बागेश्वर। उत्तराखंड के संदर्भ में यदि कुख्यात शब्दों की पड़ताल करें तो आपदा के बाद दूसरा सबसे कुख्यात शब्द है पलायन। आपदा न्यूनीकरण के लिए राज्य सरकार ने मंत्रालय का गठन भी किया है, साथ ही आपदा न्यूनीकरण और प्रबंधन प्राधिकरण का भी। इसी तरह से पलायन न्यूनीकरण के लिए पलायन आयोग का गठन किया गया है। इस आयोग का नाम अब बदलकर ग्रामीण विकास और पलायन आयोग कर दिया गया है।
यह बात अलग है कि यह प्राधिकरण अब तक न तो पलायन कम करने की दिशा में कोई ठोस कदम उठा पाया है और न ही ग्रामीण विकास की दिशा में कोई पहल कर सका है। इस बीच उत्तराखंड में रिवर्स पलायन शब्द बहुतायत से सुनने को मिला। खासकर कोविड काल में, जबकि पहाड़ के लोग बड़ी संख्या में शहरों से अपने गांवों में लौटे तो राज्य सरकार ने इन लोगों को गांव में ही रोकने को लेकर बड़े-बड़े दावे किये। लेकिन, हुआ कुछ नहीं। कोविड का असर कम होने के साथ ही ऐसे लोगों को वापस शहरों की तरफ लौटना पड़ा।
इस सबके बाद कुछ लोग ऐसे भी हैं, जिन्होंने न तो सरकार से कोई उम्मीद की और न ही कोविड का असर कम होने के बाद वापस लौटने की सोची। इन लोगों ने अपने खुद के प्रयास से न सिर्फ अपना स्टार्ट-अप शुरू किया, बल्कि उसे लगातार सफलता की तरफ आगे भी बढ़ाया है। ऐसी ही एक शख्सियत का नाम है दर्शना पाठक।
देश के कई इंजीनियरिंग कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में कंप्यूटर साइंस पढ़ा चुकीं दर्शना पाठक कोविड काल में पुणे से अपने घर बागेश्वर लौटीं। लॉकडाउन के कारण उनकी यूनिवर्सिटी बंद हो गई थी और कंप्यूटर इंजीनियर पति भारत को वर्क फ्रॉम होम मिला था। ऐसे में यह दंपत्ति अपने बेटे रुद्रांश के साथ बागेश्वर लौटा था।

दर्शना कहती हैं कि “वे जब पुणे से आये थे तो लॉकडाउन का पीरियड शांत जगह पर बिताने के इरादे से आये थे। लॉकडाउन लंबा खिंचता गया और इसी के साथ उनकी यूनिवर्सिटी की छुट्टियां और उनके पति का वर्क फ्रॉम होम का पीरियड बढ़ता चला गया। इस दौरान बहुत कुछ सोचने समझने का समय मिला। पढ़ाई का इस्तेमाल कम्यूनिटी के लिए करने की पुरानी कसक फिर से ताजा होने लगी।”
वो कहती हैं कि “इस दौरान पहाड़ के किसानों और खासकर महिलाओं की स्थिति के बारे में जाना और समझा। यहां के स्कूलों में बिना किसी गाइडेंस और बिना कैरियर काउंसिलिंग के सिर्फ पास होने के लिए पढ़ाई कर रहे बच्चों से मिलने और उनकी परिस्थितियों के बारे में जानने का मौका मिला। आखिरकार पहाड़ में रहकर ही महिलाओं, किसानों और स्कूलों में पढ़ाई कर रहे बच्चों के लिए काम करने का मन बना लिया”।
दर्शना के अनुसार “पति भारत और बड़े भाई एक्टिविस्ट भुवन पाठक के साथ कई महीनों तक विचार-विमर्श और काफी खोजबीन के बाद बागेश्वर और चमोली जिले की सीमा पर ग्वालदम के पास किसी व्यक्ति की 21 वर्षों से जंगल के बीच खाली पड़ी जमीन खरीद ली। इस जमीन पर रहने के लिए चार कमरों का एक घर बनाया। फिर खाली जमीन पर पेड़-पौधे लगाये। क्षेत्र के 120 किसानों को अपने साथ जोड़ा, उद्यान विभाग के तजुर्बेकार अधिकारियों के साथ कई दौर की मुलाकातों के बीच यहां के वातावरण में उगने वाली 7 तरह की जड़ी-बूटियों पर काम शुरू किया”।
दर्शना के अनुसार “इस जगह को काफल फार्म नाम दिया गया। काफल फार्म के साथ ही अपने साथ जुड़े 120 किसानों को भी इन जड़ी-बूटियों को उगाने के लिए प्रोत्साहित किया। खासकर उन महिला किसानों को, जो पूरे साल पहाड़ के खेतों में मेहनत करके मोटा अनाज उगाती हैं, लेकिन खेतों में कुछ महीनों का अनाज भी पैदा नहीं हो पाता। इसके साथ ही बच्चों को कैरियर को लेकर जागरूक करने का भी प्रयास शुरू किया। अब काफल फार्म एक स्टार्ट-अप के साथ ही एक डे-बोर्डिंग पाठशाला भी है और एक होम स्टे भी”।

वर्क फ्रॉम होम खत्म होने के बाद भारत पुणे लौट गये। वे बीच-बीच में कुछ दिन के लिए आते हैं। दो वर्ष से दर्शना पाठक खुद इस फार्म और यहां की सारी व्यवस्थाएं देख रही हैं। जड़ी-बूटी उगा रही हैं और आसपास के गांवों के बच्चों की काउंसलिंग भी कर रही हैं।
काफल फार्म के बारे में जानकारी मिलने के बाद ‘जनचौक’ ने खुद वहां जाकर देखने का फैसला किया। दर्शना पाठक को टेलीफोन करके जब कम से कम एक दिन उनके फार्म में रहने की इजाजत मांगी गई तो उन्होंने सहर्ष इसकी मंजूरी दे दी। 26 अगस्त, 2023 की शाम को मैं, भुवन पाठक के साथ गरुड़ से ग्वालदम पहुंचा। ग्वालदम मुख्य बाजार से करीब 2 किमी सड़क मार्ग तय करके हम पहाड़ी से करीब एक किमी नीचे उतर कर घने जंगल के बीच बने काफल फार्म पहुंचे। उस वक्त वहां दर्शना पाठक, उनका बेटा रुद्रांश, सहायिका वीनू और उनका 4 वर्ष का बेटा, फार्म में रहकर कैरियर संबंधी तैयारी कर रही चार छात्राओं के अलावा करीब दो किमी दूर स्थित एक गांव के छह स्कूली बच्चे भी मौजूद थे।
हमारा बेहद अपनेपन से काफल फार्म में स्वागत किया गया। मैं यह देखकर अचंभित था कि दर्शना अलग-अलग कक्षाओं में पढ़ रहे इन बच्चों को एक साथ अलग-अलग विषय पढ़ा रही थीं। कुछ देर में कक्षाएं खत्म हुईं और बच्चे आंगन में खेलने लगे। शाम के धुंधलके से पहले बच्चे आंगन में बैठे और प्रेयर के बाद एक दौर ढोलक की थाप पर गीतों का चला। इसके बाद गांव के बच्चे लौट गये। फार्म में स्थाई रूप से रहने वाली 4 छात्राओं के साथ ही दर्शना पाठक, रुद्रांश, सहायिका उनका बच्चा शाम के खाने की तैयारियों में जुट गये। भुवन पाठक भी लौट गये। मैं फार्म में ही रुक गया। यहां मेरा दर्जा मेहमान का न होकर इसी परिवार के सदस्य का था।
घर से लगता पक्का आंगन और साथ में पानी का हौद है। पास के प्राकृतिक स्रोत से पाइप के जरिये यहां पानी लाया गया है। कुछ दूर सामूहिक किचन है। किचन स्थानीय स्तर पर बहुतायत से मिलने वाली चीड़ की लकड़ी से बना हुआ है और मिट्टी से इसकी पुताई की गई है।

दर्शना बताती हैं कि “कभी-कभी आसपास के स्कूल अपने बच्चों को लेकर आते हैं। कभी कुछ संस्थाएं यहां आकर वर्कशॉप करती हैं। फार्म में तीन टेंट स्थाई रूप से लगाये गये हैं, होम स्टे के रूप में उनका संचालन किया जाता है। उनमें भी अक्सर गेस्ट होते हैं। ऐसे मौकों पर खाना-खाने वालों की संख्या बढ़ जाती है। सभी का खाना इसी किचन में बनाया और परोसा जाता है। शाम के खाने के लिए इतनी एहतियात बरती जाती है कि अंधेरा होने से पहले खाना खा लिया जाए। ऐसा जंगली जानवरों की आशंका के कारण किया जाता है। हालांकि जंगल के बीच होने के बाद भी इस फार्म में कभी किसी लैपर्ड या टाइगर की आहट नहीं सुनाई दी।
शाम को काफल फार्म की गतिविधियों के बारे में सभी जानकारियां नहीं जुटा पाया था, लिहाजा मैंने दर्शना जी के कहने पर एक दिन और फार्म में रहने का फैसला किया। सुबह फार्म के सभी सदस्य जल्दी उठ गये और अपने-अपने काम में जुट गये। किसी ने सफाई की तो कोई रसोई में जुट गया। सभी काम इसी तरह सामूहिक रूप से करने का नियम बनाया गया है। सुबह के नाश्ते के बाद खेतों में हल्का-फुल्का काम, बकरियों को चराना और इसी के साथ पढ़ाई शुरू हो गई।
रविवार होने के कारण गांव के बच्चे भी सुबह ही आ गये। आमतौर पर ये बच्चे शाम को आते हैं। जो चार छात्राएं स्थाई रूप से फार्म में रह रही हैं, उनमें से एक प्रशासनिक सेवा की परीक्षाओं की तैयारी कर रही हैं। दो स्वरोजगार को लेकर तैयारी कर रही हैं, जबकि एक ने अभी अपने क्षेत्र को लेकर फैसला नहीं किया है।
दर्शना पाठक खुद भी इन छात्राओं की तैयारी करवाती हैं और नियमित काउंसिलिंग के लिए ऑनलाइन काउंसलर की भी व्यवस्था की गई है। पढ़ाई और फार्म के रोजमर्रा के कामों के अलावा ये छात्राएं और रुद्रांश हस्तशिल्प भी सीख रहे हैं। काफल फार्म के आसपास बड़ी संख्या में चीड़ के पेड़ हैं। चीड़ की पत्तियां पहाड़ों के लिए बड़ी समस्या बन गई हैं। लेकिन काफल फार्म के छात्र इन चीड़ की पत्तियों से सुई और धागे की मदद से शानदार चीजें बना रहे हैं। रक्षाबंधन नजदीक होने के कारण बच्चे चीड़ की पत्तियां से खूबसूरत राखियां बना रहे हैं। उन्होंने चीड़ की पत्तियों से बनी टोकरियां, ज्वेलरी और दूसरे सामान भी मुझे दिखाए।

काफल फार्म की एक विशेषता यह भी है कि यहां कोई चीज वेस्ट नहीं होती। इस्तेमाल के बाद बच गई चीजों से खेतों के कंपोस्ट खाद के अलावा रूफ क्लीनर और बर्तन धोने का साबुन तक सभी मिलकर खुद बनाते हैं। बकरियों के दूध से काम नहीं चल पा रहा है, इसलिए अब एक गाय लेने की भी योजना है।
फार्म की सबसे बड़ी विशेषता यहां उगाई जा रहीं जड़ी-बूटियां हैं। दर्शना पाठक खेतों में ले जाकर एक-एक जड़ी-बूटी के बारे में जानकारी देती हैं। वे कहती हैं कि कई तरह की जड़ी-बूटियों पर रिसर्च करने के बाद उन्होंने 7 तरह की जड़ी-बूटियां उगाने का फैसला किया। ये जड़ी-बूटियां काफल फार्म के अलावा उनके साथ जुड़े 120 किसानों को भी उगाने के लिए दी गई हैं। जड़ी-बूटियों का चयन इस तरह से किया गया है, ताकि हर दो महीने में कुछ न कुछ इनकम होती रहे।
दर्शना कहती हैं कि इस क्षेत्र में सबसे बुरी स्थिति महिलाओं की है। पुरुष ज्यादातर बाहर हैं। महिलाएं पूरे साल खेतों में जुटी रहती हैं, फिर भी इतना अनाज नहीं होता कि पूरे साल गुजारा हो जाए। सेल्फ हेल्प ग्रुप के माध्यम से इन महिलाओं को जो काम मिलता है, उसमें मुख्य रूप से दूसरी जगह से लाये गये उत्पादों की पैकिंग करना शामिल होता है। महिलाओं को इससे कुछ पैसा तो मिलता है, लेकिन उनके हाथ में इससे कोई हुनर नहीं आ पाता। उनका प्रयास है कि जड़ी-बूटियों के उत्पादन से महिलाओं को नियमित रूप से कुछ पैसा मिलता रहे और जड़ी-बूटी उगाने का अनुभव होने से वे कभी भी किसी पर निर्भर न रहें।
दर्शना पाठक ने राजस्थान के वनस्थली विश्वविद्यालय कंप्यूटर साइंस में एमटेक किया है। 15 वर्षों तक देशभर में कई इंजीनियरिंग कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में इंजीनियरिंग पढ़ाती रहीं। ग्वालदम में काफल फार्म शुरू करने से ठीक पहले तक, यानी 2021 तक वे पुणे स्थित सिंबायोसिस यूनिवर्सिटी में डेटा साइंस डिपार्टमेंट में प्रोग्राम हेड के रूप में काम कर रही थीं। यह पूछने पर कि अच्छी खासी जॉब छोड़कर यहां जंगल के बीच स्टार्ट अप शुरू करने का ख्याल कैसे आया?

दर्शना कहती हैं कि उनकी पढ़ाई एक साथ दो तरह से हुई, एक फॉर्मल और दूसरी इनफॉर्मल। बड़े भाई भुवन पाठक का इनफॉर्मल पढ़ाई में बड़ा हाथ रहा। ऐसे में उनकी पढ़ाई का मकसद सिर्फ नौकरी करना न होकर, सेवा करना ज्यादा हो गया। इंजीनियरिंग के साथ ही सोशल वर्क से जुड़ गई। पढ़ाने से पहले कुछ साल बड़ी कंपनियों में भी काम किया। लेकिन, हमेशा मन में यही बात रही कि पढ़ाई का इस्तेमाल कम्यूनिटी के लिए कैसे किया जाए। शादी के बाद पति का भी सहयोग मिला। कोविड लॉकडाउन हुआ तो बहुत कुछ सोचने का समय मिला और आखिरकार काफल फार्म का कॉन्सेप्ट सामने आया।
पहाड़ के बच्चों के भविष्य को लेकर दर्शना बेहद चिन्तित हैं। वो कहती हैं कि “पहाड़ों में बच्चे स्कूल तो जाते हैं, लेकिन उन्हें पता नहीं कि वे पढ़ क्यों रहे हैं। 10वीं या 12वीं पास करके वे शहरों में छोटी-मोटी नौकरियां करने चले जाते हैं और कुछ सालों के बाद टीबी की बीमारी लेकर लौटते हैं। इसके बाद वे अपनी पत्नी और बच्चों के लिए बोझ बन जाते हैं। कैरियर को लेकर कोई दिशा न होने के कारण उनके बच्चे भी फिर उन्हीं का राह पकड़ते हैं और अपने पिता जैसी स्थिति में ही घर लौटते हैं”।
दर्शना के अनुसार उनका प्रयास है कि पहाड़ के ज्यादा से ज्यादा बच्चों को कैरियर को लेकर अवेयर करें और उन्हें एक दिशा दें। फार्म का खर्च कैसे चलता है? वे कहती हैं कि उनके पति मदद करते हैं, कुछ विद्यार्थी अच्छी जगह नौकरी करते हैं, कुछ की अपनी कंपनियां हैं, वे नियमित रूप से आर्थिक मदद करते हैं। यहां रहने वाली बच्चियों को भी यही विद्यार्थी ऑनलाइन तैयारी करवाते हैं। टेंट बुक करवाने वाले गेस्ट के साथ ही फार्म में वर्कशॉप करवाने वाली संस्थाओं से भी थोड़ा-बहुत पैसा हाथ आ जाता है।
कुल मिलाकर सरकार को जो प्रयास करने चाहिए थे, वह नहीं कर पाई। लेकिन, दर्शना पाठक ने अपने दम पर प्रयास किया और दो वर्षों के अंतराल में ही वो काफी कुछ करने में सफल रही हैं। उनकी योजना आने वाले वर्षों में अपने काम को और विस्तार देने की है, ताकि पहाड़ों के किसान, दस्तकार और महिलाएं सम्मानजनक जीवन जी सकें और बच्चे बेहतर भविष्य बनाने की दिशा में शहरी बच्चों के साथ बराबरी कर सकें।
(उत्तराखंड के बागेश्वर से त्रिलोचन भट्ट की ग्राउंड रिपोर्ट।)
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