दिशाहीन हो चुका है मध्य वर्ग

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भारतीयों का एक बड़ा वर्ग जो मूल्यों और नैतिकता की बात करते नहीं थकता, वह मौका पड़ने पर घोर अवसरवादी हो जाता है। सब नहीं, पर ज्यादातर लोग ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ की परंपरा के होते हैं। यह वर्ग मूल्यों और नैतिकता की बात तभी करता है, जब वह सेफ जोन में होता है।

वह तभी तक नैतिकतावादी होता है, जब तक उसके हित नहीं प्रभावित होते हैं। जैसे ही उसके हित प्रभावित होते हैं, वह मूल्यों से किनारा करने में देर नहीं लगाता। वह त्याग, तपस्या आदि गुणों को महापुरुषों के लिए ही आरक्षित मानता है। वह राम और भरत के सिंहासन-त्याग को लेकर खूब विह्वल होता है, लेकिन थोड़ी सी जमीन जायदाद को लेकर कहो अपने ही भाई के खिलाफ मुकदमा कर दे। 

ऐसे लोग अतीत पर गर्व करो, पर वर्तमान को अपने हिसाब से जियो वाले होते हैं। उसकी राजनीतिक चेतना स्वतंत्र मूल्यों से नहीं, अपितु जाति और सांप्रदायिक सोच से निर्मित होती है। वह मनपसंद रंग का चश्मा पहनकर दुनिया को देखने की हसरत पाले हुए हैं। अपने पसंद के नेता की सौ बुराइयों को वह सह सकता है, पर रहेगा उसी के साथ। शुचिता को सुविधा के हिसाब से अपनाएगा।

 भारत में अगर आज कोई घोर अवसरवादी वर्ग है, तो वह है मध्य वर्ग। वही वर्ग जिसने स्वतंत्रता आंदोलन में महती भूमिका निभाई थी। दुर्भाग्य से आज वही दिशाहीन है। इसने अपने राष्ट्रनायकों के साथ सर्वाधिक विश्वासघात किया है। फिर चाहे वो भगत सिंह हों, सुभाषचंद्र बोस हों, आजाद हों या स्वामी विवेकानंद। इन सभी नायकों की फोटो को इस्तेमाल करना और उन्हें अपने घर, दफ्तर की सजावट की वस्तु बना देना इसी मध्य वर्ग का कौशल है। पर वह शिक्षा इनसे भूले से भी नहीं लेता। बातें आदर्शवाद की करेगा और आचरण बिलकुल उसके विपरीत।

वह कबीर को प्रायः ही उद्धृत करता है, पर अन्य नायकों की तरह इन्हें भी जीवन में उतारने से सहज परहेज करता है। वह भगत सिंह और सुभाष बाबू को याद तो करेगा, भावुक श्रद्धांजलि भी देगा, पर उनके विचारों पर चर्चा नहीं करेगा। वह उनके साहस की बढ़-चढ़ कर प्रशंसा करेगा, लेकिन उनकी शिक्षाओं को दरकिनार कर प्रेरणा सांप्रदायिक तत्त्वों से लेगा। यह अपने अतीत को पढ़ना भूल चुका है। पढ़ने का काम वह अपने नेतृत्वकर्ताओं को सौंप चुका है, लिहाजा वह सूचनाओं से भी कट चुका है। इसका फायदा उसके हित के नाम पर राजनीतिक नेतृत्व उठाता है। घोर आत्मकेंद्रीकता के चलते वह सर्वसमाज के मूल्यों से कट चुका है। वह लामबंदी के गुर सीख रहा है।

वह इतिहास को पढ़ना नहीं चाहता, वह सिर्फ पार्टी के आईटी सेल के फॉर्वर्डेड मैसेज पढ़ता है और उसको ही आगे बढ़ाता है। वह अपने स्वतंत्रता आंदोलन के उन नायकों के प्रति अनैतिकता की हद तक निष्ठुर हो चुका है, जिन्होंने सबको साथ लेकर चलने की शिक्षा दी है। वह सांप्रदायिक शक्तियों की कठपुतली बन चुका है। उच्च वर्ग तो वैसे भी अपनी जड़ों से कटा हुआ भौतिकतावादी है। आशा मध्य वर्ग से थी, लेकिन उसकी हालत आज सर्वाधिक खराब है।

 वह स्थापित विचारधारा पर तर्क-वितर्क नहीं करता और विचारधारा से भी ज्यादा वह विचारधारा के घोषित नायक के प्रति समर्पित हो, उसका अंधानुयायी हो जाता है, भले ही उस नेतृत्व का आचरण विचारधारा के स्थापित मानकों के खिलाफ हो। 

अगर यहां एक बार किसी का नायकत्व स्वीकार कर लिया गया, फिर उसके आचरण पर सवाल खड़े करने अधिकार किसी को नहीं होता।  यह मानसिक दासता है। चालाक नेतृत्व ने सांप्रदायिक चौहद्दी में रच-बस गए मध्य और निम्न मध्य वर्ग को अन्य धर्मों के कल्पित भय दिखाकर एकजुट कर दिया है। ऐसे में ध्रुवीकृत समुदाय एक ठोस वोटबैंक में तब्दील हो, सत्ता प्राप्ति में सहायक बनता है। इसीलिए राजनीतिक नेतृत्व नए-नए तरीकों से ध्रुवीकरण को यथावत रखना चाहता है। सजातीयता और सांप्रदायिकता इसमें सहायक होती है। 

हम इतने संकीर्ण हो जाते हैं कि हम नेतृत्व के अनैतिक कामों को भी नजर अंदाज करते हैं और नेतृत्व को तो यही चाहिए ही। यह प्रवृत्ति नागरिकों को मानव भेड़ों रूपांतरित कर देती है। यही कारण था कि जब आडवाणी, जोशी और सिन्हा को किनारे किया गया तो प्रतिरोध के स्वर कहीं से न सुनाई दिए। यही कारण था कि किसान कानूनों के स्थापित प्रक्रियाओं से इतर पास करने के तरीके पर समर्थकों की तरफ से कोई आवाज नहीं आई। क्योंकि प्रतिबद्धता पार्टी नेतृत्व के प्रति थी न कि संवैधानिक मूल्यों के प्रति। 

यही कारण था कि प्राण प्रतिष्ठा का समय भगवान राम के जन्म के पहले निर्धारित करने, उसे इवेंट में तब्दील करने और चारों शंकराचार्यों की अनुपस्थिति को लेकर किसी को अफसोस नहीं हुआ। उल्टे शंकराचार्य ही निशाने पर लिए गए। हम बस निर्देशों का यंत्रवत अनुपालन करने वाले बनकर रह जाते हैं।

हम सवाल नहीं करते उल्टे सवाल करने वालों पर सवाल करते हैं। हम विधायकों की अनगिनत पेंशनों पर सवाल नहीं कर पाते। लोग बड़ी अर्थव्यवस्था का गाना गाते हैं, लेकिन बेरोजगारी पर नहीं बोलते, वे भारत पर बढ़ते कर्ज की चिंता नहीं करते। वे वैश्विक डंका की बात करते हैं, पर मणिपुर पर मुंह नहीं खोलते।

क्या पीएम केयर फंड का हिसाब न दिये जाने पर कहीं कोई असंतोष दिखा? नहीं न! 

ऐसी स्थिति हर पार्टी के अंधानुयाइयों की होती है। ऐसे में हम मूल्यों के नहीं, बल्कि व्यक्ति के उपासक हो जाते हैं, अपनी वैचारिक सत्ता को गिरवी रखकर। दुष्यंत जी का यह शेर बड़ा मौजूं है: 

‘रहनुमाओं की अदाओं पर फ़िदा है दुनिया, इस बहकती हुई दुनिया को संभालो यारो’

(संजीव शुक्ल का लेख।)

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