रांची। झारखंड के गढ़वा, पलामू और चतरा इलाके में 50-60 हजार परिवार भेड़ पालन कर अपनी अजीविका चलाते हैं। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण है कि इनकी सुधि लेने वाला कोई नहीं है। दुष्परिणाम यह है कि इस पेशे से जुड़ा समुदाय तेजी से अपना पुश्तैनी पेशा त्यागकर दूसरी संभावनाओं को अपनाने को मजबूर हो रहा है।
जानकारी के अनुसार 1996 में अविभाजित बिहार में भेड़ों की कुल संख्या लगभग 6 लाख थी। जो 2017 में करीब साढ़े 6 लाख हो गई वहीं 2019 में 8 करोड़ के आसपास हो गई थी। लेकिन आज सरकार के पास भेड़पालन करने वालों और भेड़ों की निश्चित संख्या का पता नहीं है। एक खबर के मुताबिक देश में उत्तर प्रदेश एक ऐसा राज्य है जहां भेड़ों की संख्या काफी तेजी से घट रही है। वहीं देश के टॉप 10 राज्यों में भी झारखंड शामिल नहीं है।
अशोक पाल जो स्वयं पाल समुदाय से ताल्लुक रखते हैं, बताते हैं कि “भेड़ एक ऐसा जानवर है जो हमेशा नये चरागाह में ही जीवित रह सकता है। यही वजह है कि राज्य के पलामू, गढवा के भेड़पालक पड़ोसी राज्य बिहार, उत्तर प्रदेश और छत्तीसगढ़ तक भेड़ चराने जाते हैं। भेड़ चरवाहे सालों-साल तक अपने घरों से बाहर ही रहते हैं। घर के सदस्यों के साथ उस चरवाहा का तब आगमन होता है, जब घर में कोई विशेष धार्मिक सामाजिक आयोजन किया जाता है।”
कैलाश पाल के शब्दों में “कई ऐसे परिवार हैं, जिनका जीविकोपार्जन पूरी तरह भेड़पालन पर निर्भर है। गढ़वा के भेड़पालक छत्तीसगढ़ के रायगढ़ तक प्रत्येक वर्ष भेड़ चराने जाते हैं और मार्च तक वापस आते हैं। भेड़ की कीमत आज लगभग 7500 रुपये प्रति भेड़ है।”
रमुना के राजेश्वर पाल कहते हैं- “2019 में कई ऐसी घटनाएं घटीं, जिसके कारण भेड़पालन पर संकट बढ़ गया है। समय परिवर्त्तन और समस्या बढ़ने के कारण लोग भेड़ों की संख्या कम कर रहे हैं। भेड़ चोरी की घटनाएं काफी बढ़ी हैं। यहां तक कि इस वर्ष 2 भेड़पालकों की हत्या भी कर दी गई।”
उन्होंने आगे बताया कि “भेड़पालकों को सरकार के स्तर से समय पर दवा भी उपलब्ध नहीं कराया जाता है। पहले 5 लीटर का अल्बेण्डाजोल वितरण किया जाता था, वह कारगर था। आजकल जो दवा चरवाहों को वितरित की जा रही है, वह दवा पहले की तरह कारगर नहीं है। सरकार भेड़पालकों का जीवन बीमा की सुविधा दे सकती थी। लेकिन भेड़पालक सरकारी उदासीनता का शिकार हैं।”
पाल महासंघ के पूर्व गढ़वा जिला अध्यक्ष सुभाष पाल बताते हैं कि “यह समुदाय भेड़पालन के साथ ही भेड़ों के ऊन से कम्बल बनाने का व्यवसाय करती है। पहले चरवाहों को मध्य प्रदेश तक अपनी भेड़ों को चराने की छूट थी। भेड़ों के मल से भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ती है इसलिए भी लोगों को इस व्यवसाय का सम्मान करना चाहिए। पहले गढ़वा के बाजार में भेड़ों के खरीद-विक्री का व्यापक कारोबार होता था। इसे प्रोत्साहन देते हुए एक सक्रिय समिति गठित कर उसके माध्यम से व्यापक कारोबार की बात हो सकती है। कम्बल निर्माण के लिए गांवों के स्तर पर हैण्डलूम चलाने के कारोबर शुरू कर स्थानीय लोगों को रोजगार मुहैया कराई जा सकती है। भेड़ चरवाहों के समूहों द्वारा तैयार कम्बल की सरकारी खरीद कर उसे जरूरतमंदों को वितरण कर पाल समाज के लोगों को सरकार सम्मान कर सकती है। लेकिन विडम्बना ये है कि भेड़ों के ऊन की कीमत नहीं रहने के कारण चरवाहे उसे काटकर यूं ही बेकार छोड़ देते हैं।”
करमदेव पाल कहते हैं कि “बिहार सरकार के समय नवीनगर में ऊन विस्तार केन्द्र था। उसका लाभ गढ़वा-पलामू के पाल समुदाय को मिलता था। वहां से दवा, कैंची इत्यादि जरूरत के सामग्रियों की सरकारी वितरण की व्यवस्था थी। उस जमाने में मध्यप्रदेश में 10 रुपये प्रति सैकड़ें भेड़ चराने का शुल्क लगता था। भेडें चकबड़, डिठोर, कनवद आदि कंटीली झाड़ियों के पत्ते ही खाया करते हैं। अन्य पेड़ों को वे बर्बाद नहीं करते। नवीनगर में भेड़ों में होने वाली बीमारियों की देखभाल के लिए विशेष चिकित्सकों की सरकारी बहाली होती थी। भेड़ों में खुरहा नामक बीमारी होती थी उसकी भी निःशुल्क दवाइयां वितरित की जाती थी। भेड़ पालकों को खड़िया नमक वितरित की जाती थी, वह भी बन्द हो गया। वर्त्तमान में जो नमक दी जाती है वह भेड़ों के स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं है।”
समाजिक कार्यकर्त्ता जेम्स हेरेंज कहते हैं कि “क्रिसमस जैसे बड़े त्योहार के अवसर पर यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि इतिहास काल से जो समुदाय आज तक अपना वजूद बरकरार रख पाई है, उन्हें संरक्षित करने और सम्मान देने की आवश्यकता है। जलवायु परिवर्त्तन और बाजारवाद ने अन्य कमजोर समुदायों की भांति इस समुदाय के पेशे को भी प्रभावित किया है। लेकिन सरकार अपनी संवैधानिक जवाबदेही से किनारा नहीं कर सकती है। यदि राज्य में अंतर विभाग समेकित रूप से तालमेल करते हुए जल, जंगल और जमीन का समुदाय के देशज ज्ञान के साथ संरक्षण और संवर्धन करेंगे तो निश्चय ही इस एक बेहतर कल की उम्मीद की जा सकती है।”
(झारखंड से विशद कुमार की रिपोर्ट)
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