नई दिल्ली। आज सबकी निगाह महाराष्ट्र मामले में सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले पर टिकी हुई है जिसे सुबह 10.30 बजे आना है। लेकिन इसके साथ ही तमाम ऐसी प्रक्रियागत और विधायी चीजें भी हैं जिनको लेकर लोगों के जेहन में तमाम तरह के किंतु-परंतु चल रहे हैं। मसलन सदन की बैठक कौन बुलाएगा? सदन का संचालन कौन करेगा? ह्विप जारी करने का अधिकार किसको है? इसमें कितना गवर्नर और कितना सुप्रीम कोर्ट भूमिका निभाएंगे यह भी एक बड़ा सवाल बना हुआ है।
शुरुआत करते हैं असेंबली बुलाए जाने के अधिकार से। संविधान के तहत राज्यपाल विधानसभा का सत्र बुलाता है। लेकिन बहुत सारे मौके ऐसे आए हैं जब सुप्रीम कोर्ट ने सीधे असेंबली की बैठक बुलायी है। ऐसा तब हुआ है जब सदन में बहुमत का परीक्षण होना था।
कुछ दिनों पहले कर्नाटक में इसी तरह का मसला सामने आया था। जब चुनाव में त्रिशंकु विधानसभा बनी थी। और राज्यपाल ने बीएस येदुरप्पा को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाकर उन्हें बहुमत सिद्ध करने के लिए 15 दिन का समय दिया था। उसी बीच कांग्रेस और जेडीएस ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा दिया। जिसका संज्ञान लेते हुए सुप्रीम कोर्ट ने बहुमत के परीक्षण के लिए शनिवार को ही विधानसभा की बैठक बुला दी।
दूसरा मसला है विधानसभा की कार्यवाही के संचालन का। आमतौर पर यह काम स्पीकर करता है। और स्पीकर का चुनाव किसी भी नयी चुनी गयी विधानसभा का पहला विधायी काम होता है। और यह काम विधायकों के शपथ ग्रहण के तुरंत बाद संपन्न किया जाता है।

लेकिन अक्सर उन केसों में जिनमें कि सदन में बहुमत का परीक्षण होना है। इस काम को फ्लोर टेस्ट के बाद किया जाता है। स्पीकर की गैरमौजूदगी में राज्यपाल किसी विधायक को इस काम को संपादित करने के लिए नियुक्त करता है जिसे प्रोटेम स्पीकर कहा जाता है। प्रोटेम स्पीकर के तौर पर नियुक्त यह शख्स विधायकों को सबसे पहले शपथ दिलाता है और उसके तुरंत बाद फ्लोर टेस्ट के काम को संपन्न कराता है।
जहां तक प्रोटेम स्पीकर के चुनाव की बात रही तो संविधान द्वारा राज्यपाल को इस मामले में विवेवाधिकार हासिल है। ज्यादातर मौकों पर राज्यपाल सदन के सबसे वरिष्ठ सदस्य को प्रोटेम स्पीकर के तौर पर नियुक्त कर देता है। हालांकि यह सिर्फ परंपरा है और कई मौकों पर राज्यपाल इसको तोड़ते हुए भी दिखे हैं।
जैसा कि कल भी जनचौक ने बताया था कि 2018 के कर्नाटक के फ्लोर टेस्ट में गवर्नर वाजूभाई वाला ने बीजेपी एमएलए केजी बोपैय्या को प्रोटेम स्पीकर बनाया था। हालांकि बोपैय्या दो बार स्पीकर रह चुके थे लेकिन वह सदन के सबसे वरिष्ठ सदस्य नहीं थे। सदन के वरिष्ठ सदस्य कांग्रेस से जुड़े थे। गवर्नर के इस फैसले को जेडीएस ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती भी दी थी लेकिन कोर्ट ने उसको खारिज कर दिया था। बाद में बोपैय्या ने ही पूरी सदन की कार्यवाही का संचालन किया।
अब सवाल बनता है कि क्या प्रोटेम स्पीकर के पास सदन के संचालन का पूरा अधिकार होता है? ऐसा नहीं है। पिछले दिनों जब भी कोर्ट ने किसी फ्लोर टेस्ट का आदेश दिया है तो उसमें कई तरह के उसने सुरक्षात्मक उपायों के भी निर्देश दिए हैं। 2018 के कर्नाटक मामले में कोर्ट ने पूरी कार्यवाही के सीधा प्रसारण का निर्देश दिया था। झारखंड में 2005 के फ्लोर टेस्ट के दौरान कोर्ट ने सूबे के मुख्य सचिव और डीजीपी को यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया था कि सभी विधायक सदन की कार्यवाही में भागीदारी कर सकें।

इन दोनों मामलों में कोर्ट ने विधानसभा में एक एंग्लो इंडियन के मनोनयन भी रोक लगा दी थी। क्योंकि नामित होने के बाद उसके सरकार के साथ खड़े होने की आशंका थी।
2016 के उत्तराखंड फ्लोर टेस्ट में कोर्ट ने दोनों पक्षों के विधायकों को अलग-अलग आमने-सामने खड़ा होने का निर्देश दिया था। जिससे हाथ उठाकर उनकी भौतिक तौर पर गिनती करना आसान रहे। बहुमत परीक्षण के इस नतीजे को सील बंद लिफाफे में सुप्रीम कोर्ट भेज दिया गया था।
महाराष्ट्र मामले में अब आखिरी बात आती है कि अजीत पवार क्या-क्या खेल खेल सकते हैं। दल-बदल विरोधी प्रावधान के तहत संविधान सदन में एक राजनीतिक पार्टी के सभी चुने विधायकों को विधायकों के एक समूह के तौर पर परिभाषित करता है। हालांकि संविधान एक विधायक समूह के नेता को परिभाषित नहीं करता है।
अक्सर राजनीतिक पार्टियां अपने दस्तावेजों में विधायक दल के नेता के तौर पर इसका जिक्र करती रहती हैं। इस नेता का चुनाव उस पार्टी के विधायकों का समूह ही करता है।
मौके मौके पर पार्टी इस नेता को किसी खास तरीके से वोट करने के लिए अधिकृत करती रहती है। ऐसे विधायक जो पार्टी की तरफ से नेता द्वारा दिए गए ह्विप का उल्लंघन करते हैं उनकी सदस्यता को सदन से खारिज किया जा सकता है।

शनिवार को 41 सदस्यों की अपनी बैठक में एनसीपी विधायकों ने अजित पवार को अपने नेता पद से बर्खास्त कर दिया।
सोमवार को शरद पवार ने महा विकास अघाड़ी गठबंधन के विधायकों को संबोधित करते हुए कहा कि एक झूठा प्रचार किया जा रहा है कि अजित पवार एनसीपी विधायक दल के नेता हैं और वही बीजेपी के पक्ष में वोट करने के लिए एनसीपी के सभी विधायकों को ह्विप जारी करेंगे। और साथ ही यह भी कहा जा रहा है कि जो भी ह्विप का उल्लंघन करेगा उसकी सदस्यता चली जाएगी।
उन्होंने कहा कि “अजीत पवार जिन्हें नेता पद से बर्खास्त कर दिया गया है उनके पास अब ह्विप जारी करने का कोई भी वैधानिक अधिकार नहीं है”।
तो आखिर सवाल यह बचता है कि क्या विधायक दल के नेता की गैरमौजूदगी में एनसीपी अपने विधायकों को ह्विप जारी कर सकती है? दल-बदल विरोधी कानून में यह साफ-साफ चिन्हित किया गया है कि एक पार्टी विधायकों को ह्विप जारी करने के लिए खुद या फिर किसी दूसरे शख्स या अथारिटी को अधिकृत कर सकती है। शनिवार को संपन्न हुई एनसीपी की बैठक में विधायक दल के नेता की शक्ति राज्य पार्टी के अध्यक्ष जयंत पाटिल को सौंप दी गयी।
(कुछ इनपुट इंडियन एक्सप्रेस से लिए गए हैं।)
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