चीफ जस्टिस एनवी रमना ने स्पष्ट कर दिया कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता से समझौता नहीं किया जा सकता। उन्होंने कहा है कि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर न्यायपालिका को कार्यपालिका और विधायिका द्वारा नियंत्रित नहीं किया जा सकता है,क्योंकि यदि ऐसा हुआ तो क़ानून का शासन सिर्फ़ एक दिखावा रह जाएगा। उन्होंने न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बरकरार रखने पर जोर दिया।
सरकार पर असहमति व विरोध की आवाज़ को दबाने और आलोचनाओं को बर्दाश्त नहीं किए जाने के लगने वाले आरोपों के बीच भारत के मुख्य न्यायाधीश एन वी रमना ने बहुत बड़ी बात कही है। उन्होंने क़ानूनी विद्वान जूलियस स्टोन के कथन का ज़िक्र करते हुए कहा कि हर कुछ वर्षों में एक बार शासक को बदलने का अधिकार, अपने आप में तानाशाही के ख़िलाफ़ सुरक्षा की गारंटी नहीं हो सकती। उन्होंने भी कहा कि चुनाव, दिन-प्रतिदिन के राजनीतिक संवाद, आलोचना और विरोध की आवाज़ ‘लोकतांत्रिक प्रक्रिया के अभिन्न अंग’ हैं।
चीफ जस्टिस की यह टिप्पणी तब आई है जब हाल के वर्षों में न्यायपालिका पर आरोप लगता रहा है कि न्यायपालिका राष्ट्रवादी मोड में है और सरकार के सही गलत कामों की पहरेदार बनी हुई है। कानून के शासन की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं ।
सरकार पर आरोप लगते रहे हैं कि कानून के शासन की अनदेखी करके वह असहमति और विरोध की आवाज़ को दबा रही है। इसके लिए यह तर्क दिया जाता है कि मीडिया की रिपोर्टिंग पर एफ़आईआर और यूएपीए व एनएसए के तहत मुक़दमे दर्ज करने के अंधाधुंध मामले आए हैं। इसमें विनोद दुआ और सिद्दीक़ कप्पन जैसे पत्रकार भी शामिल हैं। किसान आंदोलन जैसे प्रदर्शन को ख़त्म करने के लिए सरकार द्वारा सख़्ती किए जाने के आरोप लगते रहे हैं। सामाजिक मुद्दे उठाने वाले और सरकार की नीतियों की आलोचना करने वाले कार्यकर्ताओं को प्रताड़ित करने और राजद्रोह जैसे मुक़दमे थोपे जाने के आरोप भी लगते रहे हैं। जैसे कि भीमा कोरेगाँव मामले से जुड़े कार्यकर्ता के मामले में आरोप लगाए जाते रहे हैं। विपक्षी दल के नेताओं पर विरोध की भावना से कार्रवाई के आरोप तो लगते ही रहे हैं। प्रकारांतर से आरोप लग रहा था कि न्यायपालिका प्रतिबद्ध न्यायपालिका बन गयी है।
चीफ जस्टिस रमना बुधवार को प्रलीन ट्रस्ट द्वारा वर्चुअल मोड के माध्यम से आयोजित जस्टिस पीडी देसाई मेमोरियल ट्रस्ट के 17वें व्याख्यान में बोल रहे थे। इस व्याख्यान का विषय ‘क़ानून का शासन’ था।
जस्टिस रमना ने जजों को भी आगाह किया। उन्होंने कहा कि न्यायाधीशों को जनमत की भावनात्मक आवेश से भी प्रभावित नहीं होना चाहिए, जिसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के माध्यम से बढ़ाया जा रहा है। सीजेआई ने कहा कि न्यायाधीशों को इस तथ्य के प्रति सचेत रहना होगा कि इस प्रकार बढ़ा हुआ शोर ज़रूरी नहीं है कि यह बताए कि सही क्या है और बहुसंख्यक किस पर विश्वास करते हैं। उन्होंने कहा कि मीडिया के नये टूल के पास किसी मुद्दे को बढ़ाने की काफ़ी ज़्यादा क्षमता है लेकिन वह सही और ग़लत या वास्तविक और फर्जी में फर्क पहचानने में सक्षम नहीं है। उन्होंने यह भी कहा कि इसी कारण मीडिया ट्रायल से प्रभावित होकर फ़ैसले नहीं लिए जा सकते हैं।
सीजे रमना ने कहा कि कुछ वर्षों में केवल एक बार शासक बदलने का अधिकार अत्याचार के खिलाफ गारंटी नहीं है।वास्तव में शासन चलाने की शक्ति जनता के पास ही है, यह विचार मानवीय गरिमा और स्वायत्तता की धारणाओं में भी पाए जाते हैं। एक सार्वजनिक विचाए जो तर्कसंगत और उचित दोनों है, को मानवीय गरिमा के एक अंतर्निहित पहलू के रूप में देखा जाना चाहिए और इसलिए कामकाजी लोकतंत्र उचित रूप से आवश्यक है।
सीजेआई ने कहा कि भारत में अब तक हुए 17 आम चुनावों में लोगों ने सत्तारूढ़ सरकार को आठ बार बदला है जो कि चुनावों का लगभग 50फीसद है। यह एक संकेत है कि बड़े पैमाने पर असमानताओं, गरीबी और पिछड़ेपन के बावजूद भारत के लोग बुद्धिमान हैं। उन्होंने कहा कि जनता ने अपने कर्तव्यों का बखूबी निर्वहन किया है। अब उन लोगों की बारी है जो राज्य के प्रमुख अंगों का संचालन कर रहे हैं। वे इस पर विचार करें कि क्या वे संवैधानिक जनादेश पर खरा उतर रहे हैं। चीफ जस्टिस की यह तल्ख टिप्पणी स्पष्ट रूप से आज के राजनीतिक हालात पर है। कहा जा रहा है देश में अघोषित आपातकाल है।
जस्टिस रमना यहीं नहीं रुके, इससे आगे उन्होंने आईना दिखाते हुए कहा कि यह हमेशा अच्छी तरह से माना गया है कि शासक को बदलने का अधिकार, हर कुछ वर्षों में अपने आप में तानाशाही के ख़िलाफ़ सुरक्षा की गारंटी नहीं होना चाहिए। यह विचार कि आख़िरकार लोग ही संप्रभु हैं, यह मानवीय गरिमा और स्वायत्तता के विचार में परिलक्षित होना चाहिए। तर्कसंगत और उचित सार्वजनिक संवाद को मानवीय गरिमा के एक अंतर्निहित पहलू के रूप में देखा जाना चाहिए और इसलिए यह ठीक से काम करने वाले लोकतंत्र के लिए ज़रूरी है।
जस्टिस रमना ने कहा कि आज़ादी के बाद से 70 से अधिक साल के बाद जब ‘पूरी दुनिया कोविड -19 के रूप में एक अभूतपूर्व संकट का सामना कर रही है, हमें निश्चित रूप से ठहरकर ख़ुद से पूछना होगा कि हम हमारे सभी लोगों की सुरक्षा और कल्याण सुनिश्चित करने के लिए किस हद तक क़ानून के शासन का इस्तेमाल कर पाए हैं।
(वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह की रिपोर्ट।)
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