भारतीय अपराध अधिनियमों में संशोधन के बाद इस विषय पर अनेक समीक्षाएं लिखी जा चुकी हैं। इसके अलावा इन सारे कानूनों को चुनौती देते हुए याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में अभी बिना सुने ही पड़ी है, जिसपर सुनवाई होनी बाकी हैं। नए अपराध कानून संशोधनों में ज्यादातर कानूनी प्रक्रिया में संशोधन को वरीयता दी गई है जिसमें पुलिस की शक्तियों को बढ़ाने का कार्य विधायिका द्वारा किया गया है।
परन्तु अपराध संहिता के अंदर में जो बदलाव है उसमें कुछ महत्वपूर्ण बदलावों में से धारा 113 और धारा 152 का संहिता में शामिल किया जाना है। यह अपराध संहिता की वो धाराएं हैं, जिसके द्वारा सरकार विशेष आपराधिक कानूनों को मुख्य धारा में लाने का कार्य कर रही है।
कानून के जानकारों ने इस संदर्भ में, कानूनी न्याय दर्शन के आलोक में इसके ऊपर अनेक टिप्पणियां की हैं जो बेहद जरूरी और समझने के लिए आवश्यक हैं। परन्तु मैं जिस पहलू को इन कानूनों के संदर्भ में उठाना चाह रहा हूं वह कानून और न्यायपालिका समेत हमारे आर्थिक व्यवस्था से जुड़ा हुआ है।
कानून की भाषा में एक कहावत है कि “अगर कोई मौत हुई है तो उसके पीछे जरूर एक कारण होगा” (if there is a death there must be some reasons)। इस संदर्भ में पूर्वधारणा बनने से हम तथ्यों में घालमेल कर सकते हैं जो वस्तुस्थिति से जुड़े यथार्थ को एक अलग मोड़ दे सकता है। इसलिए इन आपराधिक कानूनों में हुए संशोधन, विशेषकर धारा 113 और 152 का कानूनी मूल्यांकन के साथ-साथ आर्थिक मूल्यांकन बेहद जरूरी है।
कानून के संदर्भ में
धारा 113 के तहत इस अधिनियम में पहली बार ’आतंकवादी’ शब्द को जोड़ा गया है। जिनके शब्दों को पढ़ने से यह स्पष्ट होता है कि यूएपीए, 1967 की धारा 15–20 को विधायिका ने मेनस्ट्रीम करने का प्रयास किया है। आतंकी गतिविधि की परिभाषा जो इस नए संशोधन में ली गई है वह यूएपीए की धारा 15 से लगभग कॉपी पेस्ट कर ली गई है जिसके अर्थ व्यापक हैं और सुप्रीम कोर्ट ने अपने अनेक निर्णयों में इस बात को स्पष्ट भी किया है कि सामान्य आपराधिक मामलों को आतंकी मामलों से अलग रखा जाए।
परिभाषा के अनुसार “कोई भी व्यक्ति जो देश की एकता, अखंडता, सुरक्षा (इकोनॉमिक सिक्योरिटी) और संप्रभुता को गलत रूप से प्रभावित करने के लिए कोई गतिविधि करता है या स्ट्राइक करता है या स्ट्राइक करता हुआ प्रतीत होता है” उसे इस कानून के तहत आतंकी करार दिया जाएगा।
ऊपर में परिभाषित आतंकी गतिविधि की परिभाषा यूएपीए के कानून में स्पष्ट है परन्तु नए अपराध अधिनियमों में इसकी कोई परिभाषा नहीं ली गई है अर्थात इसे परिभाषित करने के लिए कानूनविद और न्यायपालिका 1967 के कानून की ही मदद लेंगे।
पोटा और टाडा के सारे ऐसे प्रावधान में विरोध के स्वर को एक कुचलने के लिए बनाए गए थे, उन्हें 2005 के UAPA संशोधन द्वारा पुनः प्रायोजित कर दिया गया था। और अब जब सरकार UAPA के प्रावधानों को दंड संहिता के द्वारा फिर से एक मुख्य कानूनी प्रक्रिया का भाग बनाया जा रहा है जिससे राज्य के पास किसी भी व्यक्ति को सीमित करने की अपार शक्ति होगी।
जहां UAPA जैसे कानूनों में बेल मिलने बेहद मुश्किल है उसी प्रकार से निचली न्यायपालिका जो ऐसे प्रावधानों में साधारणतः बेल नहीं दे रही है वह सामान्य कानूनी प्रक्रिया द्वारा भी बेल नहीं दे पाएंगे, और यह कानूनी रूप से न होकर एक स्टैबलिश प्रैक्टिस के रूप में हो जाएगा जो अभी के समय में विशेष कानूनों के केस में देखने को भी मिलता है।
वहीं दूसरा कानून सीधे तौर पर नहीं पर अप्रत्यक्ष रूप से धारा 113 को बल प्रदान करता है। “किसी भी प्रकार की प्रक्रिया जो देश की एकता, संप्रभुता और अखंडता को प्रभावित करती है, ऐसा करने वाले व्यक्ति को आजीवन कारावास से लेकर सात साल से कम की सजा का कोई प्रावधान नहीं है।
इस धारा को ध्यान से पढ़ें तो यह राजद्रोह कानून की तरह तो नहीं पर इसकी आत्मा में राजद्रोह छुपा हुआ है। सरकार ऐसे कानून को दोबारा वापस ला पाई क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने स्वयं इसपर अपना निर्णय अभी तक सुरक्षित रखा है। वहीं 279वें लॉ कमीशन रिपोर्ट में राजद्रोह को बनाए रखने की भी कवायद की गई थी। परन्तु, इससे सुप्रीम कोर्ट की मंशा को भी एक स्तर पर समझा जा सकता है कि आखिर इस मुद्दे को पूरी तरह से क्यों नहीं निभाया गया।
व्यापक अर्थों में धारा 152 पूरी तरीके से किसी भी व्यक्ति की किसी भी अभिव्यक्ति को व्यापक रूप से प्रभावित करने की क्षमता रखता है जो उसके शब्दों से भी स्पष्ट है जिसमें यह कानून कहता है कि “जानबूझकर या जानबूझकर, शब्दों के माध्यम से, चाहे वे बोले गए हों या लिखित रूप में, या संकेतों के द्वारा, या दृश्य प्रस्तुति के द्वारा, या इलेक्ट्रॉनिक संचार के द्वारा, या वित्तीय साधनों के उपयोग से, या अन्य किसी भी तरीके से, यदि कोई व्यक्ति अलगाववाद या सशस्त्र विद्रोह या विनाशकारी गतिविधियों को भड़काता है या भड़काने का प्रयास करता है, या अलगाववादी गतिविधियों की भावना को प्रोत्साहित करता है, या भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता को खतरे में डालता है” तो उसे इस धारा के अंदर दोषी माना जाएगा।
किसे बचा रही है सरकार और किससे?
मैं फिर से उसी बात पर आता हूं “इफ देयर इज इस डेथ देयर इज अ रीजन”। तो अगर कोई कानूनी परिवर्तन लाया गया है तो उसके पीछे उसका अर्थशास्त्र अवश्य होगा और अगर कोई कानून हटाया भी जाता है तो उसके पीछे का भी अपना अर्थशास्त्र है।
क्योंकि कानून में बहुत कम मौके ऐसे हैं जहां सबके अधिकारों की रक्षा करता हुआ दिखाई देता है वरना यह क्षमतावान और पैसे वाले लोगों को बचाने का तंत्र बना रहता है। हाल ही में जस्टिस नागारत्ना से बहुत सरोकार रखता हूं कि हमें ऐसे स्थिति को जिंदा रखना है और ऐसे लोगों की मदद करनी है जो सर्वोच्च न्यायालय तक नहीं जा पा रहे थे/हैं, उन्हें वहां से भी न्याय दिलाना है परन्तु इसके लिए न्यायपालिका को भी देश की अर्थनीति को एक आलोचनात्मक तरीके से समझना होगा।
कुछ दिनों पहले ही सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने फ्रीबीज पर अपनी बात रखते हुए यह बोला कि यह प्रक्रिया लोगों को मुख्य धारा की अर्थव्यवस्था से जुड़ने से रोक रहा है, परन्तु क्या किसानों की एमएसपी की मांग और बाहरी पूंजी के आने और उनकी खेती के उजड़ जाने का डर गलत है? बिल्कुल नहीं।
माननीय न्यायाधीश को हिमाचल और उत्तराखंड के सेब बागानों और उनके उत्पादकों के ज्यादातर के हालत देखते हुए और महाराष्ट्र के किसानों के हालत को देखकर इसपर एक आवश्यक टिप्पणी करने की दरकार थी।
बहरहाल ऐसे कानून की आवश्यकता 1990 से ही चली आ रही थी जब देश वैश्वीकरण के प्रभाव में आकर अपने बाजार को विश्व के लिए आसानी से खोल रहा था। इससे यह तय था कि देश के अंदर बेरोजगारी बढ़ने के साथ-साथ यहां के संसाधनों पर बाहरी कब्जा मजबूत होगा। यह एक व्यापक स्थिति है जब देश में रोजगार की कमी हो और देश बाहर के लिए उत्पादन करने में जुटा रहे वो भी मजदूरों के जीवन और मृत्यु के मध्य खड़ा होकर।
जी हां, यह बात पहले दिन से ही स्पष्ट थी कि जैसे ही विदेशी पूंजी देश में आएगी तब अर्थव्यवस्था की दशा अपने आप ही बाहर की ओर मोड़ दी जाएगी। ’बाहर की ओर मोड़ देने’ से यह तात्पर्य स्पष्ट है कि देश अपने आंतरिक आर्थिक समस्याओं के समाधान बाहरी निर्यात पर निर्भर होकर ही देख सकता है।
यह कोई एक मात्रा रास्ता नहीं पर वैश्विक स्तर पर वित्तीय पूंजी के संचालन और नियमन हेतु बनाई गई संस्था जैसे डब्ल्यूटीओ द्वारा स्थापित किए मानक हैं। जिससे हर एक देश अपने निर्यात हेतु प्रतिस्पर्धा करेगा और जो देश आयात से ज्यादा निर्यात कर पाएगा वहीं अपने देश की आर्थिक दशा को बेहतर बनाने की तरफ बढ़ेगा। परन्तु इस पूरे संदर्भ में जनता की चर्चा नहीं है कि आखिर जनता कि क्या समस्याएं हैं जिसके केंद्र में नियम बनाए जाने चाहिए।
यह भी पहले से ही तय था कि देश के निर्यात को बाह्य बाजार के प्रतिस्पर्धा हेतु माकूल बनाने के लिए दो कार्य करने पड़ेंगे। पहला देश के संसाधनों को नियंत्रित कर बड़े पूंजीपतियों के हित में कानून बनाना और संसाधन का एक तरफ बंटवारा करना जिससे बड़े पूंजीपति इस देश में इन्वेस्टमेंट करने के लिए आयेंगे।
और दूसरा, मजदूरों की मजदूरी को नियंत्रित करके, अर्थात उनके वेज को सीमित या कम करके तथा काम के घंटे बढ़ा कर। अभी कुछ दिन पहले एक बड़े उद्योगपति का बयान आया कि मजदूरों को सप्ताह में 70 घंटे से ज्यादा काम करना चाहिए। देश की विधायिका भी उसी दिशा में काम कर रही है जब उत्तर प्रदेश सरकार ने 12 घंटे कार्य को वैद्यता प्रदान कर दी।
इन्हीं संदर्भों के अंतर्गत फ़िस्कल रिस्पांसिबिलिटी और बजट मैनेजमेंट कानून को भी देखे जाने की जरूरत है जिसने सरकार के ऊपर से जिम्मेदारियों को उठा कर वैश्विक बाजार पर डाल दी है। और तब से लेकर आज तक सरकार जैसे ही आंतरिक आर्थिक परेशानियों में फंसता है वह ठीकरा विदेशी बाजार पर फोड़ देता है और वैश्विक बाजार में आप हम किसको जिम्मेदार ठहरा सकते हैं यह आपकी हमारी क्षमता से बाहर है।
तो बड़ा सवाल यह है कि जब इन कानूनों की रक्षा कर बड़े पूंजीपतियों को बचाना होता है तो संप्रभुता सरकार और राज्य में चली जाती है और किसी भी छोटे से प्रतिरोध पर संप्रभुता को खतरा पहुंच जाता है। वहीं दूसरी तरफ लोगों को रोजगार नहीं मिल पा रहा है और उन्हें एक बेहद अमानवीय जिंदगी जीने पर छोड़ दिया जा रहा है, तब देश की संप्रभुता पर कोई खतरा नहीं है ..तो फिर बड़ा सवाल बनता है कि शंकरी प्रसाद मामले (1951) और केशवानंद भारती मामले (1973) में जब सर्वोच्च न्यायालय देश के नागरिक में सर्वोच्च संप्रभुता की बात कहती है उसका आर्थिक विश्लेषण कैसे होना चाहिए।
कुछ दिन पहले ही देश के सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने कहा था कि देश की आर्थिक नीति को किसी dogma (खास ढांचे) के अंदर नहीं देखा जा सकता है और “जो देश के लोगों के लिए ठीक होगा वैसी व्यवस्था को सरकारें अपनाती आई हैं।” परन्तु सवाल अभी भी प्रासंगिक बना हुआ है कि आखिर इस निर्णय को किसके परिपेक्ष्य में देखे जाने की जरूरत है और क्या भयानक आर्थिक दुर्दशा में कोई जिम्मेदारी लेने को तैयार है।
इसका जनता का जवाब सरकार का प्रतिरोध करना है और इसपर सरकार का जवाब ऐसे कानून बनाना है जिससे उस विरोध को देश विरोधी बोलकर कुचला जाना है। अगर कोई अनस्किल्ड मजदूर अपने 9000 मिलने वाले मजदूरी को बढ़ाने के लिए स्ट्राइक कर दे तो सरकार को क्या करना चाहिए?
सरकार के पास इसके दो जवाब बिल्कुल रेडीमेड उपलब्ध है, पहला, आंकड़ों में फेर बदल करके न्यूनतम मासिक खर्चे को कम दिखा कर 9000 मिलने वाले मेहनताने को सही साबित करना या दूसरा, धारा 113 के तहत देश की आर्थिक सुरक्षा को खतरा पहुंचने के लिए इनपर दंडात्मक कार्यवाही करना।
तो ये हथकंडे की पूर्व व्यवस्था होना बहुत जरूरी है ताकि “विधि के शासन” में कोई बिना दिक्कत आए उत्पादन चलता रहे। फिर आख़िर यह सवाल मैं फिर से जस्टिस नागारत्ना से पूछना चाहता हूं कि 145 करोड़ आबादी वाले देश में न्यायिक व्यवस्था क्या ऐसे आर्थिक तंत्र की हिमायत कर रहा है जो एकतरफा नीति पर चल रहा है।
क्या लोगों के भूख का जवाब धारा 113, 152 और UAPA की धाराएं हैं? क्या कोई मजबूरी है जिसके लिए कानून का हमेशा एक पक्षीय मूल्यांकन ही किया जाता है जो राज्य के हित में हैं जहां विचारधारा के स्तर पर संप्रभुता नागरिक के हाथ में होती है परंतु वास्तविक संप्रभुता सरकार अपने तरीके से जैसे चाहे परिभाषित कर सकती है?
ये सारे कुछ सवाल हैं जिसे न्यायपालिका को अपने न्यायिक दायरे से उठकर आर्थिक मूल्यांकन के साथ देखना होगा। और उससे भी बड़ा सवाल कि ये बात न्यायपालिका से क्यों की जा रही है, क्योंकि न्यायपालिका ही आज के समय में इस देश को वास्तविक रूप से चलने का एक हद तक प्रयास कर रही है।
(निशांत आनंद स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)