दिल्ली से मुंबई तक हवा में फैला जहर, लोगों की सांसों पर ढा रहा कहर

नई दिल्ली। भारतीय आधुनिकता उपनिवेशिक औद्योगिक विकास के साथ जुड़कर आगे बढ़ी। अंग्रेजी हुकूमत ने सबसे पहले मध्यकाल के अंतिम दौर में, जब एक नये तरह की कारखाना उत्पादन व्यवस्था और साथ ही साथ वित्तीय संस्थानों का विकास हो रहा था, उसे रौंद डाला। वे भारत के कच्चे माल के दोहन पर अधिक जोर दे रहे थे। यहीं से भारत की परिस्थितिकी में एक निर्णायक हस्तक्षेप हुआ। यहीं से इतिहास में समय की अवधारणा के साथ विकास की उपनिवेशिक अवधारणा भी नत्थी हो गई।

इतिहास को विकास के आईने में देखने का सिलसिला समय के आगे और पीछे जाने के साथ भी जुड़ गया। अक्सर विकास को समय की प्रगतिशीलता और प्रतिगामिता के नजरिये से देखा गया। इस औद्योगिक विकास के मॉडल में जो लोग अनुकूल नहीं लग रहे थे, उन्हें नीची निगाह से देखने का नजरिया भी बनाया गया। और, ऐसे समुदायों को जो अपनी अस्मिता और जीविका को बचाकर रखने का प्रयास कर रहे थे, अपने संसाधनों पर दावा कर रहे थे.. ऐसे लोगों, समुदायों को विकास में एक अवरोधक की तरह देखा जाने लगा।

यदि हम भारत में पर्यावरण की सुरक्षा और संवर्धन का इतिहास देखें, तो जिन समुदायों को एक अवरोधक की तरह देखा जा रहा था, वे ही आज इसके सबसे बड़े संरक्षक की तरह दिख रहे हैं। यदि हम सुदूर जंगलों की ओर जाएं, या पहाड़ों की ओर, वहां सारी तबाहियों के बावजूद अब भी सांस लेने की गुंजाइश बची हुई है। इसका एक बड़ा श्रेय उन पर्यावरणविदों और जनआंदोलनों का है, जिनकी वहज से विकास की मनमानियां कम हुईं।

हालांकि, उन पर भयावह दमन किया गया और बहुत से कार्यकर्ता अपने जल, जंगल, जमीन को बचाने का खामियाजा कारावास में रहकर भुगत रहे हैं। बहुत से लोग जुल्म के शिकार हुए और बहुत से लोगों की जिंदगी खत्म कर दी गई।

विकास की इस अवधारणा का एक चित्र मोंटेक सिंह अहलूवालिया की पुस्तक ‘बैकस्टेज’ में मिलता है। जिसमें वह भारतीय पूंजी, निवेश, अतिरिक्त मूल्य और साम्राज्यवादी वित्तीय संस्थानों के बीच के जटिल रिश्तों के बारे में बात करते हुए एक सीधी बात भी कहते हैं, और वह है भारत का कच्चा माल, जो पहाड़ों और जंगलों में और उसके नीचे छुपा हुआ है।

मोंटेक सिंह अहलूवालिया लिखते हैं- ‘‘पीछे मुड़कर देखता हूं तो मुझे लगता है कि ऐसे संस्थानों के निर्माण पर थोड़ा और ध्यान देना चाहिए था, जिससे अच्छे प्रशासन को बल मिलता। मैं नीतियों में बदलाव को लेकर काफी सचेत था लेकिन एक अच्छी नीति के लिए एक सहयोगी संस्थानिक व्यवस्था की भी जरूरत होती है। वित्तीय क्षेत्र में सांस्थानिक सुधार का सचेत प्रयास किया गया। लेकिन, ये प्रयास सांस्थानिक कमजोरियों से दबे रह गये।”

वो आगे लिखते हैं कि “ऐसे कई क्षेत्र थे जिसमें सुधार की सख्त जरूरत थी, जिसमें ऐसी नियामक संस्थाएं थीं जो पर्यावरण और प्रदूषण से जुड़ी हुई थीं। इसमें से कुछ तो पूरी तरह से राज्यों के नियंत्रण में थीं, जैसे बिजली का वितरण। बाजार की व्यवस्था को अच्छे से चलाने के लिए इस विवादों को हल करने और इन्हें लागू कराने के लिए इनमें सुधार की सख्त जरूरत थी। और, ऐसे न्याय की व्यवस्था के काम करने में भी गहराई से सुधार की जरूरत थी। (पेजः 376)।’’

यहां जिस बाजार की व्यवस्था की बात की जा रही है उसमें सुधार का अर्थ पर्यावरण, वित्त से लेकर न्याय प्रणाली की व्यवस्था में बदलाव लाना है। पिछले दस सालों से मोदी सरकार जब भी भारत के पिछड़ेपन की बात करती है तब वह कांग्रेस और अन्य पार्टियों की सरकार के 70 साल के विकास की आलोचना करती है, और अपने विकास के लिए अहलूवालिया वाले मॉडल में ही एक आमूल बदलाव के प्रयास में दिखती है। जिसमें राज्यों और स्वायत्त संस्थानों, न्याय प्रणाली और जनसंगठनों की व्यवस्था, यहां तक कि विपक्षी पार्टियों की व्यवस्था को विकास में एक बाधक की तरह देखा जाता है।

मनमोहन सिंह के नेतृत्व में चली 10 साल की सरकार लोगों को ‘जंगल और गांवों से निकाल कर सभ्य बनाने के ऐतिहासिक कर्तव्य’ को निभा रही थी, वहीं अब मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ‘राष्ट्र निर्माण’ के महान कार्य में लगी हुई है, जिससे कि भारत विश्वगुरु में बदल जाये।

यदि हम पूंजीवाद के विकास और उसके इतिहास की अवधारणा पर एक नजर डालें, तब वह एक ऐसी सीधी सड़क की तरह दिखाई देता है जिसमें लोग, समुदाय, जंगल, पहाड़, नदी और सभी तरह के सामाजिक संस्थान निरंतर पुनर्परिभाषित होते हुए दिखते हैं। जो साम्राज्यवादी पूंजी है, वह अपनी अवधारणा से सभी कुछ को परिभाषित करते हुए उन सभी को अप्रासंगिक घोषित करते हुए चल रही है, जिसे या तो वह पसंद नहीं करती या उसकी पूंजी के हितों के अनुकूल नहीं बैठता।

उपनिवेशवादियों के लिए ‘राष्ट्रवाद’ की अवधारणा देशद्रोह था और ‘व्यक्ति’ की अवधारणा अराजकतावाद। इसी तरह, बाजार व्यवस्था की अवधारणा के बाहर का सारा समाज ‘बर्बर समाज’ अर्थात पिछड़ी किसानी की आदिम व्यवस्था थी।

लेकिन, दूसरे विश्व युद्ध के बाद जब एक बार फिर औद्योगिक गतिविधियों ने लंदन को अपनी गिरफ्त में लिया और पूरा शहर काले धुएं में ढक गया, तब इन्हीं उद्योगों को यह औद्योगिक समाज या तो सुदूरवर्ती इलाकों में ले गया या इसे उपनिवेशों की ओर ले गया। पर्यावरण का मसला वहां सिर्फ मध्यवर्ग ही नहीं औद्योगिक समूह के लिए जरूरी हो गया था। हम उद्योगों को कथित तीसरी दुनिया की ओर खिसकते हुए देख सकते हैं।

आज, जब हम दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों में अपने शहरों को गिना जाते हुए देखते हैं, तब इसके लिए अपने देश की सिर्फ बाजार व्यवस्था ही मुख्य कारण नहीं है। इसमें साम्राज्यवादी देशों द्वारा लादी गई वे उद्योग व्यवस्थाएं भी हैं, जिससे हमारा पर्यावरण और सामाजिक जीवन गहरे प्रभावित हो रहा है। और, अब वह हमारी सांस में घुलते हुए हमारे जीवन जीने के अधिकार को कम करता जा रहा है।

चाहे वह दिल्ली हो या मुंबई, ये शहर अपने परिवेश और भौगेलिक अवस्थितियों में अलग-अलग होते हुए भी जहरीले हवा के बोझ तले दब गये हैं। इस मसले पर अनावश्यक राजनीतिक विवाद, जो मुख्यतः केंद्र बनाम राज्य, खेत बनाम उद्योग, संस्थान बनाम व्यक्ति के रूप में पैदा होते हुए दिख रहे हैं, दुखद है।

आज खेत भी औद्योगिक संस्थानों के ही हिस्सा बन चुके हैं। ये खेत औद्योगिक उत्पाद के बड़े खरीदार हैं और अपने उत्पादन से ये शहरी उपभोक्ता के लिए औद्योगिक उत्पादन के अधारभूत कच्चा माल का निर्माण करते हैं। आज दोनों ही शहर अपने प्रदूषण के लिए अपनी पारिस्थितिकी कारणों की वजह से प्रदूषित हैं। और, यदि हम वैश्विक अवधारणा में कहें, तो यह औद्योगिक समाज के लंबे इतिहास के अनिवार्य परिणाम की वजह से है।

दरअसल, पर्यावरण और परिस्थितिकी जीवन, इतिहास और विकास की एक नई अवधारणा की मांग करता है। यह प्रकृति और मनुष्य के बीच के रिश्तों के साथ साथ मनुष्य और मनुष्य के बीच के रिश्तों में एक आमूल बदलाव वाली अवधारणा की मांग करता है। बाजार व्यवस्था न सिर्फ खुद की सर्जना और साधानों से इंसान को अलग करता है, उसे वह पर्यावरण और परिस्थितिकी से भी अलग करता जाता है।

एक आम इंसान, चाहे वह दिल्ली में है या मुंबई में, एक हताशा के साथ हवा में घुले जहर को देखता है और उसी में सांस लेने के लिए अभिशप्त होता है। ठीक वैसे ही, जैसे वह खून चूसने वाली फैक्टरी में काम करने के लिए उसके गेट पर जाकर खड़ा हो जाता है और संकेत मिलते ही काम में जुट जाता है।

यह बिडम्बना ही है कि एक तरफ हम जहर घुली हवा में सांस ले रहे होते हैं, दूसरी तरफ मीडिया प्रदूषण की खबरों से भरा होता है और बाजार में हवा साफ करने वाली मशीनें उसी तेजी के साथ बिक रही होती हैं। सारे प्रदूषण के साथ बाजार व्यवस्था बदस्तूर काम में लगी रहती है। जरूरी है कि विकास की उस रैखिक अवधारणा को चुनौती दिया जाये जिससे हमारी हवा में जहर की मात्रा बढ़ती ही जा रही है और जिंदगी कम होती जा रही है।

(अंजनी कुमार पत्रकार हैं।)

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