यह कोई हवा-हवाई बात नहीं है। इसके पीछे कुछ ठोस तथ्य हैं, जो इस बात का इशारा करते हैं कि 2024 में पहली बार नरेंद्र मोदी को घेरने के लिए कांग्रेस और विपक्षी दल बेहद सधे कदमों से चुनाव अभियान को संचालित कर रहे हैं। इसके संकेत उसी दिन देखने को मिल गये थे, जब रायबरेली और अमेठी संसदीय क्षेत्र से कांग्रेस ने क्रमशः राहुल गांधी और किशोरी लाल शर्मा को अपना उम्मीदवार घोषित किया था।
इससे पहले मीडिया में यही चर्चा थी कि सोनिया गांधी द्वारा रायबरेली की परंपरागत सीट से अपनी दावेदारी खत्म करने का अर्थ है कि इस बार मां- बेटे की जगह भाई-बहन अमेठी और रायबरेली सीट की सीट लड़ने जा रहे हैं। अधिक से अधिक यही हो सकता है कि पिछले 10 वर्षों से लगातार अपना पीछा किये जाने से परेशान राहुल इस बार अमेठी की जगह रायबरेली से चुनाव लड़ सकते हैं।
राहुल गांधी के मामले में हुआ भी यही। भाजपा से राहुल गांधी की क्लोज मार्किंग का कार्यभार उठाने वाली स्मृति ईरानी के लिए अमेठी से चुनाव लड़ने का अब कोई चार्म नहीं बचा है। स्वयं राहुल गांधी जो कि दक्षिण में वायनाड सीट से खुद को सुरक्षित कर चुके हैं, के लिए अमेठी से लड़ने का कोई खास अर्थ नहीं था, लेकिन चुनाव न लड़ने से भाजपा यह नैरेटिव बनाने में सफल हो जाती कि कांग्रेस ने यूपी से अपना बोरिया-बिस्तर समेट लिया है और इस तरह केंद्र में उसने अपनी वापसी का सपना पूरी तरह से छोड़ दिया है। ऐसा करना न सिर्फ कांग्रेस बल्कि सपा और भाजपा-आरएसएस विरोधी स्वर को भी बेहद कमजोर करने वाला साबित हो सकता था। इसलिए राहुल ने चुनाव लड़ने का फैसला तो किया, लेकिन आखिरी क्षण में रायबरेली से नामांकन कर भाजपा द्वारा बुने गये जाल से खुद को बाहर निकाल लिया।
लेकिन फिर सवाल उठता है कि अमेठी से प्रियंका गांधी भी तो दो-दो हाथ कर सकती थीं। क्या ऐसा न कर कांग्रेस ने एक बड़ी गलती नहीं कर दी है? इस बारे में मीडिया और आम लोगों में तरह-तरह के कयास लगाये जा रहे हैं। आखिर इन दो संसदीय क्षेत्रों के लिए जितनी मीडिया हाइप देखने को मिली, वैसी शायद ही किसी अन्य संसदीय सीट को लेकर देखने को मिली हो।

लेकिन अगर आपने उस दिन कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव और राहुल गांधी के मुख्य सिपहसलार जयराम रमेश की टिप्पणी पर गौर किया हो, जिसमें उन्होंने कहा था कि हमारे पास अभी और भी चौंकाने वाले फैसले हैं, जिनका समय आने पर खुलासा किया जायेगा, तो सारी बात स्पष्ट हो जाती।
विपक्ष की मोदी को घेरने की रणनीति
असल में इस बार कांग्रेस ने भाजपा को उसके ही आजमाए हुए नुस्खे को उसके खिलाफ आजमाने की रणनीति बना रखी है। इसे ऐसे समझते हैं। लोकसभा के तीन चरण के चुनाव संपन्न हो चुके हैं, लेकिन मोदी लहर का दूर-दूर तक कोई नामोनिशान नहीं है। राहुल की दो वर्षों की कड़ी मेहनत आज उनके काम आ रही है। मई 2019 में मिली हार के बाद पार्टी अध्यक्ष पद का त्याग कर अंततः कांग्रेस को नये नेता का चुनाव करना पड़ा, और मल्लिकार्जुन खड़गे की मौजूदगी आज भाजपा को गांधी परिवार की पारंपरिक विरासत वाले आरोप को मजबूती से लगा पाने में बड़ी बाधा बनी हुई है। राहुल की पप्पू वाली इमेज भी इस बार नहीं चल पा रही है।
राहुल गांधी जातीय जनगणना और पिछड़ों, दलितों और आदिवासियों को उनकी आबादी के मुताबिक न्यायिक हिस्सेदारी वाले मुद्दे पर ही खुद को केंद्रित रखे हुए हैं। नरेंद्र मोदी जी की ओर से बार-बार उकसावे की भाषा बोलते रहने के बावजूद राहुल खुद को बेरोजगारी, महंगाई और पांच न्याय और 25 गारंटी को अपने चुनावी भाषणों का मुख्य आधार बनाये रखा है।

पीएम मोदी के हर वार पर जवाबी आक्रमण का कार्यभार कांग्रेस अध्यक्ष और प्रियंका गांधी के जिम्मे है। खड़गे अपने ट्वीट और पत्रों के माध्यम से नरेंद्र मोदी के आरोपों का जवाब दे रहे हैं और प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के सामग्री मुहैया करा रहे हैं।
लेकिन रैलियों में आई भीड़ को संबोधित करने और पीएम मोदी के आरोपों का मुहंतोड़ जवाब देने का काम अगर कांग्रेस में कोई कर रहा है तो वह प्रियंका गांधी हैं। मध्य प्रदेश की गुना और मुरैना की आम सभा में उन्होंने जिस प्रकार से एक-एक कर पीएम मोदी के चुनावी भाषणों की बखिया उधेड़ी और अपनी मां और दादी के गहनों को देश के लिए समर्पित करने अथवा अपने पिता राजीव गांधी के बलिदान जैसे भावनात्मक विषयों को उठाकर मोदी के आरोपों को कठघरे में खड़ा कर दिया, उसने उन्हें रातोंरात राष्ट्रीय चर्चा में ला दिया है।
अमेठी और रायबरेली में कांग्रेस की चुनावी रणनीति की कमान अपने हाथ में लेते हुए अब प्रियंका ने खुद को राष्ट्रीय स्तर पर चुनाव प्रचार से हटाकर 18 मई तक उत्तर प्रदेश तक सीमित रखने की घोषणा कर दी थी। कल, 7 मई से वाराणसी संसदीय सीट पर नामांकन का सिलसिला शुरू हो चुका है। नामांकन की अंतिम तारीख 14 मई है और 1 जून को सातवें चरण में यहां पर चुनाव होना है।
अभी तक खबर यही है कि इस सीट से कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अजय राय ही चुनाव लड़ेंगे। 10 मई को अजय राय सहित मोदी की मिमक्री करने वाले कलाकार श्याम रंगीला अपना पर्चा दाखिल कर सकते हैं। पीएम स्वयं 14 मई को अपना नामांकन दाखिल कराने पहुंच रहे हैं, इससे पहले 13 मई को वाराणसी में उनका मेगा रोड शो का आयोजन तय है।
अब आप कहेंगे कि इसमें प्रियंका गांधी के लिए गुंजाइश कहां दिखती है?
तो ऐसा है कि प्रियंका गांधी के वाराणसी से चुनाव लड़ने की चर्चा तो 2019 में भी उठी थी। याद कीजिये, पुलवामा-बालाकोट की घटना से पहले प्रयागराज से वाराणसी तक गंगा नदी से नाव के सहारे प्रियंका गांधी की यात्रा की। उन तीन-चार दिनों में ऐसा माहौल बना था कि देश का मीडिया मोदी-शाह को दरकिनार कर प्रियंका की इस यात्रा को कवर करने से खुद को रोक नहीं पाया था।
बाद में तो पुलवामा की घटना के बाद पूरा राजनीतिक समीकरण ही बदल गया था। लेकिन इसके बावजूद तमाम मीडिया चैनलों में इस बात की चर्चा थी कि क्या प्रियंका गांधी इस बार नरेंद्र मोदी को सीधे चुनौती देने जा रही हैं। तब भी प्रियंका गांधी ने साफ़ कहा था कि इसका फैसला पार्टी को करना है, वे किसी भी चुनौती का सामना करने को तैयार हैं।
मोदी के मुकाबले के लिए तैयार प्रियंका गांधी
प्रियंका गांधी को इस बार वाराणसी सीट से क्यों लड़ना चाहिए, को लेकर राजनीतिक टिप्पणीकार और संघ-भाजपा की राजनीति पर गहरी जानकारी रखने वाले पत्रकार नीलांजन मुखोपाध्याय ने अपने लेख में बेहद साफगोई से लिखा है कि जनवरी 2019 में जब पहली बार प्रियंका गांधी ने कांग्रेस महासचिव का पदभार ग्रहण कर राजनीति में कदम रखा है, तभी से वे भाजपा-आरएसएस की आंख की सबसे बड़ी किरकिरी बनी हुई हैं।
प्रियंका गांधी ने इस बीच अपने सार्वजनिक भाषणों से साबित कर दिया है कि उनके पास भीड़ को बांधने की क्षमता है। इस चुनाव अभियान में अपने भाषणों में वे अक्सर हंसती और खिलखिलाती हैं, आम लोगों को उनके परिवार, बाल-बच्चों और उनके भविष्य की चिंता से जोड़ते हुए रोजी-रोटी, महंगाई, शिक्षा और स्वास्थ्य से कनेक्ट करती हैं और फिर बताती हैं कि किस प्रकार नरेंद्र मोदी इसके ठीक खिलाफ कर चुनाव में हिंदू-मुस्लिम जैसे विभाजनकारी मुद्दों को उछालकर आपको एक बार फिर से छलने की कोशिश कर रहे हैं।

प्रियंका के वाराणसी सीट से चुनाव लड़ने की अटकलों को पिछले दो-तीन दिनों से बल भी मिलता दिख रहा है। भारतीय राजनीति पर गहरी पकड़ रखने वाले लोगों का मानना है कि इस बार मोदी का जादू बिल्कुल भी नहीं चल रहा है। वाराणसी सीट पर जानबूझकर चुनाव सातवें चरण में रखा गया है, ताकि पूरे देश में मोदी की रैलियों के बाद जो लहर बनेगी उसका सीधा लाभ वाराणसी और आस-पास की सीटों पर भाजपा को हासिल होगा।
लेकिन इस बार मामला उलट है। भाजपा के सबसे मजबूत माने जाने वाले गढ़ों (राजस्थान, हरियाणा, महाराष्ट्र, कर्नाटक, बिहार) में इस बार बड़ी सेंध लग चुकी है, जिसे पीएम मोदी के बयानों और हाव-भाव से आसानी से पढ़ा जा सकता है। प्रियंका गांधी के लिए 2019 के बजाय 2024 में महाबली को राजनीतिक मैदान में खुली चुनौती देना कहीं ज्यादा आसान है। वैसे भी अपने भाषणों में वे धाराप्रवाह ढंग से मोदी के एक-एक हमलों का मजबूती से जवाब देती आई हैं, जिस पर पीएम मोदी ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है।
इसके अलावा, बनारस जैसे भाजपा के मजबूत गढ़ में मोदी को चुनौती देने का काम यदि कोई लाइटवेट करता है तो पहले ही इस बात को मान लिया जाता है कि विपक्ष ने तो सिर्फ खानापूरी की है। गांधी परिवार की बेटी और एक महिला होने के नाते प्रियंका गांधी यदि मैदान में उतरती हैं तो बनारस की आम जनता के लिए चुनाव करना वास्तव में एक टेढ़ी खीर साबित होगा।
बनारस के वास्तविक मुद्दों पर पिछले 10 वर्षों से पड़ी धूल को हटाने का मौका
2022 विधानसभा चुनाव में भले भाजपा 5 में से 4 सीटों पर जीत हासिल करने में सफल रही, लेकिन इसके लिए उसे जितना कड़ा संघर्ष करना पड़ा वह अभी भी यहां के लोगों के जेहन में है। इसके अलावा, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में पिछले वर्ष कैम्पस के भीतर एक महिला छात्रा के साथ भाजपा के आईटी सेल से जुड़े 3 लोगों द्वारा सामूहिक बलात्कार जैसे मुद्दे पर खामोश पड़ चुके बनारस का मुख खुल सकता है।

इसके अलावा, काशी विश्वनाथ मंदिर कॉरीडोर के नाम पर सैकड़ों घरों पर तोड़-फोड़ की कार्रवाई, गांधी संस्थान पर कब्जे और कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी सहित सदियों से बनारस घाट से अपनी आजीविका चलाने वाले हजारों मल्लाहों और नाविकों के दुखों को आवाज मिल सकती है। लाखों की तादाद में बनारसी साड़ी से जुड़े अल्पसंख्यक कामगारों और पॉवरलूम का उजड़ता संसार भी अपनी खो चुकी आवाज को पा सकता है।
स्थानीय लोगों से बात करने पर पता चलता है कि अधिकांश आबादी अभी भी पॉवर कट और जाम की समस्या से जूझ रही है। उनका साफ़ कहना है कि बनारस को क्योटो बना देने की बात कह मोदी जी ने इस शहर को गरीब और निम्न वर्ग के लोगों की पहुंच से दूर बना दिया है।
हालत यह है कि कल जब कैंट विधायक सौरभ श्रीवास्तव नगवां में मोदी जी के लिए वोट मांगने पहुंचे तो गली में घुसते ही स्थानीय लोगों ने उन्हें चारों तरफ से घेर लिया और उन्हें वहां से जाने के लिए कहा। भाजपा विधायक करीब एक घंटे तक आक्रोशित नागरिकों को समझाने की कोशिश करते रहे, लेकिन गुस्साई भीड़ ने उनकी टोपी तक उतार ली।
असल में उस इलाके में सरकार वाराणसी के अस्सी घाट के किनारे जगन्नाथ कॉरीडोर का निर्माण कार्य करने जा रही है। इस बार करीब 300 से अधिक घरों पर बुलडोजर चलने की बात कही जा रही है। प्रशासन ने इसके लिए सर्वेक्षण कार्य पूरा कर उन घरों को चिंहित कर लिया है, जिन्हें इस कार्य के लिए ध्वस्त किया जाना है। मामला कोर्ट तक जा चुका है, और कोर्ट ने मामले के निस्तारण का आदेश दिया है। लेकिन आम लोगों की न तो अधिकारी और न ही जनप्रतिनिधि ही कोई सुध ले रहे थे।
पिछले 8 दशक से भी अधिक समय से रह रहे लोगों से जब कैंट विधायक सौरभ श्रीवास्तव पीएम मोदी के लिए वोट मांगने पहुंचे तो उन्हें भारी विरोध का सामना करना पड़ा। ऐसे में बहुत संभव है कि प्रियंका गांधी यदि बनारस की धरती पर अपना चुनावी सफर शुरू करें तो बनारस के आम मतदाता को कांटे की टक्कर में अपने पीछे छूट चुके मुद्दों का जवाब भी मिल सके।
जाहिर है कि इस मुकाबले में पलड़ा फिर भी पीएम मोदी का ही भारी रहने वाला है, लेकिन प्रियंका गांधी के लिए इसमें खोने के लिए कुछ खास नहीं है। अगर वे संयुक्त विपक्ष का प्रतिनिधित्व करती हैं तो बनारस के साथ-साथ पिछले 10 वर्षों के मोदी शासन का हिसाब-किताब निश्चित ही वे बनारस के मतदाताओं के हाथों में सुपुर्द कर सकती हैं, जो स्थानीय आबादी के लिए बड़ी जिम्मेदारी होगी।
वाराणसी लोकसभा सीट पर 3-3 लाख ब्राह्मण और मुस्लिम मतदाता है। दो लाख कुर्मी और 3 लाख गैर यादव ओबीसी के साथ-साथ 2 लाख बनिया समुदाय के लोग हैं। 2019 में मोदी 6,74,664 वोट हासिल कर 63.62% मतों को अपने पक्ष में करने में कामयाब रहे थे। सपा और कांग्रेस ने क्रमशः शालिनी यादव और अजय राय को मैदान में उतारकर संयुक्त रूप से करीब 3.50 लाख वोट हासिल किये थे। लेकिन संयुक्त इंडिया गठबंधन की ताकत यदि अंतिम चरण में प्रियंका गांधी के पीछे लामबंद होती है, तो 15% अतिरिक्त वोट हासिल करना असंभव नहीं है। हार की सूरत में भी प्रियंका गांधी के लिए रायबरेली के रूप में दावेदारी सुरक्षित रहने वाली है। ऐसे में, देखना होगा कि क्या वास्तव में 2024 का फाइनल वाराणसी में होने जा रहा है?
( रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं)
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