यहां किसी का कोई अधिकार नहीं

हाल में हिंसा का सामना कर चुकी एक महिला ने इंस्टाग्राम पर उसके साथ हुई दर्दनाक हिंसा (भावनात्मक, शारीरिक, और यौनिक) का किस्सा साझा किया। यह हिंसा एक जाना-माना प्रगतिशील स्वतंत्र पत्रकार कर रहा था। हालांकि, स्वतंत्र मीडिया कंपनी ने कहा है कि वे उचित कानूनों के अंतर्गत इस मामले की जांच करेंगे, लेकिन इसके बाद जो हुआ वह आज के समय की राजनीतिक स्थिति को दर्शाता है। महिला ने स्पष्ट तौर पर गुजारिश की थी कि इस मामले के आधार पर कश्मीरी मुसलमान आदमियों या उनके समुदाय को लक्ष्य न बनाया जाए, लेकिन दक्षिण-पंथी ऑनलाइन समुदाय ने इस अकाउंट को ज़ब्त कर लिया।

और यह न्याय के प्रति चिंता के लिए नहीं किया गया था। बल्कि, इससे दो स्पष्ट राजनीतिक लक्ष्य पूरे होते थे: इस तानाशाही समय में, मीडिया कंपनी की आलोचनात्मक पत्रकारिता को खारिज करना, और “लव जिहाद” के हानिकारक मिथक को मजबूत करना। इस सब शोर में महिला की आवाज़ को दबा दिया गया। हाँ, प्रगतिशील तंत्र को इससे बेहतर होना चाहिए, ऐसी जगहों में यौन हिंसा कोई संयोग की बात नहीं है। इसको स्वीकार करना और समाधान करना ज़रूरी है। लेकिन जब तक हम प्रगतिशील जगहों को जवाबदार ठहराते हैं, तब तक हम इस बात को दक्षिणपंथियों के हवाले नहीं होने दे सकते। 

अब यह खेल साफ़ हो चुका है। एक वामपंथी-रुझान या प्रगतिशील जगह की महिला यौन उत्पीड़न या हिंसा को उजागर करने का साहस करती है। कुछ ही घंटों में, न सिर्फ ये कहानी पूरे सोशल मीडिया में छा गई – बल्कि भारतीय दक्षिण-पंथियों ने उसे ज़ब्त करके, तोड़-मरोड़ के, शोर मचा डाला। जिसकी शुरुआत महिला द्वारा न्याय की खोज से हुई, वह तेजी से एक विचित्र राजनीतिक हथियार में बदल जाता है, जिसका उद्देश्य महिला को न्याय दिलाना नहीं, बल्कि संपूर्ण वामपंथ, नारीवादी आंदोलनों, प्रगतिशील स्थानों और वास्तव में प्रगतिशील विचारों को बदनाम करना है। इस बीच, सत्तारूढ़ पार्टी और उसके सहयोगी – जिनके अपने कार्यकर्ता यौन दुराचार के आरोपों से भरे पड़े हैं – अछूते, बेपरवाह और इस जांच से पूरी तरह से बचे हुए हैं।

इन कहानियों को हथियार बनाकर, दक्षिणपंथी महिलाओं को अपनी आवाज़ उठाने से हतोत्साहित करते हैं। हिंसा का सामना कर रही महिलाओं को डर है कि उनके दर्द को एक ऐसे युद्ध में गोला-बारूद के रूप में इस्तेमाल किया जाएगा, जिसे लड़ने की उन्होंने मांग ही नहीं की थी। कि उनका आघात दक्षिण-पंथियों के लिए चर्चा का विषय बन जाएगा, जिसमें न तो बारीकियों पर ध्यान दिया जाएगा और न ही उनकी सहमति ली जाएगी। उन्हें चिंता है कि जवाबदेही की मांग करना फासीवादियों के लिए उन मूल्यों पर हमला करने का एक साधन बन जाएगा, जिन पर हिंसा का सामना कर रहे लोग विश्वास करते हैं – न्याय, समानता और एकजुटता। और उनकी यह चिंता व्यर्थ नहीं है। 

हमने यह सब खेल कई बार, हर बार होते हुए देखा है – छात्र कार्यकर्ताओं को निशाना बनाने में, गैर सरकारी संगठनों को बदनाम करने में, पूरे विरोध आंदोलन को बदनाम करने में – किस तरह से दक्षिणपंथी मशीनरी अति सक्रिय हो जाती है। यह ऐसी समस्या है जो हिंसा का सामना कर चुके लोगों को सहनी पड़ती है: चुप्पी से आंतरिक निंदा मिलती है, और आपका आवाज़ उठाना, दक्षिणपंथियों द्वारा बदनामी फैलाने के लिए एक हथियार बन जाता है। विश्वसनीयता की राजनीति क्रूरता से भरी हुई है।

जब स्त्री द्वेष और सरकार की मिलीभगत हो

कई दशकों से चले आ रहे नारीवादी संघर्ष के बावजूद, यौन हिंसा हमारे समाज के हर कोने में मौजूद है – हमारे घरों में, हमारे दोस्तों के बीच, जहां हम काम करते हैं और पढ़ते हैं, सड़कों पर, बोर्डरूम में, लोकतांत्रिक समूहों और गैर-सरकारी संस्थाओं जैसी प्रगतिशील जगहों में, सरकारी मशीनरी के उच्च स्तरों पर, और यहाँ तक कि राजकीय सत्ता की आधारशिला में भी गहराई से समायी हुई है। 

यौन हिंसा और न्याय तक पहुंच ऐतिहासिक रूप से विवाद का विषय रहे हैं, चाहे केंद्र में किसी भी पार्टी की सरकार रही हो; हालांकि 2014 के बाद से सरकार ने नारीवादी आंदोलनों द्वारा कड़ी मेहनत से अर्जित उपलब्धियों को बेहद व्यवस्थित तरीके से पीछे की ओर धकेल दिया है।

विश्वविद्यालयों में यौन उत्पीड़न के खिलाफ़ जेंडर संवेदनशील कमेटी (2017) जैसी स्वायत्त संस्थाओं को खत्म करने से लेकर न केवल “लव जिहाद” जैसे प्रतिगामी विचारों का हौवा खड़ा करने, बल्कि इसका इस्तेमाल अंतरधार्मिक जोड़ों को गिरफ्तार करने और उन्हें निशाना बनाने के लिए करने तक, सरकार ने भरसक कोशिशें की हैं कि नारीवादी न्याय की जगह पितृसत्तात्मक नियंत्रण ले ले। प्रगतिशील आवाज़ों को “राष्ट्र-विरोधी” करार कर दिया जाता है, और जो औरतें आवाज़ उठाती हैं उन्हें ट्रोल किया जाता है, धमकाया जाता है, या फिर चुप करा दिया जाता है। कानूनों का इस्तेमाल निगरानी रखने के लिए किया जाता है, मदद के लिए नहीं। श्रम सुरक्षा कानूनों को कमज़ोर बना दिया गया है, और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पक्ष में लैंगिक न्याय को दरकिनार कर दिया गया है।

“बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ” की बयानबाजी के पीछे एक राजनीतिक तंत्र छिपा है जो सक्रिय रूप से स्त्री-द्वेष को बढ़ावा देता है, नारीवादी असहमति को दंडित करता है, और जेंडर-आधारित हिंसा के अपराधियों की रक्षा करता है – खासकर जब वे वैचारिक रूप से शासन के साथ जुड़े होते हैं।

बलात्कार और यौनिक हिंसा का सामना कर चुके ज़्यादातर लोगों को लगातार शत्रुतापूर्ण कानूनी और राजनीतिक तंत्र का सामना करना पड़ रहा है- यह उन्नाव (2017), कठुआ (2018) और हाथरस (2020) मामलों में स्पष्ट है, जहां भाजपा नेताओं ने आरोपियों का बचाव किया या पीड़ितों को बदनाम करने का प्रयास किया। सरकार ने भी ऐसा माहौल बनाया है जहाँ महिलाओं के प्रति ऑनलाइन घृणा पनपती है। दक्षिणपंथी ट्रोल सेनाएँ नियमित रूप से मुखर महिला पत्रकारों, कार्यकर्ताओं और छात्रों को बलात्कार की धमकियाँ और सांप्रदायिक गालियाँ देकर निशाना बनाती हैं। इस घृणा को बंद करना तो दूर, दक्षिणपंथी पार्टियों के लीडर इसे और ज़्यादा हवा देते हैं, प्रोत्साहित करते हैं, और शाबाशी देते हैं – प्रत्यक्ष रूप से या फिर जानबूझकर चुप्पी साध कर।

अब ब्रिज भूषण शरण सिंह, शक्तिशाली भाजपा मंत्री और भूतपूर्व कुश्ती फेडरेशन के प्रमुख का मामला ही देखें, जिसके खिलाफ़ 2023 में कई महिला पहलवानों ने लगातार यौन शोषण करने का आरोप लगाया। कई महीनों के विरोध-प्रदर्शनों, भूख हड़तालों, और वैश्विक निगरानी के बाद कहीं जाकर कुछ कदम उठाए गए। पार्टी उसके साथ कुछ ज़्यादा ही समय तक खड़ी रही। प्रधान मंत्री ने स्पष्ट रूप से चुप्पी बनाए रखी। और अब, कोर्ट ने “सबूतों के अभाव” में इस केस को रद्द कर दिया है। हमेशा की तरह और क्रोधित करने वाले पैटर्न में, सबूत का भार सीधे हिंसा का शिकार हुए लोगों पर डाल दिया गया, मानो सामने आने का उनका साहस, उनकी विस्तृत गवाही, जिससे उनके भविष्य पर भयंकर प्रभाव पड़ सकता था, तथा राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ियों का सार्वजनिक विरोध अपने-आप में काफ़ी नहीं था।

लेकिन यौन हिंसा के मामलों में “सबूत न होने” का क्या मतलब है – खासकर जब आरोपी शक्तिशाली हो, उसे राजनीतिक सुरक्षा मिली हुई हो, और पुरुष हो?

इसका मतलब यह है कि आज भी कानून को खून बहते घाव और गवाही देने वाले गवाहों की ज़रूरत है, जबकि सब जानते हैं कि यौन हिंसा अक्सर निजी जगहों पर होती है, और उन लोगों द्वारा जो सत्ता का उपयोग ठीक इसीलिए करते हैं क्योंकि वे चुप्पी सुनिश्चित कर सकते हैं। इसका मतलब यह है कि आघात, शर्म, संस्थानों द्वारा नज़रंदाज़ी और डर को तुरंत रिपोर्टिंग या पूरी तरह से सब कुछ याद रखने के लिए वैध बाधाएं नहीं माना जाता है। इसका मतलब है कि शिकायत करने वालों की आवाज़ों को – खासकर हाशिये के समुदायों की आवाज़ों को – स्थिरता, शुद्धता और विश्वसनीयता के असंभव परीक्षणों से गुजरना होगा, जबकि आरोपी को संदेह का लाभ मिलेगा। 

जब कोर्ट कहता है कि कोई सबूत नहीं है, वह केवल एक कानूनी पक्ष नहीं रख रहा होता है – वह एक राजनीतिक वक्तव्य दे रहा होता है: कि चाहें औरतें जंतर मंत्र पर विरोध प्रदर्शन कर रही हों, चाहें उनका भविष्य, प्रतिष्ठा, और निजी सुरक्षा दांव पर लगी हो, तब भी जब वे आवाज़ उठायेंगी, तो उनके शब्दों को खारिज कर दिया जाएगा। 

“हम इज़्ज़त के लिए लड़े”, एक महिला पहलवान ने विरोध प्रदर्शन के दौरान कहा। कोर्ट और सरकार ने अब साबित कर दिया है कि इज़्ज़त केवल उन पुरुषों के लिए आरक्षित है जो सत्ता की सेवा करते हैं। 

2002 के गुजरात दंगों के सबसे भयावह मामलों में से एक में, बिलकिस बानो – एक गर्भवती मुस्लिम महिला – के साथ भीड़ ने सामूहिक बलात्कार किया और उसकी 3 साल की बेटी सहित उसके परिवार के 14 सदस्यों की बेरहमी से हत्या कर दी गई। अपराधी दक्षिणपंथी हिंदू राष्ट्रवादी समूहों से जुड़े थे। हालाँकि उन्हें दोषी ठहराया गया था, लेकिन गुजरात सरकार ने विवादास्पद रूप से उन्हें 2022 में समय से पहले ही रिहा कर दिया। चौंकाने वाली बात यह है कि बलात्कारियों का उनके समर्थकों ने मालाओं, मिठाइयों और सार्वजनिक जश्न के साथ स्वागत किया गया – यह एक ऐसी करतूत थी जिसने व्यवस्था के अंदर गहरी दंडमुक्ति और सांप्रदायिक पूर्वाग्रह को सामने लाकर खड़ा कर दिया। बिलकिस के आघात को न केवल न्याय से वंचित किया गया – बल्कि सार्वजनिक रूप से उसका मजाक उड़ाया गया।

हाल ही में हिमांशी नरवाल (2025) की ट्रोलिंग का मामला सामने आया। पहलगाम हमले में अपने पति, जो एक आर्मी कमांडर थे, को खोने के बाद, उन्होंने असाधारण साहस और करुणा का परिचय दिया। इस गहरे दुख की घड़ी में भी, उन्होंने लोगों से आग्रह किया कि वे उनकी व्यक्तिगत त्रासदी का इस्तेमाल कश्मीरियों या मुसलमानों को बदनाम करने के लिए न करें। सम्मान के बजाय, उन्हें दक्षिणपंथी ट्रोल्स से ऑनलाइन गाली-गलौज तक का सामना करना पड़ा, जिन्होंने उन पर राष्ट्रविरोधी होने का आरोप लगाया। मानवता और संयम के लिए उनकी अपील ने सांप्रदायिकता फैलाने की प्रवृत्ति को रोकने की गुज़ारिश की – और इसके लिए, उन्हीं को निशाना बना दिया गया।

दक्षिणपंथी औरतों के दुःख को तभी स्वीकार करते हैं जब वह उनके एजेंडा को आगे बढ़ाने में मदद करता हो। समानुभूति में अगर सिद्धांतबद्धता हो, तो उसे दंडित किया जाता है। 

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग: एक शांत समर्थक 

भारतीय राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग – जिसे अधिकारों की सुरक्षा के लिए स्थापित किया गया था – असल में, एक मनमाने तरीके से काम करने वाला और समझौतावादी संस्थान बन गया है। यह राजकीय कर्ताओं द्वारा यौन और शारीरिक हिंसा के मामलों में, विशेष रूप से संघर्ष, हिरासत और विरोध की स्थितियों के दौरान, सार्थक हस्तक्षेप करने में हर बार विफल रहा है, जैसा कि लोकतांत्रिक समूहों द्वारा बताया गया है।

यह सिर्फ़ राष्ट्रीय स्तर पर विफलता नहीं है। 2023 में, ग्लोबल अलायंस ऑफ़ नेशनल ह्यूमन राइट्स इंस्टिट्यूशंस (GANHRI) ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को ‘ए’ स्तर से घटाकर ‘बी’ कर दिया, और इसके पीछे के कारणों में इसकी स्वतंत्रता की कमी, आम नागरिकों के साथ कम जुड़ाव और संदिग्ध नियुक्तियाँ शामिल थीं – खास तौर पर पूर्व पुलिस और नौकरशाहों की जिनका मानवाधिकारों के मामले में रिकॉर्ड खराब रहा है। इस प्रकार स्तर गिरने से राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार काउन्सिल में वोट देने का अधिकार खो दिया, और साथ ही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उसकी विश्वसनीयता में कमी को उजागर कर दिया।

इस इतिहास के मद्देनज़र, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के यौन हिंसा के मामलों पर बेहद कम हस्तक्षेपों – और वो भी ऐसे जहां वे सरकार के नज़रिये को ही प्रतिध्वनित करते हैं – को संदेह से देखा जाना चाहिए। हाल के एक प्रगतिशील पत्रकार के मामले में, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का हस्तक्षेप बहुत ही ज़्यादा छलपूर्ण है – उन्होंने बहुत ही बेतुके और डराने वाले सवाल पूछे हैं, जिनसे साफ़ है कि यह सवाल प्रगतिशील मीडिया आउटलेट को परेशान करने और बदनाम करने के उद्देश्य से किए गए हैं।

स्त्री-द्वेष को छिपाने के लिए उदार भाषा का सहारा लेने की खतरनाक प्रवृत्ति

बेल हुक्स ने अपने प्राथमिक कार्य, ऐन्ट ल अ वुमन: ब्लैक विमेन एण्ड फेमिनिज़्म (1981), में सत्ताधारी प्रणालियों द्वारा नारीवादी बयानबाजी के वस्तुकरण के खिलाफ़ चेतावनी देते हुए, इस बात पर बल दिया है कि इस तरह का सहयोजन नारीवाद से प्रणालीगत ताकतों की कट्टरपंथी आलोचना को छीन लेता है। 

प्रगतिशील जगहों को कमज़ोर करने के लिए, नारीवादी भाषा का उपयोग करना जबकि पितृसत्तात्मक, जातिवादी दर्जाबंदी की ओर उनकी प्रतिबद्धता बनी रहती है – यह रणनीति नई नहीं है। यह औपनिवेशिक युग के “सभ्यता मिशन” की याद दिलाता है, जहाँ गोरे पुरुषों ने भूरे रंग की महिलाओं को भूरे रंग के पुरुषों से बचाने का दावा किया था, जबकि उन्हें अधिकार और स्वायत्तता से वंचित रखा गया था। आज, यह हिंदू राष्ट्रवादी सरकार है जो उद्धार करने वाले की भूमिका निभा रही है।

काफ़ी लंबे समय से वे महिलाओं के दर्द को हथियार बनाने की कपटपूर्ण कला में निपुण हो गए हैं – उन्हें न्याय दिलाने के लिए नहीं, बल्कि सत्ता को मजबूत करने के लिए। विभिन्न संदर्भों और भौगोलिक क्षेत्रों में, महिलाओं के आघात का इस्तेमाल हिंसा को उचित ठहराने, सांप्रदायिक तनाव को भड़काने और राजनीतिक विरोध को अवैध ठहराने के लिए किया जाता रहा है। भारत में, “अपमानित हिंदू महिला” का कथानक हिंदुत्व कथा का केंद्रीय विषय रहा है, जिसका इस्तेमाल देश के विभाजन से लेकर गुजरात 2002 तक मुस्लिम विरोधी हिंसा को उचित ठहराने के लिए किया जाता रहा है।

महिलाओं के आघात को केवल तभी महत्व दिया जाता है जब यह बहुसंख्यकवादी एजेंडे के काम आ सके; जब यह असुविधाजनक होता है, तो इसे दबा दिया जाता है या मिटा दिया जाता है – जैसे कि कश्मीर, छत्तीसगढ़ या मणिपुर जैसी जगहों में हिरासत में यौन हिंसा और राजकीय दमन के लिए यौन हिंसा का उपयोग; बस्तर में सुरक्षा बलों द्वारा यौन हिंसा की शिकार आदिवासी महिलाएं; मुज़फ्फरनगर और गुजरात में सांप्रदायिक हिंसा के दौरान निशाना बनाई गई मुस्लिम महिलाएं, या ऑनलाइन नीलाम की जाने वाली महिलाएं; दलित महिलाएं जिनके मामले शायद ही कभी सुर्खियों में आते हैं जब तक कि कार्यकर्ता इस मुद्दे पर ज़ोर न दें। और इस सब में समलैंगिक व्यक्तियों के खिलाफ़ हिंसा को तो पूरी तरह से अदृश्य कर दिया गया है। दक्षिणपंथ के पास उनके लिए कोई शब्द नहीं है, कोई आक्रोश नहीं है, और कोई चिंता नहीं है। उनका दर्द उनकी राजनीति में काम नहीं आता।

जवाबदेही का आह्वान 

हाँ, प्रगतिशील तंत्र को इससे बेहतर करके दिखाना होगा। प्रगतिशील जगहों पर यौन हिंसा जैसे विश्वासघात से ज़्यादा गहरी चोट शायद ही किसी और तरह के विश्वासघात से पहुँचती हो। ये घटनाएँ कोई संयोग नहीं हैं, बल्कि सत्ता का सामना न करने का लक्षण हैं, यहाँ तक कि उन लोगों में भी जो इसे खत्म करने का दावा करते हैं। 

लोकतांत्रिक आंदोलनों और अन्य प्रगतिशील स्थानों को अपने संगठनों में उत्पीड़न का सामना कर रहे लोगों की आवाज़ को गंभीरता से लेना चाहिए। उन्हें सहमति और जवाबदेही की संस्कृति बनाने पर भी ज़ोर देना चाहिए, जो कि बेमानी बातों से परे हो। इसका मतलब है कि उत्पीड़न का सामना कर रहे लोगों की आवाज़ को केंद्र में रखना, सिर्फ़ तभी नहीं जब कोई घटना होती है, बल्कि आंदोलन के काम करने के प्रमुख तरीके के रूप में। सबसे ज़रूरी यह है कि लोगों को खो देने से बचना नहीं चाहिए। आंदोलन की अखंडता की रक्षा करने का मतलब है कि जब प्रभावशाली व्यक्ति उसे नुकसान पहुंचा रहे हों, तो उन्हें जाने देने के लिए तैयार रहना – चाहे वे कितने भी करिश्माई, अच्छे संपर्क वाले या प्रिय क्यों न हों। एक आंदोलन जो खुद को जवाबदेह नहीं रख सकता, वह अंततः अपने अंदर के विरोधाभासों के बोझ तले दब जाएगा।

तो फिर यहाँ से आगे कहाँ जाएँ?

ऐसे समाज में जहां लोग अपनी जानकारी सोशल मीडिया से प्राप्त करते हैं, जहां दक्षिणपंथ ने नफ़रत और ग़लत सूचना के कारखाने बना रखे हैं, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि इस दुष्प्रचार का मुकाबला करने के लिए शायद ही कोई आलोचनात्मक आवाज़ या तर्क मौजूद है; क्योंकि जो आलोचनात्मक विचार मौजूद हैं भी, उन्हें खामोश कर दिया जाता है या उन पर प्रतिबन्ध लगा दिया जाता है।

आलोचनात्मक चिंतन के अस्तित्व और विकास के लिए, पढ़ने और जुड़ने के लिए समय और जगह की ज़रूरत होती है, लेकिन एक नवउदारवादी अर्थव्यवस्था में, जहां काम, घर और आम तौर पर जीवन की अनिश्चितता के बीच, आराम करने तक का समय नहीं है; जहां हमारा खाली समय भी एक बाज़ार की वस्तु बन गया है, वहाँ हमारे बौद्धिक जीवन का भी दम घोंट कर धीरे-धीरे उसे खत्म किया जा रहा है।

खासकर शिक्षाविदों, विश्वविद्यालयों, कार्यकर्ताओं की जगहों और प्रगतिशील सोच, संवाद और बहस को बढ़ावा देने और बढ़ावा देने वाले आंदोलनों पर जिस तरह से कार्रवाई की जा रही है; और संवैधानिक मूल्यों को बनाए रखने के लिए उनके खिलाफ़ खड़े होने के बजाय सरकार के पक्ष में अदालत के फैसलों ने एक भयानक और भयावह प्रभाव डाला है। इसलिए यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि कम लोग अपने सामने पेश किए जाने वाले विमर्श को चुनौती दे रहे हैं, और उससे भी कम लोग उनके बारे में लिखने या बात करने का साहस कर रहे हैं। जैसा कि हाल ही में आए कुछ फ़ैसलों से पता चलता है, अगर सरकार आप पर हमला करने का फ़ैसला करती है, तो अदालत भी आपके पक्ष में नहीं खड़ी होगी, चाहे आरोप कितने भी अनुचित, गुमराह करने वाले और पूरी तरह से हास्यास्पद ही क्यों न हों। आप अकेले खड़े हैं।

ऐसे में हिंसा का सामना कर रहे लोग कहाँ जाएंगे, जब चुप रहना और बोलना दोनों ही विश्वासघात जैसा लगता है? प्रगतिशील जगहों पर, हिंसा का सामना कर रहे लोगों को अक्सर रक्षात्मक, इनकार या कमतर आँके जाने का सामना करना पड़ता है – खासकर जब आरोपी के पास राजनीतिक या सांस्कृतिक ताकत होती है। जब वे बोलने का साहस करते भी हैं, तो दक्षिणपंथी उनके दर्द का इस्तेमाल घृणा फैलाने में करते हैं, उनकी एजेंसी को खत्म कर देते हैं और पहले से ही लक्ष्य बनाए जा रहे समुदायों के खिलाफ़ उनके आघात को हथियार बना लेते हैं। दण्ड मुक्ति और विनियोग के बीच फंसे, हिंसा का सामना कर रहे व्यक्ति की सज़ा दोगुनी हो जाती है।

हमें ऐसी नारीवादी जगहें बनानी होंगी जो न केवल वैचारिक निष्ठा पर आधारित हों, बल्कि जवाबदेही और देखभाल पर भी आधारित हों। भड़काने के डर के बिना हिंसा का सामना कर रहे व्यक्ति की बात सुनी जानी चाहिए। इसके लिए हमें अपने आंदोलनों, जाति और वर्ग के पूर्वाग्रहों के अंदर मौजूद सत्ता का भी सामना करना होगा और दक्षिणपंथी सहयोजन और वामपंथी उदारवादी कायरता दोनों को अस्वीकार करना होगा। जब हम हिंसा का सामना कर रहे लोगों – न कि व्यक्तियों या संस्थाओं की प्रतिष्ठा को – को केंद्र में रखेंगे, सिर्फ तभी हम सत्य, घाव भरने और न्याय के लिए जगह बनाना शुरू कर सकते हैं।

(लेखिका अनुराधा बनर्जी एक नारीवादी कार्यकर्ता और स्वतंत्र शोधकर्ता हैं। मूल टेक्स्ट अंग्रेजी में था जिसका अनुवाद निधि अग्रवाल ने किया है।)

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