने की रही है।

प्रत्येक जाति के भीतर नारी की स्थिति कमोबेश एक जैसी है, चिंताजनक रूप से दयनीय। पितृसत्ता और राजनीतिक वर्चस्व के रिश्ते जगजाहिर हैं। दरअसल शोषक वर्ग और पितृसत्ता की जेनेटिक संरचना एक जैसी है। किंतु नारियां अपने समर्थन और विरोध में, अपने प्रेम और घृणा में, पुरुष को ही आदर्श मानती रही हैं और अपनी मौलिकता खोकर पुरुष की प्रतिक्रिया और प्रतिकृति बनने को ही क्रांति मान बैठी हैं। यही कारण है कि हाथरस की घटना पर हो रहे विमर्श से बड़ी आसानी से नारी को गायब किया जा सकता है। जब तक शोषित, शोषक को अपना आदर्श मानते रहेंगे और जब तक शोषकों की मूल्य मीमांसा को स्वीकार करते रहेंगे तब तक शोषण तंत्र की समाप्ति असंभव है।
(डॉ. राजू पाण्डेय लेखक और चिंतक हैं। आप आजकल छत्तीसगढ़ के रायगढ़ में रहते हैं।)
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