कश्मीर में वकीलों का दमन कोई बड़ी साज़िश का हिस्सा तो नहीं?

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कश्मीर में पिछले 25 दिनों के अंदर जम्मू कश्मीर हाईकोर्ट बार एसोसिएशन के चार वकीलों को गिरफ्तार किया गया है। इसमें तीन जम्मू कश्मीर हाईकोर्ट बार एसोसिएशन के पूर्व पदाधिकारी भी शामिल हैं। जिसमें मियान क़यूम (पूर्व अध्यक्ष), नज़ीर अहमद रोंगा (वर्तमान कार्यवाहक अध्यक्ष और पूर्व अध्यक्ष), मोहम्मद अशरफ़ भट्ट (वर्तमान महासचिव), और मियान क़यूम के भतीजे एडवोकेट मियान मुजफ्फर शामिल है। इन सभी वकीलों को पब्लिक सेफ्टी एक्ट (PSA) के अंतर्गत गिरफ़्तार करके श्रीनगर से बाहर जम्मू की जेलों में भेज दिया गया है, जो उनके घर से क़रीब 300 किलोमीटर दूर है।

इन सभी को जम्मू-कश्मीर पुलिस ने आधी रात में गिरफ्तार किया है, मानो यह लोग कोई बहुत बड़े आतंकवादी हैं जो पुलिस को देखते ही भाग जाएंगे। पुलिस और जांच एजेंसियां जानबूझकर ऐसा करती हैं ताकि अपने छापे और गिरफ़्तारी को वैधता प्रधान की जा सके और रात को जनता के विरोध का सामना न करना पड़े।

वरिष्ठ अधिवक्ता नज़ीर अहमद रोंगा को गिरफ़्तार करते वक़्त जम्मू कश्मीर पुलिस ने गिरफ़्तारी का कारण पूछने पर बताया कि ‘ऊपर से  ऑर्डर आया है’। इस बात से तस्वीर बिल्कुल साफ़ है कि हिंदुत्व फासीवादी भारतीय राज्य अब वकीलों को भी छोड़ने को तैयार नहीं है विशेषकर वो लोग जो राजकीय दमन के ख़िलाफ़ लोगों को न्याय दिलाने की कोशिश करते है। आंदोलन करने, धरना प्रदर्शन आदि में शामिल होने वाले एक्टिविस्टों की बात छोड़ दीजिए। इन चारों वकीलों को निशाना बनाने का एक बड़ा कारण यह है कि आतंकवाद के आरोपों से जुड़े मुक़दमे लड़ने वाले वकीलों को एक संदेश दिया जाए कि वे इस तरह के केसों से दूर रहें वरना उनको भी जेल के अंदर ठूंस दिया जाएगा। कानूनी लड़ाइयों को लड़ने वाले वकीलों की गिरफ्तारी के बाद संभावना है कि आने वाले समय में राजकीय दमन और भी क्रूर होता जाएगा।

कश्मीर में मानवाधिकारों का खुला उल्लंघन

इन सबके बीच यह महत्वपूर्ण बात है कि इन वकीलों को पहली बार पब्लिक सेफ्टी एक्ट के अन्तर्गत गिरफ़्तार नहीं किया गया है। अगस्त 2019 में धारा 370 हटाए जाने से पहले बहुत सारे वकीलों को गिरफ्तार किया गया था, उनमें ये लोग भी शामिल थे। उस समय इनको उत्तर प्रदेश की जेलों में भेज दिया गया था। इसका सीधा कारण था कि इन सबको अपने-अपने परिवार और कश्मीरी जनता से दूर रखना। इतनी दूर रखने से परिवार वालों को भी इनसे मिलने से पहले सोचना पड़े। यह सब आरोपी के साथ-साथ उनके परिजनों के मानसिक उत्पीड़न का प्रचलित तरीक़ा है।

2019 में जम्मू कश्मीर पुलिस के अनुसार मियान क़यूम पर पब्लिक सेफ्टी एक्ट इसलिए लगाया गया है “क्योंकि वे लोगों को धारा 370 को निरस्त करने के खिलाफ प्रदर्शन करने के लिए प्रेरित कर सकते थे”। यानी पुलिस भी एक वकील के तौर पर उनकी अहमियत और जनता पर उनकी पकड़ जान रही थी इसलिए उन्हें चारदीवारी में कैद किया गया।

इस बार तो क़यूम पर एक वकील की हत्या का आरोप लगाकर उन्हें 25 जून को गिरफ्तार कर लिया गया। फिर उसके कुछ दिन बाद उनके भतीजे मियान मुजफ्फर जो ख़ुद भी एक वकील हैं, उनको भी गिरफ्तार कर लिया गया। मियान क़यूम लगभग 80 साल के हैं और 30 साल से एक किडनी के सहारे जीवित हैं। इसके अलावा अन्य कई गंभीर बीमारियों से ग्रसित हैं। 2019 में जब उन्हें आगरा जेल में रखा गया था उस वक़्त भी ख़राब स्वास्थ्य हालत के बावजूद उनको जमानत देने में बहुत देरी की गई। इसी तरह की कहानी नज़ीर अहमद रोंगा की भी है। उन्हें भी 2019 में पब्लिक सेफ्टी एक्ट के तहत गिरफ्तार किया गया था और कश्मीर में कुछ दिन रखने के बाद उत्तरप्रदेश के अंबेडकर नगर जेल भेज दिया गया था। यह जेल हाल ही में निर्मित हुई थी। नज़ीर ने जेल से बाहर आने के बाद कहा कि अम्बेडकर नगर की जेल का उद्घाटन उन्हीं से हुआ था लेकिन यह उनके लिए कोई गर्व की बात नहीं है।

जनवरी 2020 में सुप्रीम कोर्ट ने उनके पीएसए के ऑर्डर को खत्म कर दिया। नज़ीर अहमद रोंगा का गुनाह यह था कि उन्होंने अन्य वकीलों के साथ धारा 370 हटाए जाने के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी। पुलिस के अनुसार उनके गिरफ्तारी का आधार था उनका “भारत के संविधान के अनुच्छेद 370 और 35A को समाप्त करने और पूर्ववर्ती जम्मू कश्मीर राज्य के विभाजन के ख़िलाफ़ भी मुखर रहना”। बात बिलकुल साफ़ है भारतीय राज्य किसी भी क़ीमत पर कश्मीर में अपने फ़ैसले के विरोध में उठने वाली आवाज़ को बर्दाश्त नहीं करना चाहता है। एडवोकेट मोहम्मद अशरफ़ भट्ट को भी उसी वक्त 2019 में इन्हीं आरोपों के आधार पर गिरफ़्तार किया गया था और आज भी फिर से वही बात दोबारा दोहराई जा रही है।

वकीलों पर हमला एक सोची समझी साजिश है

कश्मीर में वकीलों पर दमन कोई नई बात नहीं है। कश्मीर में मानवाधिकारों की बात करना ही गुनाह है, चाहे वो पत्रकार हो जो राजकीय दमन के ख़िलाफ़ लिखते हैं, या चाहे मानवाधिकार कार्यकर्ता हों जो लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों की बात करते हैं। चाहे अधिवक्ता हों जो क़ानूनी लड़ाई से लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों को सुरक्षित करने की कोशिश करते हैं। कश्मीर में इन सभी की सजा जेल होती है। और यह कश्मीर में सामान्य बात बना दी गई है।

पिछले लगभग एक साल में जम्मू कश्मीर हाईकोर्ट ने दर्जनों लोगों को पीएसए और यूएपीए के मामलों में या तो जमानत दी है या फिर उनपर लगाए गए झूठे केस को खत्म कर दिया है। इससे एक बात बिलकुल साफ़ है जिन लोगों को गिरफ्तार किया गया था, उनपर झूठे आरोप लगाए गए हैं। भारत में न्याय व्यवस्था की हालत यह है कि आपकी न्यायिक सजा तभी शुरू हो जाती है जबसे आप पर राज्य द्वारा कोई आरोप लगाया जाता है। जरूरी नहीं कि आपका गुनाह सिद्ध हो। यहां न्यायिक प्रक्रिया की सजा के बराबर है। पीएसए या यूएपीए के फर्जी आरोप लगाए जाने का मकसद ही आरोपी को मानसिक रूप से तोड़ देना है। जो कुछेक लोग इंसाफ पसंद वकीलों की मदद से जमानत पर या बरी होकर बाहर आ पाते हैं, उनकी संख्या भी बहुत कम है।

इन सभी बातों को ध्यान में रखकर भारतीय राज्य ने एक समाधान निकाला है कि अबकी बार वकीलों को जेल में भरा जाए ताकि कोई बाहर कोर्ट में इस तरह के केसों की पैरवी करने वाला ना बचे। और यह वकालत से जुड़े लोगों के लिए एक संदेश है कि फासीवादी सरकार देश की अखंडता और सुरक्षा के नाम पर चाहे जितने भी फर्जी केस बनाए, वकीलों को इन सब से दूर रहना है। अगर वो ऐसे केस लेते हैं तो उनका भी वही हाल होगा जो बाकी अन्य वकीलों के साथ हो रहा।

अधिवक्ता सुरेंद्र गाडलिंग जो महाराष्ट्र में राजकीय उत्पीड़न से जुड़े मामलों और समाज के सबसे उत्पीड़ित और शोषित लोगों को न्याय दिलाने में हमेशा आगे रहे, आज माओवादी होने के आरोप में पिछले 6 साल से जेल में बंद है। कुछ इस तरह की कहानी अधिवक्ता कृपा शंकर की है, जो इलाहाबाद हाई कोर्ट में यूएपीए से जुड़े मामले में लोगों की नुमाइंदगी करते थे पिछले 5 महीने से लखनऊ की जेल में बंद है। उनको उसी केस में UAPA के तहत गिरफ्तार कर लिया गया जिसमें वो अपने मुवक्किल की पैरवी कर रहे थे। आजकल न्याय दिलाने की कोशिश करने वालों को ही जेल में रखा जा रहा है ताकि लोगों को फंसा कर ज्यादा से ज्यादा समय तक जेलों में रखा जाए। जब इंसाफ पसंद वकील ही जेलों में होंगे तो आम लोग सरकार के विरोध की हिम्मत नहीं जुटा सकेंगे।

जम्मू कश्मीर हाईकोर्ट बार एसोसिएशन पर हमला

जम्मू कश्मीर हाईकोर्ट बार एसोसिएशन केंद्र शासित प्रदेश के लगभग 3000 वकीलों का एक प्रतिनिधि संस्था है। जम्मू-कश्मीर की विशेष स्थिति को ख़त्म करने से पहले राजनैतिक कैदियों की स्थिति पर नियमित रिपोर्ट जारी करने के कारण बार एसोसिएशन हमेशा केंद्र सरकार के निशाने पर रही है। इनमें से कई रिपोर्टों को मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने कश्मीर के मुद्दे पर सरकार पर दबाव बनाने के लिए आधार भी बनाया है।

कश्मीर हाईकोर्ट के बार एसोसिएशन के चुनाव की अंतिम कोशिश जुलाई 2019 में कश्मीर की विशेष दर्जा को ख़त्म करने से पहले हुई थी जो अगस्त के मध्य तक पूरे होने थे। लेकिन धारा 370 हटाए जाने के बाद बीच प्रक्रिया में ही बार एसोसिएशन के सदस्यों को जेल में डाल दिया गया। तब से लेकर आज तक एसोसिएशन के चुनाव नहीं हुए है। एक बार दोबारा कोशिश नवंबर 2020 में हुई थी लेकिन उस समय भी जम्मू कश्मीर प्रशासन ने चुनाव से एक दिन पहले नोटिस जारी करके हाईकोर्ट बार एसोसिएशन को अपने चुनाव करवाने से रोक दिया और इसे सुनिश्चित करने के लिए अदालत परिसरों पर प्रतिबंध लगा दिया।

4 साल बाद हाईकोर्ट की बार एसोसिएशन ने दोबारा चुनाव कराने की कोशिश की जब बार एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष मियान क़यूम को 25 जून को गिरफ्तार कर लिया गया। अबकी बार चुनाव की प्रक्रिया 31 जुलाई तक पूरी होनी थी, लेकिन चुनाव की प्रक्रिया शुरू होते ही ऊपर से आदेश आने शुरू हो गए और एक-एक करके अधिवक्ताओं को गिरफ्तार करना शुरू कर दिया और एक बार फिर बार एसोसिएशन के चुनाव को रद्द कर दिया गया। इस बार कारण बताते हुए जम्मू कश्मीर प्रशासन ने यह दावा किया कि चुनाव के कारण “शांति भंग हो सकती है”।

बार एसोसिएशन के दमन पर शांति

बात जब कश्मीर की हो तब नागरिक समाज में एक ख़ास तरह की शांति पसर जाती है। अखबारों में भी वहां की गिरफ्तारियों की और मानव अधिकारों के हनन की ख़बरें एक छोटे से कोने में छपती है। अपवाद के तौर पर उन्हीं खबरों को पहले पेज पर बड़ी जगह तब मिलती है जब वहां या तो आतंकवादी सशस्त्र बलों पर हमला करे या फिर सशस्त्र बल किसी आतंकवादी को मार गिराए। एक बात यह भी है कि इसकी जांच करने की भी कोशिश नहीं की जाती है कि इन खबरों में कितनी सच्चाई है। क्योंकि कश्मीर बस्तर की तरह है, जहां एक तरह का युद्ध जारी है जिसमें कोई क़ायदे- क़ानून नहीं है। जहां लोगों की हत्याओं को गिनती में गिना जाता है और यह भी पता नहीं चलता कि मरने वाला वास्तव में कौन है।

आज 3000 वकील सदस्यों की एक बार एसोसिएशन पर लगातार हमला हो रहा है लेकिन देश की कोई बार एसोसिएशन इस पर बोलने को तैयार नहीं है। यहां तक सुप्रीम कोर्ट की बार एसोसिएशन भी इस पर चुप है जिसके वर्तमान अध्यक्ष वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल हैं। सिब्बल पूर्व कांग्रेस सरकार में कानून मंत्री भी रह चुके हैं। लेकिन कश्मीर के नाम पर चुप्पी है। अबतक सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन की तरफ़ से कोई बयान जारी नहीं किया गया है। यह चुप्पी वास्तव में ठीक नहीं है अगर हम ईमानदारी से लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए संघर्ष करना चाहते हैं। विशेषकर अगर हम राजनीतिक दलों से हटकर एक स्वतंत्र लोकतांत्रिक अधिकार आंदोलन को खड़ा करना चाहते हैं तो हमें सबसे पहले उस संकीर्णता को छोड़ना होगा जो हमे सीमित लोगों और सीमित मुद्दों पर बात करने को बाध्य करती है।

(लेखक दीपक कुमार कैंपेन अगेंस्ट स्टेट रिप्रेशन के सदस्य हैं।)

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