सीओपी-28: जंगलों के विनाश पर चुप्पी और कार्बन उत्सर्जन पर सहमति की तलाश

नई दिल्ली। सीओपी-28 की मीटिंग का अंतिम दौर चल रहा है। आने वाले शुक्रवार तक मीटिंगों का दौर खत्म हो जाएगा। इसके बाद निर्णयों की व्यावहारिकता और उसे कार्यकारी बनाने का काम शुरू हो जाएगा। फिलहाल, बहस, विवादों और आम सहमति तक पहुंचने की मशक्कत की गहमागहमी अभी चल रही है।

सीओपी-28 की मेजबानी और उसकी अध्यक्षता करते हुए जब अल जुबैर ने कार्बन उत्सर्जन को लेकर फॉसिल ऊर्जा स्रोतों के उपयोग के ‘फेज आउट’ का तर्क और कार्यक्रम रखा, तो वहां विवाद पैदा हो गया।

2030 और 2050 की दो टाइमलाइन पर काम करने के पुराने प्रस्तावों का जब नवीनीकरण नये तथ्यों के साथ किया जाने लगा तब यह सवाल उठ खड़ा हुआ कि ‘फेज आउट’ की वैज्ञानिक प्रक्रिया क्या होगी? खुद अल जुबैर पर सीओपी के बहाने तेल कंपनियों का जुटान करने और उसे व्यावसायिक उद्देश्यों को पूरा करने के अवसर में बदल देने का आरोप भी लगा।

पेरिस में हुई सीओपी मीटिंग के कृषि से जुड़े प्रस्तावों को भी इस मीटिंग में जोड़ दिया गया। सारा जोर कार्बन उत्सर्जन और मीथेन के स्रोतों को लेकर बनने लगा। इस मीटिंग में यह भुला दिया गया कि औद्योगीकरण की प्रक्रिया न सिर्फ असमान और भेदभावपूर्ण है बल्कि साम्राज्यवादी देशों द्वारा नियंत्रित भी है।

पिछले 150 सालों के इतिहास के हवाले से बार बार कार्बन उत्सर्जन और धरती के गर्म होने को एक साथ जोड़कर बताया तो जा रहा था। लेकिन, यहां जिस बात को छोड़ दिया जा रहा था, वह उपनिवेशीकरण और पूंजीवादी साम्राज्यवादी प्रक्रियाएं थीं। औद्योगिक उत्पादन के सबंध देशों के स्तर पर न सिर्फ विभाजन की स्थिति में हैं, बल्कि ये नियंत्रणकारी भी हैं।

विभाजित दुनिया में धरती की चिंता एक वाजिब चिंता है, लेकिन इसे बचाने को लेकर एक आम सहमति तक पहुंचना आसान नहीं है। पूंजीपतियों के बीच की होड़ उनके मुनाफे की चिंता और उसे सही जगह तक पहुंचा देने के बिना हल होना संभव नहीं है।

कार्बन उत्सर्जन के मामले में भारत और चीन ने इतिहास का हवाला देते हुए अपने योगदान की सीमाओं को चिन्हित किया और बताया कि कुल कार्बन उत्सर्जन में हमारा न सिर्फ कम योगदान है बल्कि इस मसले पर वे अपने हितों का त्याग नहीं कर सकते।

भारत ने सीओपी के पुराने प्रस्तावों का हवाला देते हुए ‘रिन्यूएबल ऊर्जा’ के स्रोतों के बढ़ते उपयोग का प्रतिशत भी दिखाया। इस मामले में, भारत का आंकड़ा बेहतर दिख रहा था और कार्बन उत्सर्जन के कुल प्रतिशत में वह सीओपी के ही सूचकांक में ऊपर की ओर गया है।

अन्य देश भी, इस मसले पर कार्बन उत्सर्जन को लेकर सामान्य रुख अपनाने को लेकर आलोचना कर रहे थे और एक बेहतर उपाय के बारे में बात कर रहे थे। कार्बन उत्सर्जन को लेकर सीओपी-28 की आरम्भिक मीटिंग में पास हुए प्रस्ताव में ‘फेज आउट’ पदावली को हटाने का रास्ता खुलता गया। अब जबकि मीटिंगों का अंतिम दौर चल रहा है, इस पदावली की जगह पर ‘फेज डाउन’ का चुनाव उपयुक्त माना जा रहा है।

यह माना जा रहा है कि इस नयी पदावली से भारत जैसे देशों में रिन्यूएबल ऊर्जा स्रोतों के उपयोगों को बढ़ाने के प्रयासों को अधिक तरजीह दी जाएगी और यहां के विकास की जरूरी ऊर्जा के लिए निरपेक्ष तौर पर बढ़ रहे कार्बन उत्सर्जन की आलोचना नहीं की जाएगी। यह बात, चीन और दक्षिण एशियाई देशों के लिए भी ठीक रहेगी। साथ ही ब्राजील जैसे देशों में औद्योगिक विकास को लेकर चल रही आलोचना पर भी रोक लगेगी।

सीओपी-28 में, ज्यादा जोर कार्बन उत्सर्जन को लेकर रहा है जिसमें खासकर कोयला, गैस और पेट्रोलियम का प्रयोग मुख्य था। यह माना जा रहा है कि इनके उपयोग से पैदा हुए कार्बन उत्सर्जन ने धरती का तापमान बढ़ा दिया है। और, अब यह खतरनाक स्तर पर जा रहा है।

पिछले 150 सालों में तापमान में वृद्धि 1.5 डिग्री सेल्सियस मानी जा रही थी। लेकिन, पिछले कुछ सालों और खासकर इस वर्ष के ताममान में जो वृद्धि देखी गई है, वह इससे ऊपर चली गयी है और इतिहास के सबसे गर्म दिन और यह गुजरता साल सबसे गर्म वर्ष में गिना जाने वाला है।

सीओपी की इस मीटिंग में सिर्फ कार्बन उत्सर्जन को इसका एक कारण मानना उपयुक्त नहीं लगता है। पर्यावरण और तापमान में वृद्धि को इतने सरलीकृत ढंग से देखने का नजरिया विभिन्न देशों के राजनयिक और व्यावसायिक घरानों के प्रतिनिधियों का महज एक सुविधा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।

सीओपी की चल रही इन मीटिंगों में पर्यावरणविद और बहुत से शोध संस्थानों ने भी हिस्सेदारी की है। उन्होंने साफ किया है कि जीवाश्म ईधनों के प्रयोग को कम या खत्म करते जाने से ही जलवायु परिवर्तन को नहीं रोका जा सकता। जब तक प्रकृति की रक्षा संभव नहीं है तब तक तापमान की वृद्धि को रोक पाने के उद्देश्य को पाना संभव नहीं है।

यहां पॉट्सडैम इंस्टीट्यूट फॉर क्लाइमेट इम्पैक्ट रिसर्च के निदेशक जोहान रॉकस्ट्राम ने भी इस शिखर सम्मेलन को संबोधित किया। उन्होंने अमेजन का हवाला देते हुए वर्षा वनों की कटाई, तापमान में वृद्धि और सूखे की अभूतपूर्व स्थिति के पैदा होने और इस इलाके के तेजी से बंजर होने के बारे में बात रखते हुए यह इशारा किया कि एक बिंदु पर जाकर यह सभी कारक एक पूरे इलाके को रेगिस्तान में बदल सकते हैं, और हम इस प्रक्रिया को देख भी रहे हैं।

यहां उनके कहे को विस्तार से देना उपयुक्त होगा- “अनुसंधान ने सुझाव दिया था कि अमेजन, सवाना जैसी स्थिति में आने से पहले तक 3 डिग्री सेल्सियस तक के तापमान को बर्दाश्त कर सकता है। लेकिन, यह कहने में वनों की कटाई की बात छूट गई थी। जब जंगलों का दोहन किया जाता है और वहां से जब गुजरने वाली सड़कों से ‘फिशबोन पैटर्न की वाष्पीकरणीय प्रवाह को तय कर देता है, तब जंगल सूखने लगते हैं।..

.. यह तब सुनिश्चित होने लगता है जब वनों की कटाई कुल क्षेत्र का 20 प्रतिशत से लेकर 50 प्रतिशत तक पहुंच जाती है। इससे तापमान की उच्चता सवाना के टिपिंग बिंदु पर पहुंच जाती है। वनों की कटाई लगभग 17 प्रतिशत थी। ऐसे में, हम परिस्थितिकी के निर्णायक बिंदु के काफी करीब हैं। हमारे पास कहने को बहुत सारे सबूत हैं कि वनों की कटाई, जैव विविधता की हानि और तापमान वृद्धि का संयोजन एक बहुत ही खतरनाक रास्ता खोलता है।” (द गार्जियन; 11 दिसम्बर, 2023; वनों की कटाई लेख से उद्धृत)।

उपरोक्त चेतावनी सीओपी के शीर्ष हिस्सेदार नेताओं और प्रतिनिधियों की चिंता का हिस्सा नहीं है। ठीक वैसे ही जैसे भारत में विकास के नाम पर पर्यावरण की चिंता करने वाले कार्यकर्ताओं, किसानों और आम लोगों को सुनना तो दूर उन्हें विकास विरोधी, ‘देशद्रोही’ तक करार दिया गया।

नर्मदा परियोजना को लेकर मुख्यमंत्री रहते हुए और बाद में प्रधानमंत्री बनने के बाद भी नरेंद्र मोदी ने जो रुख अपनाया था, उसमें पर्यावरण की चिंता करने वालों के लिए कोई जगह नहीं थी। अभी हाल में मुंबई के आरे के इलाके में मेट्रो रेल और अन्य निर्माण को लेकर पर्यावरण के संदर्भ में कई चिंताए उठीं और उसे लेकर आंदोलन भी खड़ा हुआ।

इसे लेकर शिवसेना-कांग्रेस बनाम भाजपा के बीच काफी तकरार हुआ। इसे भी भाजपा ने विकास के साथ जोड़कर देखा। और, अंततः सारे विरोधों को दरकिनार करते हुए हजारों पेड़ों को काटते हुए रेल और उससे जुड़ी अन्य परियोजनाओं की नींव डाल दी गई।

सीओपी-28 के अंतिम दौर में पास हुए प्रस्तावों से ही पता चलेगा कि दुनिया के प्रभुत्वशाली वर्ग और उसके प्रतिनिधि प्रकृति और धरती को लेकर क्या सोच रहे हैं और वे किस दिशा में जाना चाहते हैं।

एक आम नागरिक के लिए उनके निर्णय निश्चय ही प्रभावित करेंगे लेकिन वो सिर्फ और सिर्फ अपनी सुन रहे हैं, प्रकृति और नागरिक की चिंता अभी भी उनके दायरे में नहीं है। धरती बचाने के लिए जरूरी है धरती के साथ जुड़ना, उसके हर पहलू का हिस्सा बनना। यह शुरूआत हमें अपने प्रयासों से जरूर कर देनी चाहिए।

(अंजनी कुमार पत्रकार हैं।)

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