भारत में पर्यावरण का संकट साफ दिखने लगा है। आमतौर पर शांत रहने वाले अरब सागर में हलचलों की संख्या बढ़ने लगी है, और चक्रवातों की संख्या में बढ़ोत्तरी दिख रही है। बिप्रजाॅय इन्हीं हलचलों का परिणाम था। इसी तरह, एक तरफ असम में बाढ़ आई हुई है और हजारों लोग विस्थापित हो गये, उसी समय में उत्तर-प्रदेश के पूर्वी जिलों में लू का प्रकोप कहर ढा रहा था। इसने सैकड़ों लोगों की जान ले ली। जून का महीना मानसून के आगमन का समय होता है और इस महीने के अंत तक यह पूरे देश को बारिश से भिगो देता है।
लेकिन, अभी तक मानसून दूर है, देश के करीब 70 जिले मानसून की पहुंच से दूर बने हुए हैं। यह आमजन के लिए एक मुश्किल भरी चुनौती बनकर सामने आ रहा है। इस संकट में विश्व स्तर पर पर्यावरण के साथ हो रही नाइंसाफियां एक भूमिका अदा कर रही हैं; हालांकि इसमें भारत जैसे देश की भूमिका उतनी अधिक नहीं है जितना इसका असर इस पर पड़ रहा है। आइए, जून, 2023 जो अभी खत्म नहीं हुआ है, का एक जायजा लें।
सूखे की स्थिति
जून, 2023 का तीसरा हफ्ता जाने वाला है और अभी भी देश के 718 जिलों में से 511 जिले बारिश के इंतजार में हैं। सबसे बुरा हाल उत्तर-प्रदेश का है, जिसके 38 जिलों में से 28 जिलों में एक भी बूंद बारिश नहीं हुई है। इस साल मानसून का आरम्भ 8 जून को हुआ है। 20 जून तक महज 85 जिलों में ही सामान्य वर्षा हुई है। यह महज 5 प्रतिशत है। इस समय तक मानसून का असर केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक और महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों में दिख रहा है। बिप्रजाॅय चक्रवात की वजह से देश के पश्चिमी हिस्सों में कुछ बारिश देखी गई है। हालांकि जितना अनुमान मौसम विभाग ने लगाया था, इससे होने वाली बारिश का दायरा उतना नहीं फैला है।
इसी तरह बिप्रजाॅय और मानसून के दबाव से उत्तर-पूर्व और उत्तराखंड में बारिश की संख्या में बढ़ोत्तरी देखी जा रही है। उत्तर-प्रदेश, बिहार, झारखंड, उड़ीसा का बड़ा हिस्सा, मध्य-प्रदेश और छत्तीसगढ़ में स्थिति सबसे अधिक बदतर बनी हुई है। यहां जिन इलाकों में बारिश का क्षेत्र बताया गया है, उसमें भी बारिश या तो सामान्य से ज्यादा हुई है या सामान्य से कम। यदि हम मौसम विभाग के जून महीने के आंकड़ों को देखें और उसे खबरों के साथ मिलाएं, तब हमें बारिश के संदर्भ में बिप्रजाॅय का असर ज्यादा दिखेगा और मानसून का असर कम दिखेगा।
पिछले 20 सालों में से दस साल ऐसे गुजरे हैं जिसमें जून के महीने में सामान्य से कम बारिश हुई है। इस साल के जून महीने की तरह ही 2009, 2012, 2015 और 2019 में बारिश कम देखी गई। इसका सीधा असर धान और अन्य फसलों की बुआई पर पड़ रहा है। डाउन टू अर्थ सात राज्यों का एक आरम्भिक सर्वेक्षण किया है जिसके अनुसार पिछले साल की तुलना में खरीफ की 30 प्रतिशत बुआई कम हुई है।
सूखे की स्थिति का अनुमान मौसम विभाग ने पहले ही कर लिया था। लेकिन, सरकार इस दिशा में महज खानापूर्ती करने वाले उपायों के बारे में बयान देने का ही सहारा लिया।
सरकार ने खरीफ की फसलों के लिए निहायत गैर-जिम्मेदाराना तरीके से कृषि उत्पादों का समर्थन मूल्य जारी किया। कुछ ऐसी फसलों पर समर्थन मूल्य बढ़ा दिया गया जिसकी खरीददारी खुद सरकारी संस्थान कुल उत्पाद का महज 1 से 2 प्रतिशत ही करते हैं।खासकर, दलहन की खरीद। केंद्रीय वित्त मंत्री किसानों से मोटे अनाज के उत्पादन पर जोर देने वाला भाषण दे रही हैं लेकिन इसके लिए किसानों को जो बाजार मूल्य मिलना चाहिए, उसका समर्थन मूल्य और उसकी खरीद दोनों की ही स्थिति बदतर बनी हुई है।
नाइट्रोजन और यूरिया की बढ़ती खपत के अनुपात में उत्पादन में बढ़ोत्तरी न होने की स्थिति में मोटे अनाज के उत्पादन का विकल्प ही अब सामने दिख रहा है। यह सिर्फ एक फौरी सलाह जैसा दिख रहा है जबकि जरूरत है बदलते मौसम में बढ़ते कृषि संकट को लेकर एक मुकम्मल योजना निर्माण की। जिसके आसार इस सरकार की नीतियों में नहीं दिख रहे हैं।
बाढ़ का कहर
ऐसे तो भारत और पूरे दक्षिण एशियाई देशों में ही सामान्य से कम बारिश के आसार हैं। लेकिन कुछ इलाकों में अचानक तेज बारिश की संभावनाएं भी बनी हुई हैं, खासकर पहाड़ के क्षेत्रों में। पहाड़ में होने वाली बारिश का पानी तेज गति से नीचे उतरता है जिससे निचले क्षेत्र भी इसके प्रकोप में आ जाते हैं। जून के महीने में ऐसी ही जोरदार बारिश असम में हुई है जो सामान्य से 30 फीसदी ज्यादा है। 20 जून तक असम के 10 जिले बाढ़ की चपेट में थे। लगभग 33 हजार लोगों को सुरक्षित स्थान पर ले जाया गया। बाढ़ प्रभावित जिलों में से लखीमपुर और डिब्रूगढ़ सर्वाधिक प्रभावित जिले थे।
असम में साल भर की कुल बारिश का 10 प्रतिशत महज 10 दिनों के अंदर हो गया। लखीमपुर में 22 जून को सामान्य से 147 फीसदी और बरपेटा में 680 फीसदी बारिश का रिकॉर्ड दर्ज किया गया। 21 जून तक असम में एक लाख से अधिक लोग बाढ़ की चपेट में आ चुके थे। असम में पिछले साल भी बाढ़ की स्थिति बदतर थी और इस संदर्भ में खुद मौसम विभाग और स्वतंत्र अध्येताओं ने नदियों में भर रहे गाद और बड़े बांधों के निर्माण के संदर्भ में अपनी रिपोर्ट दे चुके हैं।
हिमालय से तेज गति से उतरता बारिश का पानी और राज्य में हो रही बारिश नदियों के किनारों को तोड़ देने और बाढ़ के फैलते जाने के बारे में पिछले 30 सालों से काफी कुछ कहा और लिखा जा रहा है, लेकिन हालात में बदलाव होता हुआ नहीं दिख रहा है। मानसून का पहाड़ के इलाकों में संघनित होना और सामान्य से अधिक बारिश में बदल जाने की घटना में बढ़ोत्तरी पर्यावरण संकट को चिन्हित कर रहा है। पिछले साल पाकिस्तान में ऐसे ही इलाकों में हुई तेज बारिश ने वहां एक राष्ट्रीय विभीषिका का रूप ले लिया था। यह स्थिति हम अपने देश के ऐसे ही इलाकों में बढ़ते हुए देख रहे हैं।
लू का प्रकोप
जून, 2023 के मध्य में बिहार और उत्तर प्रदेश का पूर्वी हिस्सा लू की चपेट में बना रहा। खासकर जब बलिया, देवरिया, गोरखपुर और गाजीपुर में लू से मरने की खबर स्थानीय अखबारों से निकलकर राष्ट्रीय अखबारों तक पहुंची, तब तक मरने वालों की संख्या का आंकड़ा 200 पार कर चुका था। जिलों के प्रशासन लू से मरने वालों की संख्या के बारे में बताने से कतराते रहे। प्रशासन इन मौतों को बीमारी के सामान्य लक्षणों के साथ जोड़ रहा था। जबकि उत्तर प्रदेश सरकार पूर्वी उत्तर-प्रदेश के जिला प्रशासन और अस्पतालों को सभी तैयारी पूरी करने का आदेश जारी कर रहा था।
प्रदेश में स्वास्थ्य की सच्चाई एक ऐसी बदतर तस्वीर पेश करती है जिसमें न सिर्फ डाक्टरों की कमी है, पूरा स्वास्थ्य विभाग ही धीरे- धीरे अनौपचारिक नियुक्तियों के बल पर घिसट रहा है। नियमित डाक्टर और नर्सों की भारी कमी ने लू के प्रकोप को और अधिक बढ़ा दिया। पूरे पूर्वांचल में कहने के लिए कई मेडिकल काॅलेज और संस्थान हैं लेकिन अभी भी वहां की जनता के लिए बीआरडी मेडिकल काॅलेज, गोरखपुर और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय का मेडिकल संस्थान ही सबसे अधिक उपयुक्त स्वास्थ्य केंद्र हैं। जिला और तहसील स्तर के स्वास्थ्य केंद्र की स्थिति बदतर बनी हुई है।
उत्तर प्रदेश में अप्रैल के महीने से ही लू का प्रकोप शुरू हो गया था। मई के महीने में पश्चिमी विक्षोभ का असर उत्तर प्रदेश तक रहा जिससे मई के दूसरे हफ्ते तक तापमान 40 डिग्री सेल्सियस से नीचे बना रहा। मई के तीसरे हफ्ते से तापमान में वृद्धि शुरू हुई और जून के मध्य तक यह 40 डिग्री सेल्सियस से ऊपर बना रहा। जून के दूसरे हफ्ते में उमस बढ़ने से तापमान का प्रकोप जानलेवा साबित हुआ। इस स्थिति के बारे में मौसम विभाग ने पहले ही चेतावनियां जारी कर रखी थीं।
उत्तर प्रदेश सरकार इस संदर्भ में क्या नीति घोषित की से कहीं अधिक जरूरी यह देखना है कि इस संदर्भ में उसने क्या ठोस निर्णय लिया। खासकर दो संदर्भों में नीति और उस पर कार्रवाई को देखना जरूरी है। पहला, तो स्वास्थ्य संबंधी और दूसरा कृषि से संबंधित। जिस समय उत्तर प्रदेश में लू का प्रकोप बढ़ा, उसी समय धान के बीज की नर्सरी लगाई जाती है। नर्सरी के बनने तक तापमान में गिरावट और उमस में बढ़ोत्तरी होती है।
जून के पहले हफ्ते के अंत और दूसरे की शुरुआत में बारिश के साथ धान की रोपाई शुरू हो जाती है। फिलहाल धान की बुआई की स्थिति बदतर है और इसके लिए ग्राउंड वाॅटर के प्रयोग पर ही निर्भरता देखी जा रही है। अब तापमान में थोड़ी कमी दिख रही है, लेकिन बारिश की स्थिति में सुधार की गुंजाइश कमजोर मानसून की मेहरबानी पर ही टिकी हुई है।
चक्रवात
भारत में चक्रवातों के आने की रिकॉर्ड काफी पुराना है। भारत का निचला हिस्सा दो सागरों के साथ जुड़ा हुआ है। बंगाल की खाड़ी और अरब सागर। बंगाल की खाड़ी सर्वाधिक प्रभावित क्षेत्र रहा है। यह इसकी भागौलिक स्थिति और उसमें चलने वाली समुद्री हवाओं के चलते भी है। इसमें बनने वालों की चक्रवातों की संख्या में कई बार गिरावट भी देखी गई है, लेकिन पिछले दस सालों में इसमें तेज बढ़ोत्तरी देखी जा रही है। लेकिन, सर्वाधिक चिंताजनक बात अरब सागर से उठने वाले चक्रवातों में बढ़ोत्तरी की है।
‘द हिंदू’ में डीवीएलएस प्रनथि और विग्नेश राधाकृष्णन ने डाटा विश्लेषण के सहारे बताया है कि 1891 से 1962 तक प्रतिवर्ष दो से कम विक्षोभ दिखते हैं। इसके बाद 2020 तक इसकी संख्या में बढ़ोत्तरी देखी जाती है और यह प्रतिवर्ष 3 से अधिक हो जाता है। इसका एक सीधा कारण विश्व तापमान वृद्धि है जिसकी वजह से न सिर्फ संख्या में बढ़ोत्तरी हुई है बल्कि इसकी आक्रामकता में पिछले के मुकाबले में 30 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है।
जून के मध्य में आया चक्रवात ब्रिपजाॅय अनुमान से अलग रास्ता बदलते हुए गुजरात के तटीय हिस्से पर उतरा और वह राजस्थान, कश्मीर, हिमांचल, पंजाब और दिल्ली तक तेज हवा और बारिश की असर के साथ फैल गया। इसका आना उस समय में हुआ है जब इन इलाकों की ओर मानसून नीचे से ऊपर की ओर बढ़ रहा होता है। इससे मानसून की गति में बाधा पहुंची है, और इससे असामान्य बारिश की संभावनाओं को, खासकर पहाड़ों में, बढ़ा दिया है। इससे जान का नुकसान ना के बराबर ही हुआ है, लेकिन इसका अन्य असर का अध्ययन अभी बाकी है।
लेकिन, जो चिंतनीय बात थी वह यह कि इस चक्रवात की उम्र 126 घंटे की थी जो अरब सागर में बनने वाले चक्रवातों में सबसे अधिक था। यदि हम अरब सागर की प्रकृति को देखें, और इसके इतिहास का अध्ययन करें तब चक्रवातों की संख्या में बढ़ोत्तरी और उसकी प्रचंडता एक नये अध्याय को खोलते हुए दिखता है। यदि हम इतिहास के पन्नों में जायें, तब भारत का यह हिस्सा दुनिया से जुड़ने के एक दरवाजे की तरह दिखता है। खासकर, गुजरात और महाराष्ट्र के तटीय क्षेत्र न सिर्फ व्यापार के केंद्र थे, बल्कि भारत के सबसे प्राचीन सभ्यताओं के केंद्र भी थे। सबसे प्राचीनतम व्यापार के सूत्र मेसोपोटामिया और मिश्र की सभ्यातों के साथ जुड़ते हैं।
ये तटीय इलाके बौद्ध धर्म के केंद्र थे, और बाद के समय में हम वहां देवताओं की स्थली को बनते हुए देख सकते हैं। यह एक उथल-पुथल और आक्रामकता से भरे समुद्र के किनारों पर संभव नहीं है। अरब सागर में उठते और प्रबल बनते चक्रवात इस इतिहास को चुनौती देते हुए लग रहे हैं और वे हमारे वर्तमान में एक संकट बना रहे हैं। ये चक्रवात पर्यावरण में लूट और लोभ के चलते अंधाधुंध प्राकृतिक दोहन के ही परिणाम हैं।
आज जब नेशलन ग्रीन ट्रिब्यूनल को लगातार कमजोर बनाकर जंगल और जमीन को कॉरपोरेट को लूटने की खुल छूट दी जा रही है और समुद्री तटों को लगातार कचरा से पाटा जा रहा है, तब ऐसी स्थिति के न बनने की संभावना को हम कैसे इंकार कर सकते है। इन संदर्भो को इतिहास के साथ जोड़कर पढ़ने और इसे ठीक करने के लिए उपयुक्त रणनीति बनाने का समय अब हमारे सामने है।
(अंजनी कुमार पत्रकार हैं।)