भाजपा के राष्ट्रीय संगठन महामंत्री बी.एल. सन्तोष का 30 नवम्बर को अचानक देहरादून आना और बिना रुके ही कुछ ही घंटों के अंदर वापस दिल्ली लौट जाना उत्तराखण्ड की राजनीति के प्याले में तूफान की स्थिति पैदा कर गया है। समझा जा रहा है कि अगर कुछ ही दिनों के अंदर धामी मंत्रिमण्डल में बदलाव नहीं होता है तो लोकसभा चुनाव के तैयारी वर्ष 2023 में उत्तराखण्ड एक नयी सरकार की छत्रछाया पा सकता है। हालांकि धामी सरकार ने नौकरी घोटालों के बाद अंकिता हत्याकाण्ड से तोहमत से पार्टी और सरकार को बचाने के लिये पूरी कोशिश तो की है मगर अभी तक ये सारे प्रयास नाकाफी साबित हो रहे हैं। खास कर अंकिता की नृसंश हत्या ने भाजपा को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर जो अपयश दिलाया है उससे मुक्ति के लिये पार्टी आलाकमान के पास धामी सरकार को बलिबेदी पर चढ़ाना भी एक विकल्प माना जा रहा है।
भाजपा के राष्ट्रीय संगठनमंत्री की असली हैसियत सार्वजनिक नहीं की जाती है। जबकि संगठन महामंत्री आरएसएस के प्रतिनिधि के तौर पर राज्य और केन्द्र में भाजपा के संगठन और सरकारों पर न केवल नजर रखते हैं अपितु अरएसएस की ओर से दिशा निर्देश भी देते हैं। उनको पार्टी नहीं बल्कि आरएसएस नियुक्त करता है। माना जाता है कि संगठन महामंत्री बीएल सन्तोष उत्तराखण्ड में हुये काण्डों के कारण धामी सरकार से खुश नहीं हैं। क्योंकि राज्य में हुये बहुचर्चित काण्डों से न केवल सरकार और पार्टी अपितु आरएसएस को भी काफी बदनामी मिली है। अंकिता हत्याकाण्ड के आरोपी का पिता आरएसएस से भी जुड़ा है और भर्ती घोटालों में भी आरएसएस के लोगों के नाम आये हैं।
बीएल सन्तोष का 30 सितम्बर को देहरादून का दौरा सार्वजनिक तौर पर किसान मोर्चा के शैक्षणिक शिविर में भाग लेने के लिये था। लेकिन वह सुबह 9 बजे ही पार्टी के प्रदेश कार्यालय पहुंच गये। तब तक वहां उनके स्वागत के लिये प्रदेश अध्यक्ष महेन्द्र भट्ट भी नहीं पहुंचे थे। किसान मोर्चा के कार्यक्रम में जाने से पहले उन्होंने पार्टी कार्यालय में पार्टी की सह प्रभारी रेखा वर्मा, प्रदेश अध्यक्ष भट्ट, प्रदेश संगठन मंत्री अजेय कुमार और तीन महामंत्रियों के साथ मंत्रणा की।
उत्तराखण्ड की धामी सरकार के भविष्य को लेकर अटकलें गत दिनों तब शुरू हो गयीं थीे जब मुख्यमंत्री, विधानसभा अध्यक्ष और पार्टी प्रदेश अध्यक्ष समेत कई प्रमुख नेता दिल्ली पहुंच गये थे। चर्चाओं को तेज हवा तब लगी जब महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी उसी दौरान मुम्बई से दिल्ली आ धमके और उन्होंने महाराष्ट्र भवन में लगभग 3 घंटे तक मुख्यमंत्री धामी, कैबिनेट मंत्री धनसिंह और प्रदेश अध्यक्ष महेन्द्र भट्ट से मंत्रणा की। माना जाता है कि कोश्यारी ने राज्य के हालात पर चर्चा के लिये बीएल संन्तोष को भी अलग से बुलाया था। धामी ने उस दौरान सन्तोष के साथ ही अनिल बलूनी से भी मुलाकात की। लेकिन उनकी प्रधानमंत्री और अमित शाह से बात न हो सकी।
मुख्यमंत्री धामी नौकरी घोटालों और अंकिता हत्याकाण्ड के कारण उपजे राजनीतिक हालातों से केन्द्रीय नेतृत्व को अवगत कराने तो दिल्ली गये ही थे, लेकिन माना जा रहा था कि वह मंत्रिमण्डल में फेरबदल की अनुमति लेने भी दिल्ली गये थे। वह इसलिये कि कुछ मंत्रियों पर गंभीर आरोप हैं तो मंत्रमण्डल में तीन सीटें खाली भी हैं। लेकिन केवल इतनी सी बात के लिये महाराष्ट्र के राज्यपाल भगतसिंह कोश्यारी का दिल्ली दौड़ लगाना राजनीतिक विश्लेषकों की पेशानी पर बल डाल गया। दिल्ली के महाराष्ट्र भवन में सुबह-सुबह कोश्यारी के साथ प्रदेश अध्यक्ष महेन्द्र भट्ट, मुख्यमंत्री धामी और कैबिनेट मंत्री धनसिंह की तीन घंटे तक चली मंत्रणा राजनीतिक क्षेत्रों में हलचल मचा गयी। दिल्ली से कोश्यारी ढेढ बजे की फ्लाइट से मुबई लौटने के बजाय आरएसएस मुख्यालय नागपुर चले गये। उस दिन दिल्ली में चर्चा यह भी थी कि डैमेज कण्ट्रोल अभियान में महाराष्ट्र के उप मुख्यमंत्री देवेन्द्र फणनवीस को भी लगाया गया है ताकि वे अपने सम्बन्धों का उपयोग कर सकें।
पिछले 22 सालों में भाजपा को उत्तराखण्ड में पहले ऐसे संकट से नहीं गुजरना पड़ा। पहले नौकरियों को लेकर युवाओं में सत्ताधारी दल के खिलाफ अक्रोश भड़का तो रही सही कसर अंकिता हत्याकाण्ड ने पूरी कर दी। अंकिता काण्ड का सीधा संबंध भाजपा के बड़े नेता से था। जिसे बचाने के चक्कर में स्थानीय विधायक समेत कुछ और लोग लेपेटे में आ गये। सरकार 25 लाख का मुआवजा देकर भले ही अंकिता के परिवार के क्रोध की ज्वाला को ठण्डी कर सकती है, मगर आम आदमी के दिलों से आक्रोश को निकालना इतना आसान नहीं है।
प्रदेश में आगामी 12 अक्टूबर को मंत्रिमण्डल की बैठक रखी गयी है। जाहिर है कि तब तक मंमिण्डल में फेरबदल की संभावना ना के बराबर है। जबकि फेरबदल अवश्यंभावी माना जा रहा था। लगता है राज्य में त्रिवेन्द्र सिंह रावत की जैसी परिस्थितियां पैदा हो रही हैं। त्रिवेन्द्र भी बार-बार मंत्रिमण्डल विस्तार की अनुमति केन्द्र से मांग रहे थे जो कि उन्हें अन्त तक नहीं मिली। इस बार भी अगर अक्टूबर में मंत्रिण्डल में फेरबदल नहीं होता है तो फिर सरकार का ही भविष्य अंधकारमय समझो। अगर मंत्रिमण्डल का विस्तार या पुनर्गठन हो जाता है तो धामी सरकार अगले साल तक कहीं नहीं जा रही है, और अगले साल भी परिवर्तन न होने का मतलब धामी सरकार को लम्बा अभयदान ही है, जिसकी संभावना कम ही है।
भाजपा ही नहीं बल्कि कोई भी राजनीतिक दल ऐसे संकट के समय नेतृत्व परिवर्तन नहीं करता। रणनीतिक दृष्टि से भी युद्ध के मध्य में सेनापति नहीं बदला जाता। सेनापति को बदलने के बजाय युद्ध जीतने के लिये रणनीतियां बदली जाती है। इसीलिये बीएल सन्तोष पार्टी के इस संकट से निपटने के लिये जरूरी हिदायतें दे कर चले गये हैं। भाजपा के अंदरूनी सूत्र भी स्वीकार करते हैं कि राज्य में नेतृत्व परिवर्तन तत्काल नहीं बल्कि दिसम्बर तक संभव है और उसके लिये दावेदारों की हसरतें फिर जिन्दा हो गयी हैं। उन दावेदारों में अब तक विधानसभा अध्यक्षा ऋतु खण्डूड़ी सबसे प्रबल मानी जा रही थीं लेकिन उनसे संबंधित ताजा विवादों ने उनकी संभावनाओं पर ग्रहण लगा दिया माना जा रहा है। ऋतु खण्डूड़ी की ऊंची पहुंच तो है लेकिन वह एक राजनीतिज्ञ की तरह न तो व्यवहार कुशल हैं और ना ही आम आदमी की उन तक पहुंच है। कैबिनेट मंत्री धनसिंह कोश्यारी के करीब इसलिये जा रहे हैं ताकि धामी के हटने की नौबत आ जाय तो उसी कैंप से धनसिंह का नाम आगे कर दिया जाय। लेकिन उनके बारे में भर्तियों से लेकर अन्य विवाद इतने हैं कि उनका मंत्री पद ही बच जाय तो गनीमत है। बहरहाल व्यवस्था के बदलाव के बजाय मुख्यमंत्रियों में बदलाव उत्तराखण्ड की नियति बनी हुयी है।
(जयसिंह रावत वरिष्ठ पत्रकार हैं और देहरादून में रहते हैं।)