नई दिल्ली। दिल्ली दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों में चौथे नम्बर पर है। दुनिया के सबसे प्रदूषित 20 शहरों में से 13 शहर भारत से हैं। एक देश के बतौर भारत प्रदूषण के मामले में 131 देशों में आठवें नम्बर पर आता है। इन सामान्य ज्ञान की बातों को यदि हम वायु गुणवत्ता के सूचकांकों में रखें, और भारत द्वारा अंतर्राष्ट्रीय मानकों के मद्देनजर स्वीकार किये गये मानदंडों पर रखें तब इस समय दिल्ली की स्थिति भयावह खराब की श्रेणी में आती है और सूचकांकों की सीमाओं का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता।
वायु गुणवत्ता सूचकांक में सबसे अंतिम हिस्सा जिसे गंभीर माना जाता है, वह 401-500 है। अब यदि मीडिया की खबरों को पलटें, तो हम दो दिन पहले दिल्ली के आनंद विहार में इसे 999 गिन रहे होते हैं। दिल्ली की ज्यादातर जगहों में यह दो दिन से 400 से ऊपर गिना जा रहा है।
यदि हम भारत सरकार द्वारा जारी 31 अक्टूबर, 2023 की प्रेस विज्ञप्ति को देखें तो वहां पिछले 10 महीनों में पिछले 6 वर्षों की तुलना में (कोविड प्रभावित 2020 छोड़कर) सर्वश्रेष्ठ सूचकांक दर्ज हुआ है और इस प्रकार दिल्ली-एनसीआर की वायु गुणवत्ता में अपेक्षाकृत सुधार की एक निरंतर प्रवृति देखी गई। ध्यान रहे कि यहां मुख्यतः वायु सूचकांक की गिनती का आधार पीएम 2.5 और पीएम 10 को अधिक बनाया गया है और उसकी सांद्रता की गिनती की गई है। इस संबंध में, यह सच है कि पिछले साल अक्टूबर के अंतिम हफ्तों में ग्रैप-3 लागू कर दिया गया था। इस साल यह काम एक हफ्ते बाद हो रहा है।
यहां यह देखना जरूरी है कि उपरोक्त अवस्थिति को पाने में प्रदूषण निवारक उपाय किस हद तक कारगर रहे। पहली बात तो यह कि इस बार पश्चिमी विक्षोभ के असर से बारिश और हवा का बहाव बना रहा। दूसरा, देर से मानसून आने के कारण इससे हवा का दबाव और बहाव अक्टूबर के अंत तक बना रहा है। तीसरा, मानसून की वजह से असामान्य बारिश के साथ-साथ अगस्त और सितम्बर तक इसका असर बना रहा। जब भी इसका असर कम या खत्म होने की ओर गया, दिल्ली का प्रदूषण असर बढ़ने लगा।
इसके साथ-साथ देर से मानसून आने की वजह से पंजाब और दिल्ली में पराली जलाने की घटनाएं भी देर से शुरू हुई हैं। निश्चय ही, जैसा कि मीडिया में खबर आई कि इस बार पराली जलाने की घटनाएं कम हुई हैं, का भी असर रहा है। लेकिन, जैसे ही हवा का बहाव कम हुआ और ठंड का असर बढ़ा है, हवा में भारी और हल्के कणों के साथ प्रदूषण बढ़ाने वाली गैसों की मात्रा भी बढ़ने लगी। ऐसे में देखना यह है कि प्रदूषण घटाने वाले उपाय और प्राकृतिक कारकों में किसकी भूमिका अधिक है।
यहां यह जान लेना चाहिए कि प्रदूषण के कारक कौन से हैं। औद्योगिक गतिविधियां पार्टिकुलेट मैटर अर्थात पीएम-2.5 और पीएम-10 के साथ-साथ नाइट्रोजन डाइऑक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड, ओजोन-3, कार्बन डाइऑक्साइड और कार्बन मोनोऑक्साइड हवा में डालती हैं। भोजन बनाने की प्रक्रियाएं भी वाष्पशील कार्बनिक यौगिक का उत्सर्जन करती होती हैं। परिवहन से औद्योगिक उत्सर्जन के साथ-साथ हाइड्रोकार्बन के यौगिक हवा में घुलते हैं।
कचरा जलाने, जो दिल्ली में एक आम घटना है और यहां प्रतिदिन 9500 टन कचरा निकलता है, से कार्बन के खतरनाक यौगिक हवा में घुलते रहते हैं। निर्माण कार्य बड़े पैमाने पर पार्टिकुलेट मैटर के साथ-साथ विभिन्न रासायनिक पदार्थों और डंप करने की समस्या से ये धरती और आसमान दोनों को ही गंदा करते होते हैं। दिल्ली में यमुना नदी के बहाव में बने बाधकों में एक तो खुद इस नदी पर निर्माण था ही, इसके कचरे की डंपिंग ने भी बाढ़ की स्थिति बनाने में एक भूमिका निभाई। खेती की विविध गतिविधियों में सबसे अधिक प्रदूषण कार्बन के यौगिकों का उत्सर्जन है।
दिल्ली के संदर्भ में प्रदूषण से जुड़े कुछ तथ्यों को डाउन टू अर्थ में गुरिंदर कौर के लेख ‘दिल्ली, कंट्रोलिंग एयर पॉल्यूशन इज इन योर ओन हैंड्स’ से देखते हैं। दिल्ली में पंजीकृत गाड़ियों की संख्या 2000 में 34 लाख थी। 2021-22 में यह संख्या 1 करोड़, 22 लाख, 50 हजार हो गई। इन गाड़ियों की वजह से ओजोन गैस से होने वाला प्रदूषण खतरनाक तरीके से बढ़ा है। यह मुंबई, हैदराबाद, कोलकाता और दिल्ली- तीनों शहरों में दिख रहा है।
सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरन की रिपोर्ट, 2022 के अनुसार 2021 की तुलना में, दिल्ली में गाड़ियों के वजह से प्रदूषण 33 प्रतिशत बढ़ा है। यही स्थिति अन्य प्रदूषकों की भी रही। इसी के रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली के वायु प्रदूषण में 70 प्रतिशत हिस्सेदारी उद्योग और गाड़ियों की वजह से है।
अभी हाल में सफर द्वारा जारी आंकड़े भी यही बता रहे हैं। इसके साथ-साथ दिल्ली-एनसीआर में कोयला खपत को देखें, तो यह 17 लाख टन प्रतिवर्ष है। पराली एक मौसमी असर हो सकता है, और यदि है भी तब भी यह प्रदूषण का मुख्य कारक नहीं है। निश्चित ही यह एक मौसमी भागीदार है, इससे अधिक नहीं है।
दिल्ली के प्रदूषण को खत्म करने के दावे, वादे आदेश तो हम खूब देखते हैं। हवा की सफाई से लेकर यमुना की सफाई के लिए तरह तरह के उपाय और आदेश, कार्यान्वयन के दावे में देख रहे हैं। इसमें कुछ निश्चित ही कारगर हैं। लेकिन, दूरगामी असर वाले प्रयास कम ही दिखते हैं।
अभी हाल ही में दिल्ली सर्वोच्च न्यायालय ने यहां के वन विभाग को फटकार लगाई कि वे वनों का विस्तार नहीं कर रहे हैं। लेकिन इसी न्यायालय के पूर्व के आदेशों में कहा गया था कि हम ‘विकास’ के लिए कुछ पेड़ों की कटाई या पेड़ों का विस्थापन कर सकते हैं।
दिल्ली का रिज, जो दुनिया के सबसे पुराने पठारी बनावटों में से एक है, का एक बड़ा हिस्सा दिल्ली मेट्रो विकास की भेंट चढ़ गया। इसी तरह से दिल्ली-हरियाणा से सटे इलाकों में अरावली रेंज में जमीनों, पत्थरों की लूट और बर्बादियों ने यहां के पर्यावरण को गंभीर नुकसान पहुंचा चुका है। अब इसी अरावली रेंज को निजी कंपनियों को देकर एक बार फिर विकास का सब्जबाग दिखाया जा रहा है।
यह एक अजीब संयोग है कि दिल्ली में दो सत्ता एक साथ काम कर रही हैं। केंद्र में भाजपा की सरकार और राज्य में आप की सरकार। दोनों के बीच अधिकारों के सवाल को लेकर काफी विवाद बना और अंततः केंद्र की सरकार ने अध्यादेश के माध्यम से यहां के शासनाधिकार पर अपना दावा और मजबूत कर लिया। इस बीच, राज्य में आप की सरकार के विभिन्न मंत्रियों, नेताओं और खुद मुख्यमंत्री पर भी गंभीर आरोप तय किये गये और उन्हें एक के बाद एक करके गिरफ्तारी और जांच पड़ताल के घेरे में लाया गया।
एक बहुमत की सरकार अब पतन की ओर जाते हुए दिख रही है। ऐसे में, निश्चय ही यह सवाल गंभीर हो उठता है कि यहां के लोगों को प्रदूषण के जहर से मुक्त करने का कार्यभार किसके जिम्मे आता है और इस दिशा में क्या कदम उठाये जा रहे हैं। दिल्ली में पर्यावरण और प्रदूषण का सवाल केंद्र बनाम राज्य के बीच विवाद का मसला बना हुआ है।
पिछले दिनों जब दिल्ली राज्य के पर्यावरण मंत्री गोपाल राय ने बयान दिया कि अधिकारी उनकी बात नहीं सुन रहे हैं, तब यह मसला और भी गंभीर होता हुआ दिख रहा है। गोपाल राय का यह बयान उनकी निराशा और तथ्यों से मुंह मोड़ने वाला बयान ही लग रहा है- “दिल्ली का प्रदूषण दिल्ली से नहीं आता है। दिल्ली के बाहर के प्रदूषण स्रोत अंदर के स्रोतों की तुलना में दिल्ली के प्रदूषण से दोगुना योगदान दे रहे हैं। दिल्ली सरकार युद्ध स्तर पर काम कर रही है।”
दरअसल सच्चाई इससे इतर है। दिल्ली की वायु गुणवत्ता साल के कुछ ही दिन ठीक रहती है। यही कारण है कि यहां सांस की बीमारियां पिछले 20 सालों में लगातार बढ़ती जा रही हैं और जानलेवा हो रही हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार यहां अधिकांश बच्चों को सांस की कोई न कोई समस्या जीवन भर के लिए लग ही जाती है।
दरअसल, प्रदूषण रोकने और पर्यावरण को ठीक रखने के लिए नियामक संस्थान राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण की भूमिक अभी प्रभावी नहीं हो पाई है। जयराम रमेश के शब्दों में यह ‘कमजोर’ है।
जीवन के लिए सबसे आधारभूत जरूरतों में भोजन और सांस सबसे जरूरी होता है। भारत में इन दोनों ही मोर्चों पर बेहद खराब स्थिति है। हमारी सरकारें भले ही, भूख के सूचकांक को नकार दें, हवा की गुणवत्ता के लिए किसी और को दोषी ठहरा दें, लेकिन सच्चाई तो हमारे सामने है। हवा में जहर घुला हुआ है और वह हमारे फेफड़ों में मौत बनकर हर सांस के साथ घुस रहा है।
जरूरत है इस मसले पर पहलकदमी की और जीवन के अधिकार के लिए जोर से बोलने की। बयानबाजियां सिर्फ भुलावे में रखती हैं, इसमें कभी नहीं उलझना चाहिए।
(अंजनी कुमार पत्रकार हैं।)
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