क़ानून, डर और आपातकाल: न्यायिक समर्पण का दस्तावेज

भारत के इतिहास में 25 जून 1975 की रात निर्णायक रात थी। इसी रात देश में आपातकाल घोषित किया गया। संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सिफ़ारिश पर निर्णय लिया कि देश में आंतरिक अशांति के कारण आपातकाल लागू किया जाए। इसका परिणाम यह हुआ कि नागरिकों के मौलिक अधिकारों को निलंबित कर दिया गया, प्रेस की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाया गया, और हज़ारों लोगों को बिना मुकदमा चलाए हिरासत में डाल दिया गया।

सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 359 का प्रयोग करते हुए यह आदेश जारी किया कि जब तक आपातकाल जारी रहेगा, नागरिक अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार), अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) और अन्य संबंधित अनुच्छेदों के तहत न्यायालय में कोई याचिका नहीं दायर कर सकते। इस आदेश का नतीजा यह हुआ कि व्यक्ति को न्यायिक संरक्षण से वंचित कर दिया गया। इस वातावरण में अदालतों में प्रश्न उठा कि क्या नागरिक अब भी हबीयस कॉर्पस (Habeas Corpus) याचिका दायर कर सकते हैं, जिसके ज़रिए कोई भी व्यक्ति यह मांग करता है कि उसे अवैध रूप से हिरासत में रखने का कारण बताया जाए।

यह विवाद ADM जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला (1976) केस के रूप में सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष आया। मामला यह था कि कुछ लोगों को आपातकाल के दौरान बिना मुकदमा चलाए बंद कर दिया गया था, और उन्होंने अदालत में हबीयस कॉर्पस याचिका दायर की। सरकार ने तर्क दिया कि आपातकाल के दौरान ऐसे किसी अधिकार का अस्तित्व ही नहीं है।

इस पर सुप्रीम कोर्ट की पाँच सदस्यीय संविधान पीठ ने विचार किया। निर्णय 4:1 के बहुमत से सरकार के पक्ष में गया। मुख्य न्यायाधीश ए.एन. राय और न्यायमूर्ति एम.एच. बेग, वाई.वी. चंद्रचूड़ और पी.एन. भगवती ने कहा कि जब अनुच्छेद 21 निलंबित है, तो व्यक्ति को यह अधिकार नहीं कि वह अदालत में जाकर अपनी स्वतंत्रता की गुहार लगाए। उनके अनुसार, आपातकाल में राज्य की कार्रवाई को न्यायालय द्वारा परखा नहीं जा सकता, भले ही वह कार्रवाई किसी भी व्यक्ति को अनिश्चितकाल तक हिरासत में रखने से संबंधित क्यों न हो।

इस निर्णय में अकेले न्यायमूर्ति एच.आर. खन्ना ने असहमति जताई। उन्होंने कहा कि जीवन और स्वतंत्रता केवल संविधान से नहीं, बल्कि कानून के शासन और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों से भी उत्पन्न होते हैं। यदि राज्य ही यह अधिकार छीन ले कि वह किसी को बिना कारण बताए बंद कर सकता है, और न्यायपालिका भी इसमें हस्तक्षेप न करे, तो फिर संविधान की आत्मा ही समाप्त हो जाती है।

उनका यह असहमति मत आज भी भारतीय न्यायिक इतिहास की सबसे साहसी और नैतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण टिप्पणी मानी जाती है। लेकिन इसके कारण उन्हें सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पद से वंचित कर दिया गया, जबकि वे वरिष्ठतम न्यायाधीश थे।

ADM जबलपुर का यह निर्णय भारतीय लोकतंत्र के लिए गहरा झटका था। न्यायपालिका से यह अपेक्षा थी कि वह नागरिकों की स्वतंत्रता की रक्षा करेगी, लेकिन इस फैसले से अदालत ने अपने उस कर्तव्य से मुँह मोड़ लिया। इस निर्णय की तीव्र आलोचना हुई -देश के भीतर और बाहर, दोनों स्तरों पर।

आगे चलकर, जब सत्ता बदली और लोकतांत्रिक व्यवस्था बहाल हुई, तब इस ऐतिहासिक गलती को सुधारने के प्रयास किए गए। 1978 में 44वाँ संविधान संशोधन पारित हुआ। इस संशोधन में यह स्पष्ट रूप से घोषित किया गया कि अनुच्छेद 20 और अनुच्छेद 21 के तहत दिए गए मौलिक अधिकारों को आपातकाल के दौरान भी निलंबित नहीं किया जा सकता। इसका मतलब था कि चाहे देश में कोई भी आपात स्थिति हो, व्यक्ति का जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता सुरक्षित रहेगी, और न्यायालय में चुनौती दी जा सकेगी।

लेकिन ADM जबलपुर के फैसले को औपचारिक रूप से रद्द नहीं किया गया था-यानी सुप्रीम कोर्ट ने यह नहीं कहा था कि वह निर्णय अब कानून नहीं रहा। यह स्थिति तब तक बनी रही जब तक 2017 में सुप्रीम कोर्ट की नौ जजों की संविधान पीठ ने ‘के.एस. पुट्टस्वामी बनाम भारत संघ’ मामले में निजता के अधिकार पर फैसला नहीं सुनाया।

यह मामला इस प्रश्न पर था कि क्या निजता का अधिकार भारतीय नागरिक का मौलिक अधिकार है। न्यायालय ने सर्वसम्मति से कहा कि निजता का अधिकार अनुच्छेद 14, 19 और 21 का अभिन्न अंग है और उसे मौलिक अधिकार का दर्जा प्राप्त है। इस ऐतिहासिक फैसले में न्यायमूर्ति वाई. वी.चंद्रचूड़ ने ADM जबलपुर के फैसले पर विशेष टिप्पणी करते हुए लिखा: “ADM जबलपुर का निर्णय संविधान की आत्मा के विपरीत था। यह निर्णय कानून के शासन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के सिद्धांतों को खारिज करता है। हम स्पष्ट रूप से यह कहते हैं कि ADM जबलपुर अब कानून नहीं है।”

यह टिप्पणी केवल न्यायिक सुधार नहीं थी, यह भारतीय संविधान के इतिहास की उस त्रुटि की सार्वजनिक अस्वीकृति थी, जिसने नागरिकों के मौलिक अधिकारों को नष्ट होने दिया। उल्लेखनीय है कि यह टिप्पणी उस न्यायाधीश द्वारा दी गई थी जिनके पिता, न्यायमूर्ति वाई.वी. चंद्रचूड़, ADM जबलपुर के बहुमत मत में शामिल थे। इस तरह इतिहास ने अपने पुराने पन्ने पलटते हुए न्याय की मूल भावना को पुनर्स्थापित किया।

आज ADM जबलपुर मामले को चेतावनी के रूप में देखा जाता है- कि न्यायपालिका को कभी भी राज्यसत्ता की सुविधा का साधन नहीं बनना चाहिए। इस प्रकरण ने यह सिद्ध कर दिया कि संविधान में लिखे हुए शब्द तभी जीवित रहते हैं, जब न्यायालय और संस्थाएँ उनमें प्राण फूँकने की नैतिक शक्ति और स्वतंत्रता रखती हों। आपातकाल की वह अवधि और ADM जबलपुर का फैसला याद दिलाते हैं कि अधिकार केवल घोषित किए जाने से सुरक्षित नहीं होते -उन्हें हर युग में सचेत रूप से बचाना और पुनः अर्जित करना पड़ता है।

(मनोज अभिज्ञान स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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