श्री रामकृष्ण परमहंस: “जतो मत, ततो पथ”, यानी धार्मिक विविधता की स्वीकृति का दर्शन

श्री रामकृष्ण परमहंस (1836–1886) उन्नीसवीं सदी के भारतीय संत और आध्यात्मिक गुरु थे, जिन्होंने सभी धर्मों की एकता पर विशेष ज़ोर दिया। वे मां काली के परम भक्त थे, लेकिन उन्होंने इस्लाम और ईसाई धर्म सहित विभिन्न धर्मों की गहराई से साधना की और स्वयं को उनकी सच्चाई के अनुभवों से गुज़ारा। उनका दर्शन केवल बौद्धिक सोच पर आधारित नहीं था, बल्कि उनके अपने आध्यात्मिक अनुभवों से उपजा था। वे मानते थे कि सभी मार्ग एक ही परम सत्य की ओर ले जाते हैं। उनका जीवन और शिक्षायें भारत और विश्व में धार्मिक चेतना को गहराई से प्रभावित करती रही हैं। स्वामी विवेकानंद सहित कई महान व्यक्तियों ने उनके विचारों को आगे बढ़ाया और धार्मिक समरसता का संदेश फैलाया।  

श्री रामकृष्ण का धार्मिक सहिष्णुता का दृष्टिकोण केवल सैद्धांतिक नहीं था, बल्कि उन्होंने विभिन्न धर्मों की साधना करके उनकी सच्चाई को स्वयं परखा था। उनका मानना था कि जीवन का अंतिम उद्देश्य ईश्वर की प्राप्ति है, और यह विभिन्न मार्गों से संभव है। उनका यह दर्शन आज भी उतना ही प्रासंगिक है क्योंकि यह एक ऐसे विश्व में सामंजस्य स्थापित करने में सहायक है, जो अक्सर धार्मिक और वैचारिक मतभेदों के कारण विभाजित हो जाता है। आज,यानी 18 फ़रवरी को ही रामकृष्ण परमहंस का जन्म हुआ था। यह आलेख आज के बंटे हुए धर्मों के बीच उनके धार्मिक विविधता की स्वीकृति के दर्शन को सामने रखता है।

प्रारंभिक जीवन और आध्यात्मिक यात्रा

श्री रामकृष्ण का जन्म पश्चिम बंगाल के कामारपुकुर गांव में हुआ था। वे बचपन से ही आध्यात्मिक प्रवृत्ति के थे। वे दक्षिणेश्वर काली मंदिर में पुजारी बने और वहां गहन साधना में लीन हो गए। मां काली के प्रति उनकी भक्ति इतनी गहरी थी कि वे बार-बार दिव्य अनुभूतियां करते थे। लेकिन, उनकी आध्यात्मिक यात्रा केवल हिंदू धर्म तक सीमित नहीं रही।

उन्होंने विभिन्न धर्मों की सच्चाई को समझने के लिए इस्लाम, ईसाई धर्म और हिंदू धर्म के विभिन्न संप्रदायों जैसे अद्वैत वेदांत, वैष्णव भक्ति और तंत्र साधना का अभ्यास किया। इन सभी साधनाओं के माध्यम से उन्होंने अनुभव किया कि सभी धर्म एक ही परम सत्य की ओर ले जाते हैं। उनके इन व्यक्तिगत अनुभवों ने धार्मिक समरसता के उनके दर्शन की आधारशिला रखी।

धार्मिक समरसता का दर्शन

श्री रामकृष्ण के धार्मिक समरसता के दर्शन को उनके इस प्रसिद्ध कथन में अभिव्यक्त किया जा सकता है:

“जतो मत, ततो पथ” (अर्थात, जितने विचार, उतने ही मार्ग)।

उन्होंने केवल धार्मिक सहिष्णुता की बात ही नहीं की, बल्कि धार्मिक स्वीकृति पर भी बल दिया। उनका यह विचार कहता है कि सभी धर्म सत्य हैं और वे एक ही परम सत्य की ओर ले जाते हैं। उनके इस दर्शन के प्रमुख पहलू निम्नलिखित हैं:

सभी धर्मों का एक ही लक्ष्य 

श्री रामकृष्ण अक्सर धार्मिक विविधता को समझाने के लिए जल का उदाहरण देते थे। वे कहते थे कि अलग-अलग लोग जल को अलग-अलग नामों से पुकारते हैं-कोई इसे जल (बंगाली) कहता है, कोई पानी (हिंदी) कहता है, और कोई वाटर (अंग्रेज़ी) कहता है-लेकिन आख़िरकार वह एक ही तत्व है। इसी तरह, कोई ईश्वर को काली, राम, अल्लाह या मसीह के रूप में पूजता है, लेकिन परम सत्य एक ही है।

इस सत्य को उन्होंने स्वयं अनुभव किया। जब उन्होंने इस्लाम का अभ्यास किया, तो वे मुस्लिम की तरह कपड़े पहनकर, इस्लामिक तरीक़े से प्रार्थना करते थे और पैग़ंबर मुहम्मद के प्रति गहरी श्रद्धा रखते थे। कहा जाता है कि एक दिन उन्होंने एक दिव्य प्रकाशमान पुरुष को अपनी ओर आते देखा, जो उनसे एकाकार हो गया। उन्होंने पहचाना कि यह पैग़ंबर मुहम्मद थे। इसी प्रकार, जब उन्होंने ईसाई धर्म की साधना की, तो उन्होंने अनुभव किया कि यीशु मसीह ने उन्हें गले लगा लिया है और उनके भीतर समा गये हैं। इन अनुभवों ने उनकी इस मान्यता को मज़बूत कर दिया कि हर धर्म ईश्वर तक पहुंचने का एक मार्ग है।

भक्ति और अद्वैत वेदांत का समन्वय

श्री रामकृष्ण ने भक्ति (ईश्वर की आराधना) और ज्ञान (अद्वैत वेदांत) के बीच संतुलन स्थापित किया। वे मां काली के परम भक्त थे, लेकिन उन्होंने यह भी अनुभव किया कि परम सत्य निर्गुण और निराकार है। उन्होंने यह सिखाया कि ईश्वर के सगुण (साकार) और निर्गुण (निराकार) दोनों रूपों को स्वीकार किया जा सकता है, और प्रत्येक व्यक्ति अपनी प्रवृत्ति के अनुसार किसी भी मार्ग का अनुसरण कर सकता है।

वे कहते थे, “भगवान ने विभिन्न धर्मों की रचना अलग-अलग समय, स्थान और लोगों की ज़रूरतों के अनुसार की है। सभी मत सत्य हैं, लेकिन कोई भी मत स्वयं ईश्वर नहीं है। यदि कोई व्यक्ति पूरे मन से किसी भी पथ का अनुसरण करता है, तो वह ईश्वर तक अवश्य पहुंच सकता है।”

सार्वभौमिक भाईचारा और प्रेम

श्री रामकृष्ण ने कभी भी जाति, धर्म या संप्रदाय के आधार पर लोगों में भेदभाव नहीं किया। उनके लिए प्रेम और करुणा ही धर्म का सार था। वे अक्सर कहा करते थे, “जिसके भीतर करुणा नहीं, उसका कोई धर्म नहीं।” उनके शिष्यों में हिंदू, मुस्लिम और ईसाई सभी शामिल थे, और वे सभी से समान प्रेम और सम्मान के साथ व्यवहार करते थे।

बाद में स्वामी विवेकानंद ने श्री रामकृष्ण की इन शिक्षाओं को विश्वभर में फैलाया और धार्मिक सौहार्द की आवश्यकता पर बल दिया।

अन्य धर्मों की शिक्षाओं से तुलना

श्री रामकृष्ण का धार्मिक समरसता का दृष्टिकोण कई विश्व धर्मों की शिक्षाओं से मेल खाता है:

हिंदू धर्म

भगवद गीता (4.11) में कहा गया है—”जो जिस रूप में मेरी शरण लेता है, मैं उसे उसी रूप में स्वीकार करता हूं; सभी मार्ग अंततः मुझ तक ही आते हैं।” यह श्री रामकृष्ण की मान्यता के अनुरूप है कि सभी धर्म एक ही ईश्वर की ओर ले जाते हैं।

इस्लाम

कुरान (2:62) में कहा गया है—”जो लोग ईश्वर पर और अंतिम दिन पर विश्वास करते हैं और अच्छे कर्म करते हैं, उनके लिए ईश्वर के पास इनाम है।” यह धार्मिक समरसता के उनके विचार को दर्शाता है।

ईसाई धर्म

यीशु मसीह ने कहा था—”अपने पड़ोसी से उसी तरह प्रेम करो, जैसे तुम स्वयं से करते हो।” (मरकुस 12:31)। श्री रामकृष्ण ने इसी भावना को अपनाया और सभी धर्मों के अनुयायियों को गले लगाया।

बौद्ध धर्म

बौद्ध धर्म का उपाय (यथायोग्य साधन) सिद्धांत यह कहता है कि अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग आध्यात्मिक मार्ग उपयुक्त होते हैं, जो श्री रामकृष्ण के विचार से मेल खाता है।

आज के समय में प्रासंगिकता

आज जब धार्मिक संघर्ष और असहिष्णुता बढ़ रही है, श्री रामकृष्ण का दर्शन अधिक महत्वपूर्ण हो गया है। उनकी शिक्षायें दुनिया में शांति और सद्भाव स्थापित करने का मार्ग दिखाती हैं। उनका दर्शन धार्मिक समुदायों के बीच सार्थक संवाद को बढ़ावा देता है। उनका जीवन हमें सिखाता है कि धार्मिक आस्था को कठोर नहीं होना चाहिए, बल्कि व्यक्ति की आत्मिक आवश्यकताओं के अनुसार होना चाहिए। वे हमें यह भी सिखाते हैं कि संपूर्ण मानव जाति एक ही परिवार है, चाहे हम किसी भी धर्म, जाति या संस्कृति के हों।

अंतत:

श्रीरामकृष्ण परमहंस का दर्शन सद्भाव, समावेशिता और स्वीकृति को बढ़ावा देता है और संकीर्णता व धार्मिक कट्टरता का विरोध करता है। यह प्रत्येक व्यक्ति को अपने चुने हुए मार्ग को ईमानदारी से अपनाने और दूसरों के विश्वासों का सम्मान करने के लिए प्रेरित करता है। आधुनिक युग में उनका “जतो मत, ततो पथ” का सिद्धांत आपसी संवाद, सामाजिक समरसता और विविध समाज में सहअस्तित्व के लिए एक महत्वपूर्ण सिद्धांत बना हुआ है, जो शांति और पारस्परिक सम्मान को बढ़ावा देता है।

इस तरह,श्री रामकृष्ण परमहंस का धार्मिक समरसता का दर्शन आज भी विश्व के लिए एक प्रकाश स्तंभ है। उनके विचार हमें प्रेम, सहिष्णुता और आपसी सम्मान के माध्यम से शांति और एकता की ओर ले जाते हैं। उनका संदेश सदैव मानवता को प्रेरित करता रहेगा।

(उपेंद्र चौधरी वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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