पिछले 15 सालों से सामाजिक कार्यकर्ताओं पर राजकीय दमन बढ़ता जा रहा है। और जेल जाने का सिलसिला भी बढ़ गया है। लेकिन समाज से जुड़े लोग जेल में भी अपना काम करते हैं और वहां की अव्यवस्था को भी एक्सपोज करते हुए बाहर निकलते हैं। BHU के 13 विद्यार्थियों ने भी यही किया। उन्हें मनुस्मृति पर परिचर्चा आयोजित करने के लिए जेल भेजा गया, और उन्होंने ये बता कर जेल के अंदर भी इसकी परिचर्चा की, लोगों को बताया कि आंबेडकर ने 1927 में महाड़ में इस किताब को इसलिए जलाया था, क्योंकि यह दलितों और औरतों के विरोध में समाज व्यवस्था बनाने की बात करता है। यह समाज को वर्णों और जातियों में बांटने वाली व्यवस्था सुनिश्चित करता है।
जेल से बाहर आने के बाद भी सभी विद्यार्थियों ने अपनी जेल डायरी में घटना की शुरुआत करते हुए इस मनुष्य विरोधी पुस्तक और उसके रक्षक सत्ता को एक्पोज किया है। कमाल की बात है कि जिस पुस्तक को लगभग 100 साल पहले बाबा साहेब आंबेडकर ने जलाया था, उस पर आलोचनात्मक बात करने के लिए आज 13 लोगों को धार्मिक उन्माद फैलाने के आरोप में जेल भेज दिया जाता है, जहां से वे पूरे 16 दिन बाद बाहर निकल पाते हैं। इन विद्यार्थियों की उम्र महज 18 से 27 साल तक की है, लेकिन इनकी जेल यात्रा वाली इस डायरी को पढ़ कर लगता है कि इनकी समझदारी किसी वयस्क सामाजिक राजनीतिक कार्यकर्ता जैसी है।
“जेल का सफ़र” नाम से 13 विद्यार्थियों की सामूहिक डायरी का प्रकाशन भगत सिंह स्टूडेंट्स मोर्चा ने किया है। इन लोगों ने अपने 16 दिनों के बारे में जिस तरह से अभिव्यक्त किया है, उसे पढ़कर लगता है कि वास्तव में ये बच्चे भगत सिंह और आंबेडकर की विरासत के बच्चे हैं, जिन्होंने सिर्फ किताबें पढ़कर नहीं, बल्कि समाज को किताब मानकर भी उसकी पढ़ाई की है, जेल भी उनके लिए एक किताब ही था, जिसने उनके ज्ञान को और समृद्ध किया है, उन्हें और मजबूत बनाया है।
लगभग सभी ने अपने लेखों में इस बात को रेखांकित किया है, कि बेशक जेल जाना उनके लिए बेहद अप्रत्याशित और दुखद रहा है, शुरुआती दिनों में तो कई लोगों को लगा कि अब सब कुछ का अंत है, लेकिन जेल के अंदर उन्होंने समाज को और बेहतर तरीके से जाना और समझा।
सभी ने इसका जिक्र किया है कि भारत के लोकतंत्र के बारे में उन्होंने किताबों में पढ़ा ज़रूर है, लेकिन उनकी असलियत उन्हें इन 16 दिनों में अच्छे से समझ में आ गई। क्योंकि ये बच्चे एक साथ जेल गए थे इसलिए ऐसा अनुमान होता है कि सभी का अनुभव एक तरह का ही होगा। लेकिन पढ़ते समय यह अनुमान गलत साबित होता है, बेशक एक घटना से सबकी शुरुआत होती है, लेकिन जेल को सबने अपने अपने नजरिए से देखा, महसूस किया और बयान किया है।
घर वालों को समझाने से लेकर खुद को भावनात्मक रूप से संभालने का अनुभव सबका अलग-अलग है। जो आपको भी भावुक कर देता है। इन 13 विद्यार्थियों में क्योंकि 3 लड़कियां और 10 लड़के थे इसलिए महिला और पुरुष जेल का फर्क तो है ही।
एक और बात बहुत मार्केबल लगी कि सामाजिक कार्यकर्ता होने के नाते सभी को जेल जाने का डर सताता रहा है, लेकिन जेल जाने के बाद यह डर भी खत्म हो गया। इनमें सबसे छोटी कात्यायनी ने तो लिखा है कि “जब भी जाना पड़े, अब वो जेल जाने से नहीं डरेगी।”
अदालत में सिस्टम के सारे कारनामों पर मुस्कुराती सिद्धि से जज साहिबा ने ही पूछ लिया “तुम इतना मुस्कुरा क्यों रही हो?”
लड़कों में सबसे छोटे 19 साल के मुकेश लिखते हैं कि “इस मनोवैज्ञानिक खेल में हम ही जीत कर फिर से जनता के बीच मौजूद हैं।”
मोहित ने लिखा है कि जब उन्होंने देखा कि जज महिला है तो उन्हें उम्मीद बंधी कि मनुस्मृति के बारे में ये भी जानती ही होंगी, और ये हमें जेल जाने से रोक लेंगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। संभवतः ऊपर के दबाव में वे ऐसा नहीं कर सकीं।
सभी 13 लोगों ने जेल में अपने मानवीय व्यवहार से कैदियों का दिल जीत लिया। अंदर इन लोगों ने क्रांतिकारी गीत गाए, पढ़ाई की, क्लास भी चलाई, और खूब जीवंतता के साथ 16 दिन काटे। इन लोगों की यह परिपक्वता अचंभित करती है।
होली के समय में यह डायरी पढ़ना मेरे लिए वास्तव में रंगों की फुहार जैसा ही रहा, जिसमें सभी भावनात्मक रंग शामिल थे।
जेल के बाहर क्या चल रहा था इसकी भी थोड़ी सी झलक संपादकीय लेख में मिलती है, बेहतर होता कि कोई इसपर भी एक मुक्कमल लेख लिखता और बताता कि कितने शानदार तरीके से भगत सिंह स्टूडेंट्स मोर्चा ने बनारस के नागरिक समाज के साथ मिलकर 13 लोगों को रिहा कराया, यहां तक कि उनकी जमानत भरने का काम भी नागरिक समाज के लोगों ने ही किया। इसके बारे में लोगों को बताना बेहद महत्वपूर्ण था।
डायरी में कुछ कमियां भी हैं। जैसे एकाध लेखों को पढ़कर यह भी लगा कि उन्होंने अपनी भावनाओं को व्यक्त होने से रोका है और राजनीतिक बातों पर अधिक ज़ोर दिया है। इसके अलावा डायरी की सेटिंग में बहुत सारी दिक्कतें हैं। जैसे यह है तो डायरी, लेकिन इसका रूप पत्रिका जैसा है, जो खटक रहा है। लेखों में किसी की भी कोई हेडिंग नहीं होना खटक रहा है, यह “जेल अनुभव 1, 2, 3” के रूप में दिया गया है।
तीसरा यह कि लिखने वालों का परिचय दिए बिना डायरी बेहद अधूरी लग रही है। मसलन उनकी उम्र क्या है, वे क्या पढ़ाई कर रहे हैं क्या विषय पढ़ रहे हैं, इत्यादि। इस पृष्ठभूमि के बिना उनके अनुभव को समझना अधूरा सा लग रहा है। इस केस को ऑब्जर्व करने के कारण मुझे कुछ लोगों की उम्र और पृष्ठभूमि पता थी, लेकिन यह जानकारी डायरी का हिस्सा होना चाहिए।
लेखों के खत्म होने पर पन्ने खाली छूटे हैं, उन्हें तस्वीरों से भरा जा सकता था, तब यह मुक्कमल डायरी बनती। खैर.. इन तकनीकी कमियों के साथ भी एकदम युवा लोगों के जेल यात्रा की यह डायरी इस सड़ी हुई व्यवस्था की दुर्गंध को सामने लाने का काम तो करती ही है, उससे लड़ने के लिए सबको उनके जितना ही ताज़गी भरे युवा जोश से भी भरती है, जिसकी आज सबसे ज़्यादा ज़रूरत है। ज़रूर पढ़ी जाने वाली किताब है यह।
(सीमा आज़ाद पीयूसीएल से जुड़ी हैं)
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