24 देशों के जनमत का सर्वे: अमेरिका और ट्रंप के समर्थन में अग्रिम पंक्ति में भारतीय 

आज द हिंदू ने 24 देशों का एक सर्वे प्रकाशित किया है। यह सर्वे पीयू रिसर्च सेंटर (Pew Research Center) ने किया। यह 8 जनवरी से 26 अप्रैल 2025 के बीच का है। सर्वे का विषय यह था कि इन 24 देशों के नागरिकों का कितने प्रतिशत लोग ट्रंप के समर्थन में हैं और कितने विरोध में। यह सर्वे फरवरी और अप्रैल के बीच का है।

45 प्रतिशत भारतीयों ने ट्रंप में पूरा भरोसा जताया। 24 प्रतिशत ने उनके ऊपर अविश्वास जताया। 29 प्रतिशत ने कोई जवाब नहीं दिया। स्पष्ट है कि 69 प्रतिशत लोगों ने जवाब दिया। जिन 29 प्रतिशत ने जवाब नहीं दिया, यदि उनको छोड़ दिया जाए, तो जवाब देने वाले के करीब 75 प्रतिशत ने ट्रंप में भरोसा जताया। 59 प्रतिशत भारतीयों ने ट्रंप क्लाईमेंट चेंज की समस्या हल कर लेगें, इस पर भी भरोसा जताया। 

ट्रंप का समर्थन करने के मामले में औसत तौर पर भारतीय तीसरे नंबर पर हैं। सिर्फ 24 प्रतिशत भारतीयों ने ट्रंप को अहंकारी माना। इस मामले में भारतीय दूसरे स्थान पर हैं। सिर्फ 36 प्रतिशत भारतीयों ने ट्रंप को खतरनाक माना। 65 प्रतिशत भारतीयों ने माना कि ट्रंप को दुनिया की समस्याओं की जटिलता की समझ है। उनकी इस समझ पर भरोसा करने के मामले में भारतीय पहले स्थान पर हैं। 50 प्रतिशत भारतीयों ने ट्रंप को ईमानदार माना। 52 प्रतिशत भारतीयों ने कहा कि ट्रंप दुनिया के मामले जो कुछ कर रहे हैं, वह सही और सकारात्मक है।

कनाडा, आस्ट्रेलिया, स्वीडन और नीदरलैंड के 90 प्रतिशत लोगों ने ट्रंप को अहंकारी कहा। इन देशों के 70 प्रतिशत लोगों ने ट्रंप को खतरनाक माना। जबकि भारत के सिर्फ 24 प्रतिशत लोग ने ट्रंप को अहंकारी और 36 प्रतिशत ने खतरनाक माना। नीदरलैंड और फ्रांस में सिर्फ 22 प्रतिशत लोगों ने कहा कि ट्रंप जो कर रहे हैं, वह सही और सकारात्मक है, जबकि भारत में यह प्रतिशत 52 है। स्वीडन और मैक्सिको के 85 प्रतिशत लोगों ने कहा कि ट्रंप दुनिया के मामले में जो कुछ कर रहे हैं, वह सही और सकारात्मक नहीं है।

जिन महीनों के बीच 45 प्रतिशत भारतीयों ने ट्रंप पर भरोसा जताया, 52 प्रतिशत ने कहा कि वह जो कर रहे हैं, वह सही और सकारात्मक है और 50 प्रतिशत उन्हें ईमानदार कह रहे हैं। वह वही महीने हैं, जब ट्रंप ने 1000 से अधिक भारतीयों को अमानवीय तरीके से धक्का देकर अमेरिका से भारत निकाला। लोगों को हथकड़ी-बेड़ी तक लगाया गया था। यह वही समय था जब भारतीय छात्रों के वीजा पर ट्रंप के रोक के चलते 30 प्रतिशत कम भारतीय छात्र अमेरिका के विश्वविद्यालयों या अन्य उच्च शिक्षा संस्थानों में प्रवेश ले पाए। यह वही समय है, जब ट्रंप ने भारतीय वस्तुओं पर उच्च शुल्क लगाने की घोषणा किया।

जब सिर्फ 24 प्रतिशत भारतीय नागरिक ट्रंप पर भरोसा नहीं जता रहे हैं, उन्हीं महीनों में अमेरिका के एक निकटतम सहयोगी जापान के 59 प्रतिशत लोगों ने कहा कि उन्हें ट्रंप पर भरोसा नहीं है, हम उनके साथ नहीं हैं। मैक्सिको के 87 प्रतिशत लोग ट्रंप के साथ खड़ा होने से इंकार कर दिए, उन्हें विश्वास लायक नहीं माना।

सवाल यह है कि जिन महीनों में ट्रंप भारतीय प्रवासियों को अपमानित तरीके से भारत भेज रहे हैं, भारतीयों के अमेरिका में प्रवेश को हर तरह से प्रतिबंधित कर रहे हैं, भारतीय निर्यात पर 45 प्रतिशत तक टैरिफ लगा रहे हैं, भारत को एक ऐसा व्यापार समझौता करने के लिए बाध्य कर रहे हैं, जिससे अधिक से अधिक अमेरिका को फायदा हो।

उन महीनों में भी ट्रंप के समर्थन के मामले में भारतीयों के अग्रिम पंक्ति के तीसरे, दूसरे या पहले स्थान पर होने की वजह क्या है? वह कौन सी संवेदना-चेतना है, जिसके चलते 52 प्रतिशत भारतीय उनके कामों को सही ठहरा रहे हैं, 50 प्रतिशत भारतीय उन्हें ईमानदार कह रहे हैं, 65 प्रतिशत भारतीय उन्हें समझदार मान रहे हैं, यहां तक कि यह कह रहे हैं कि वह क्लाइमेट चेंज की समस्या का भी समाधान निकाल देंगे।

इसके निम्न कारण हैं-

1- भारत सरकार और भारतीय शासक वर्ग का उनके समर्थन में खड़ा होना

न सिर्फ वर्तमान केंद्र सरकार, बल्कि भारतीय शासक वर्ग कार्पोरेट-पूंजीपति वर्ग, बड़े कारोबारी- व्यापारी, अधिकांश संवैधानिक संस्थाएं, लोकतंत्र का चौथा खंभा मीडिया आदि ट्रंप के साथ खड़े हैं। सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी और उनके नेता मोदी के ट्रंप आदर्श और तथाकथित मित्र हैं। उन्होंने उनका चुनाव प्रचार तक किया था। भाजपा की मातृ संस्था आरएसएस और उसके आनुषांगिक संगठनों ने ट्रंप के पक्ष में अमेरिका में प्रचार अभियान चलाया था। सरकार और भारतीय शासक वर्ग, आरएसएस-भाजपा और मीडिया वे संस्थाएं हैं, जिनका आज की तारीख में भारतीय जनमत पर सबसे अधिक प्रभाव है।

2- कार्पोरेट पोषित मीडिया और उसके तथाकथित पत्रकारों-एंकरों का ट्रंप को समर्थन 

कार्पोरेट पोषित मीडिया ट्रंप का चुनाव से पहले और चुनाव जीतने के बाद नायक की तरह प्रस्तुत करती रही है और कर रही है। लाख बातें की जाएं, लेकिन जनमत पर इनका काफी असर है। जनमत बनाने में आज भी मीडिया के रूप में इनका सर्वाधिक प्रभाव है।

3- उच्च मध्य वर्ग और मध्यवर्ग का अमेरिका और ट्रंप से नाभिनाल रिश्ता

भारत का उच्च मध्य वर्ग और मध्यवर्ग अमेरिका को अपने आदर्श या स्वर्ग के रूप में देखता है। यह सिर्फ उसका भावात्मक या वैचारिक मामला नहीं, बल्कि उसके भौतिक स्वार्थ जुड़े हुए हैं। इनके एक हिस्से का एक पांव अमेरिका में रहता है, एक पांव भारत में। इस वर्ग के परिवारों के कुछ सदस्य भारत में रहते हैं, कुछ अमेरिका में बसे हैं। इनका हिस्सा वहां नौकरी करता है या भारत स्थित अमेरिकी कंपनियों में नौकरी करता है या ऑनलाइन अमेरिकी कंपनियों में नौकरी करता है। इनके बेटे-बेटी वहां पढ़ाई कर रहे हैं या पढ़ाई करने, नौकरी करने या वहां बसने का सपना देख रहे हैं। अमेरिकी शेयर बाजार में इनमें से बहुतों से शेयर खरीद रखा है। इनमें बहुतों के लिए अमेरिका एक खूबसूरत डेस्टिनेशन है। 

इन भौतिक स्वार्थों से पैदा हुई संवेदना-चेतना, सरकार-शासक वर्ग और मीडिया का भक्ति के हद तक अमेरिका और ट्रंप के पक्ष में खड़ा होने के चलते उच्च मध्यवर्ग-मध्यवर्ग अमेरिका और ट्रंप को आदर्श के रूप में देखता है।

4- मुस्लिम घृणा अभियान

भारतीय जनमन के बड़े हिस्से में इस्लामोफोबिया या मुसलमानों के प्रति घृणा भरा हुआ है। 11 सालों का नरेंद्र मोदी युग में यही अभियान भाजपा-आरएसएस का सबसे बड़ी चालक शक्ति बना हुआ है। ट्रंप अमेरिका में मुस्लिम घृणा अभियान के नायक हैं। उन्होंने कई मुस्लिम देशों के नागरिकों के अमेरिका में प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया है। अन्य बातों के साथ मुस्लिम घृणा अभियान ट्रंप और नरेंद्र मोदी को एक साथ खड़ा कर देता है। मोदी का समर्थक अपरिहार्य तौर पर ट्रंप समर्थक होने की पूरी संभावना रखता है। इजराइल के साथ भारत सरकार, भारतीयों के बड़े हिस्से और ट्रंप का खड़ा होना महज संयोग नहीं है। 

5- साम्राज्यवाद-पूंजीवाद विरोधी संवेदना-चेतना का 1990-1991 के कमजोर पड़ना, यह कहना ज्यादा सटीक होगा कि पूरी तरह हाशिए पर चले जाना  

सोवियत संघ के विघटन और भारत में 1991 के नई आर्थिक नीति, वैश्वीकरण, उदारीकरण और निजीकरण ने भारतीयों के भीतर की साम्राज्यवाद-पूंजीवाद विरोधी संवेदना-चेतना को काफी कुंद कर दिया है। विकसित भारत का स्वप्न अमेरिका बनने का ही स्वप्न है, बन पाए या नहीं यह अलग बात है। 1991 के बाद का साढ़े तीन दशकों का भारत अपने साम्राज्यवाद विरोधी-पूंजीवाद विरोधी संघर्षों के इतिहास को करीब-करीब भूल चुका है या किनारे लगा चुका है। अब तो यह भी बात होने लगी है कि हमने अमेरिका (साम्राज्यवाद) और पूंजीवाद को पूरी तरह गले गलाने में देर कर दी, नहीं तो अब तक कहां पहुंच चुके होते। इन साढ़े तीन दशकों में साम्राज्यवाद-पूंजीवाद विरोधी नारा बुलंद करने वाली वामपंथी शक्तियां बहुत कमजोर पड़ गई हैं, कुछ ने तो इसको गले भी लगा लिया है।

(डॉ. सिद्धार्थ लेखक और पत्रकार हैं।)

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