क्या संविधान से जिहाद का आग़ाज़ है ‘लव जिहाद’ पर कानून की पहल?

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लव जिहाद को रोकने के लिए बीजेपी शासित राज्यों ने कानून बनाने का एलान किया है। इनमें मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, कर्नाटक जैसे राज्य शामिल हैं। यह समझना जरूरी है कि क्यों इस पहल को सही या गलत बताया जाए। लव जिहाद को लेकर क्यों बंटी हुई हैं सरकारें? राजनीतिक दलों में क्यों मचा है घमासान? ‘लव जिहाद’ के बहाने क्या निशाने पर हैं मुसलमान? या फिर यह है संविधान से जिहाद की शुरुआत?

मोटे तौर पर लव जिहाद किसी मुसलमान द्वारा मोहब्बत के जाल में फंसाकर दूसरे धर्म के लोगों से शादी करने और धर्मांतरण कराने का प्रपंच है। झूठ बोलना, गलत पहचान बताना, धोखा देना, शादी के बाद प्रताड़ना जैसे कई एक अपराध इसमें गुंथे होते हैं। इसका मतलब यह है कि लव जिहाद पर प्रस्तावित कानूनों की जद में मुसलमान ही आएंगे। इस तरह सीएए के बाद यह एक और कानून होगा जो धर्म के आधार पर होगा। हमारा संविधान धर्म के आधार पर किसी भेदभाव को रोकता है। लिहाजा इस नजरिए से भी प्रस्तावित कानूनों को तौला जाएगा।

महत्वपूर्ण यह है कि ‘लव जिहाद’ कोई कानूनी शब्द नहीं है। न ही ऐसी घटनाओं के आंकड़े सरकार के पास हैं। 4 फरवरी 2020 को केंद्रीय गृह राज्य मंत्री जी किशन रेड्डी ने लोकसभा में बताया था, “मौजूदा कानून के तहत ‘लव जिहाद’ शब्द परिभाषित नहीं है। किसी भी केंद्रीय एजेंसी की ओर से ‘लव जिहाद’ का ऐसा कोई मामला दर्ज नहीं कराया गया है।”

ऐसे में यह चिंता वाजिब है कि जब यह बात पता नहीं है कि लव जिहाद की बुराई से कितने लोग पीड़ित हुए हैं तो इस बुराई को खत्म करना सरकार की प्राथमिकता में क्यों हो। कहीं इसका मकसद पीड़ितों या संभावित रूप से पीड़ितों को सुरक्षित बनाने के बजाए कुछ और तो नहीं!

‘लव जिहाद’ को सुप्रीम मान्यता!
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी सरकार ने देश की संसद में भले ही ‘लव जिहाद’ को गैर आधिकारिक पद बताया है, लेकिन अब ‘लव जिहाद’ देश भर में समझा जाने वाला और समझ-बूझकर इस्तेमाल किया जाने वाला शब्द समूह या पद बन चुका है। खुद अदालत से भी इस पद को तब मान्यता मिल गई, जब केरल हाई कोर्ट ने चर्चित हादिया प्रकरण में शादी को अमान्य करार दिया था। मगर, सुप्रीम कोर्ट ने इस शादी को मार्च 2018 में बहाल कर एक बार फिर इस मामले में ‘लव जिहाद’ की बात को भी अमान्य कर दिया। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने ‘लव जिहाद’ की सोच या प्रचलन को खारिज नहीं किया। इसके बजाए सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में पैटर्न खोजने के लिए एनआईए को निर्देश देकर इस पर मुहर ही लगाई।

सुप्रीम कोर्ट ने ‘लव जिहाद’ वाले पैटर्न पर हुई शादियों की तहकीकात का जिम्मा एनआईए को सौंपा। एनआईए ने केरल के 89 मामलों में 11 को जांच के लिए चुना। इनमें शादी के बाद संबंधों में कटुता आ चुकी थी। इनमें से चार मामलों में हिंदू युवकों ने इस्लाम कुबूल किया था, जबकि बाकी मामलों में हिंदू युवतियों ने इस्लाम कुबूल किया था। तीन मामलों में धर्मांतरण की कोशिश विफल रही थी। पूरी जांच के बाद एनआईए ने इन मामलों में धर्मांतरण तो देखा, लेकिन शादी के लिए जबरन धर्मांतरण यानी ‘लव जिहाद’ जैसी बात उसे नज़र नहीं आई।

एनआईए को ‘लव जिहाद’ नहीं दिखा, मगर ‘लव जिहाद’ होता है या हो सकता है इसे सुप्रीम कोर्ट ने माना, तभी तो जांच का निर्देश दिया। आश्चर्य तब होता है जब एनआईए ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के मुताबिक 11 मामलों में जांच की स्टेटस रिपोर्ट सर्वोच्च अदालत को लिफाफे में सौंपी तो न्यायमूर्तियों ने उन लिफाफों को खोलना भी जरूरी नहीं समझा।

सियासी है ‘लव जिहाद’ पर कानून की पहल
बीजेपी शासित राज्य ‘लव जिहाद’ रोकने के लिए कानून बनाना चाहते हैं, लेकिन गैर बीजेपी शासित राज्य इसकी जरूरत नहीं समझते। ये दोनों रुख विशुद्ध रूप से सियासी हैं। बीजेपी शासित राज्य यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि मोहब्बत के नाम पर जिहादी तत्वों से गैर इस्लामिक धर्मों खासकर हिंदू धर्म की युवतियों को सुरक्षित किया जाए। मगर, इसका चिंताजनक पहलू यह है कि इससे पूरा मुस्लिम समुदाय ही धर्मांतरण के लिए जिहादी तत्व के तौर पर चिन्हित हो जाता है। लिहाजा कई लोग इसे धर्म विशेष के विरुद्ध पहल के तौर पर भी देख रहे हैं और इस्लाम को बदनाम करने की कथित साजिश भी बता रहे हैं। गैर बीजेपी शासित राज्यों की ओर से ‘लव जिहाद’ पर पहल नहीं करने के पीछे यह बड़ी दुविधा है।

31 अक्टूबर 2020 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने यह साफ कर दिया है कि केवल विवाह के मकसद से धर्मांतरण वैध नहीं है। इस फैसले से ‘लव जिहाद’ का विरोध करने वाले उत्साहित हैं। मगर, वास्तव में ‘लव जिहाद’ का मसला ‘शादी के मकसद से धर्मांतरण’ न होकर ‘धर्मांतरण के मकसद से शादी’ का है। इसमें जिहादी का छिपा हुआ खौफनाक चरित्र शादी के बाद उजागर होता है और पीड़िता (कई मामलों में पीड़ित भी हो सकते हैं) बेबस शिकार बन जाती है।

छल-कपट रोकने को पहले से हैं कानून
देश में ऐसे कानूनों की कमी नहीं है जो धोखा देकर शादी के लिए दंडित करते हैं। आईपीसी की धारा 496 में कपट से विवाह करने पर सात साल की सज़ा और आर्थिक दंड का प्रावधान है तो पहली शादी छिपाकर दूसरी शादी किए जाने पर धारा 495 के तहत 10 साल तक की कैद हो सकती है। इसी तरह धारा 497 ऐसे मामलों में अधिकतम पांच साल की सज़ा देता है, जिनमें शादीशुदा पुरुष का अवैध संबंध शादीशुदा स्त्री से साबित होता है। धारा 498 गलत नीयत से शादीशुदा स्त्री को कब्जे में रखने या संबंध बनाने के लिए दबाव डालने जैसी स्थितियों के लिए है। इसमें दो साल तक की सज़ा और दंड का प्रावधान है।

लव जिहाद के मामलों में ये धाराएं लागू होने की परिस्थितियां बनती हैं। मगर, इनमें कहीं भी धर्म के आधार पर अभियुक्त पहचानने का प्रावधान नहीं है। ‘लव जिहाद’ को रोकने के लिए कानून बनाने की पहल किए जाते वक्त भी यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि कानून धार्मिक आधार पर न बने। मगर, तब नये कानून की जरूरत ही क्यों रह जाएगी, क्योंकि कानून तो पहले से मौजूद हैं?

इस्लाम की सामान्य प्रवृत्ति नहीं है कथित लव जिहाद
इस्लाम की सामान्य प्रवृत्ति कतई नहीं है ‘लव जिहाद’। यह सोच कुछ घटनाओं में जरूर दिख सकती है, लेकिन इसे एक धर्म की सामान्य प्रवृत्ति के रूप में पहचाना जाए या नहीं, यही चिंता देशव्यापी है। पूरे विवाद के केंद्र में भी यही मुख्य बात है। हिंदुस्तान का संविधान सभी धर्मों को समान भाव से देखता है। एक धर्म अपनी प्रवृत्ति से जिहादी हो और किसी दूसरे कौम के लिए ख़तरनाक हो जाए, इस सोच को हमारा संविधान मान्यता नहीं देता है। ऐसे में लव जिहाद के नाम पर कानून बनाने की पहल क्या भारतीय संविधान के साथ जिहाद का आगाज माना जाए? दुनिया का कोई भी धर्म न अपनी प्रवृत्ति से जिहादी है और न हो सकता है, यह बात हुक्मरानों को भी समझनी होगी और धर्म के रहनुमाओं को भी।

(प्रोफेसर प्रेम कुमार वरिष्ठ पत्रकार और टीवी पैनलिस्ट हैं।)

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