Saturday, April 27, 2024

प्रदूषण पर सुप्रीम कोर्ट का आदेशः मी लॉर्ड! जड़ देखिए, जमीन नहीं

नई दिल्ली। दिल्ली के वायु प्रदूषण को लेकर 7 नवम्बर, 2023 को सुप्रीम कोर्ट ने कई सख्त टिप्पणियों के साथ-साथ कुछ दिशा निर्देश दिये हैं। इसमें खासकर पंजाब सरकार को पराली और उपज के संदर्भ में दी गईं हिदायतें चौंकाने वाली हैं। कोर्ट की ओर से कहा गया- “पंजाब में धान की फसल में जो वृद्धि देखी गई है उससे पानी का तल नीचे की ओर जा रहा है और यह बहुत तेज गति से हुआ है। बहुत से कुएं तो बेकार ही हो गये हैं। धान की जो खेती है, उसका उपभोग खुद पंजाब नहीं करता है, यह एक समस्या है। यह उनका (पंजाब के एडवोकेट जनरल) कहना है, और इस समय हम मानते हैं कि धान की खेती को क्रमवार बंद किया जाये और दूसरी फसल को उसकी जगह उगाया जाये, साथ ही केंद्र सरकार वैकल्पिक फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य के पक्ष पर काम करे, जैसा उसने धान की फसलों के लिए किया है।”

इस बहस में बात तब और भी बढ़ गई जब पंजाब की ओर से बोल रहे एडवोकेट जनरल ने एमएसपी की वजह से धान की खरीद के समय होने वाली स्मगलिंग का मसला उठाया और हरियाणा में भी धान की खेती के बारे में बताया। तब बहस धान की वैरायटी के बारे में होने लगी और यह कहा गया कि 15 साल पहले यह समस्या नहीं थी, यह समस्या खास वैरायटी की वजह से हुई है। कोर्ट का जोर धान की फसल उगाने को लेकर बना रहा। कोर्ट ने दिल्ली सरकार द्वारा उठाये गये कदमों की भी आलोचना की और दिल्ली-एनसीआर से जुड़े राज्यों के बीच समन्वय बनाने को कहा। कोर्ट ने कहा- ‘हम सिर्फ मौसम के हालातों पर ही राहत की उम्मीद नहीं कर सकते। हम चाहते हैं कि इससे जुड़े पक्षों और हमारे द्वारा इस संदर्भ में कही गई बातों पर तुरंत कार्रवाई करें।’

यहां हमें यह ध्यान रखना होगा कि दिल्ली के संदर्भ में प्रदूषण पर बात करते समय उन तथ्यों से मुंह नहीं मोड़ना चाहिए जिसमें स्थानीय स्रोत एक बड़ी भूमिका निभा रहे होते हैं। यहां लगभग सवा करोड़ गाड़ियां पंजीकृत हैं और एक अनुमान के अनुसार इसमें से 80 हजार गाड़ियां प्रतिदिन सड़क पर होती हैं। अन्य राज्यों से आने वाली गाड़ियों की संख्या अलग से है। दूसरे नम्बर पर निर्माण और औद्योगिक प्रदूषण है, इसमें यदि प्रतिदिन निकलने वाले कचड़े को जोड़ दिया जाये तो वह हजारों टन में पहुंच जाता है। पराली एक मौसमी कारक है, जो लगभग 20 दिन एक महत्वपूर्ण कारक में बदल जाता है।

यदि प्रदूषण के इन कारकों को देखा जाये, तो हमारे बहुत से शहर स्थानीय स्रोतों से ग्रस्त दिखते हैं और लगभग एक ही पैटर्न में प्रदूषित होते हैं। फसलों से होने वाला प्रदूषण, मुख्यतः जाड़ों में ही प्रभावी दिखता है। सुप्रीम कोर्ट इस बार जब दिल्ली के संदर्भ में टिप्पणी करते हुए कहा कि यह समस्या 15 साल पहले ऐसी नहीं थी, तब शायद यह बात भुला दी गई कि यहां पेट्रोल और डीजल से चलने वाली गाड़ियों से दिल्ली का आसमान साल भर जहरीला रहने लगा था।

1995 के बाद से, दिल्ली के आसमान को साफ करने के लिए कई सारे कदम उठाये गये। यहां कोयला से चलने वाले बिजली संयत्रों को बंद किया गया। इसके बाद यहां के उद्योगों को स्थानांतरित करने का दौर चला। इसके बाद सार्वजनिक वाहनों को सीएनजी गैस से चलाने के आदेश पारित हुए। और, साथ ही मेट्रो रेल को लाया गया। संभवतः इन सारे प्रयासों और इन प्रयासों को लेकर होने वाली आलोचनाओं पर कोर्ट ने ध्यान नहीं दिया। और, पिछले पांच सालों से पंजाब के किसानों की पराली जलाने को लेकर जो अनावश्यक जोर दिया जा रहा है, उस पर ही कोर्ट ने भी अपना ध्यान ज्यादा केंद्रित कर दिया।

कोर्ट द्वारा पंजाब की खेती को लेकर की गई टिप्पणियां, हिदायतों पर यदि काम होता है तो यह पंजाब की खेती की व्यवस्था में ही आमूल बदलाव लाने वाला होगा। क्या कोर्ट के आदेश, हिदायत और टिप्पणियों से पंजाब की खेती की व्यवस्था में बदलाव आ जायेगा? यहां यह बात ध्यान में रखनी होगी कि पंजाब में आज जो खेती है उसका निर्माण दो दौर में हुआ है। इसका इतिहास लगभग दो सौ साल पुराना है।

पंजाब की भागौलिक स्थिति शिवालिक रेंज और उससे निकलने वाली नदियों से बनती है जिस पर हिमालय और उत्तर-पश्चिम की समुद्री हवाओं से सीधा असर है। लगभग 10 हजार सालों में नदियों के प्रवाह में बदलाव ने यहां कई इलाकों को सूखा बना दिया और बहुत से इलाकों को उपजाऊ। पश्चिमी विक्षोभ का असर यहां की फसलों पर मानसून की तरह ही कई बार निर्णायक होता है।

ब्रिटिश काल में, अंग्रेजी हुकूमत ने भू-रणनीतिक कारणों और सेना की नई आपूर्ति व्यवस्था बनाने के लिए यहां बड़े पैमाने पर कैनाल बनाए और कैनाल कॉलोनियां बनानी शुरू कीं। यहीं से गेहूं और गन्ने की बड़े पैमाने पर पैदावार शुरू हुई। साथ ही धान की उपज भी होने लगी। इस संरचनागत विकास की वजह से ही यहां हरित क्रांति की अवधारणा 1960-70 के दशक में लाई गई और इन इलाकों पर जोर दिया गया।

हम फसलों के पैटर्न में होने वाले बदलाव को देख सकते हैं जिसमें 1980 के बाद के दौर में गन्ने की फसल की जगह धान ने लेना शुरू किया। केंद्र के सहयोग से कृषि वैज्ञानिकों ने धान की नई वैरायटी फिलीपीन्स के सहयोग से यहां पेश की और कम समय में अधिक उत्पादन वाली धान की खेती ने जोर पकड़ा।

फसल का पैटर्न बनने और बनाने में एक लंबा वक्त लगता है और इसका मूल आधार राज्य की व्यवस्था ही होता है। यहां सिर्फ किसानों का चुनाव या फसलों की उपयुक्तता ही नहीं होती है। खेती को एक औद्योगिक संरचना से जुड़ जाने की वजह से यह उपयुक्तता मुख्य तौर पर तकनीक का हिस्सा हो जाती है। यह उपभोग से अधिक बाजार पर निर्भर करती है। ऐसा लगता है कि कोर्ट की नजर में ये बातें छूट गई हैं। कोर्ट की टिप्पणियां एक तात्कालिक परिणाम की चाहत से प्रेरित लगती हैं। उसकी नजर में पंजाब के किसानों की बिगड़ती अर्थव्यवस्था और उसे दूर करने के लिए पंजाब के किसानों के आंदोलनों, मांगों की बातें नहीं आई हैं।

ऐसे भी, ऐतिहासिक तौर पर औद्योगिक क्रांति ने जितना समाज को बदला, उतना ही पर्यावरण को। इसने धरती के ताप में 1.5 डिगी सेल्सियस की वृद्धि की है। इस ताप वृद्धि में उद्योग की तुलना में खेती की भूमिका बेहद कम है। भारत में भी ऐसी स्थिति है। दिल्ली के प्रदूषण में खेती का हिस्सा भी अन्य की अपेक्षा काफी कम है। तथ्य हमें सत्य की ओर ले जाते हैं और सत्य एक ऐसे न्याय की मांग करते हैं जो तथ्य के अनुकूल हो और भविष्य को बेहतर बनाये। ऐसा नहीं होने पर, फिलहाल भविष्य में कोई सुधार होगा, ऐसा नहीं दिख रहा है।

(अंजनी कुमार पत्रकार हैं।)

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