एक ऐसे देश में जहां न्यायमूर्ति तक यह कहने लगे हैं कि देश बहुसंख्यक की इच्छानुसार चलेगा, बहुत कम लोगों को पता होगा कि आज यानी 18 दिसंबर को ‘अल्पसंख्यक दिवस’ है। तब क्या हमें यह जान नहीं लेना चाहिए कि आखिरकार अल्पसंख्यकों के भी कुछ नहीं, बहुत सारे बल्कि बहुसंख्यकों की तरह ही अधिकार होते हैं। इस बारे में अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन रूजवेल्ट के कथन को अक्सर उद्धृत किया जाता है। उन्होंने कहा था, ‘कोई भी लोकतंत्र लंबे समय तक जीवित नहीं रह सकता अगर वह, अल्पसंख्यकों के अधिकारों की मान्यता को अपने अस्तित्व के लिए मौलिक नहीं मानता।’
इस संबंध में, संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 18 दिसंबर, 1992 कोअल्पसंख्यक अधिकारों के महत्व को स्वीकार करते हुए, ‘राष्ट्रीय या जातीय, धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों से संबंधित व्यक्तियों के अधिकारों पर एक घोषणा-पत्र भी जारी किया था।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 29(1) में यह व्यवस्था दी गई है कि भारत के राज्यक्षेत्र या उसके किसी भाग में निवास करने वाले नागरिकों के किसी वर्ग को, जिसकी अपनी विशिष्ट भाषा, लिपि या संस्कृति हो, उसे संरक्षित रखने का अधिकार होगा।
रोचक तथ्य यह भी है कि सर्वोच्च न्यायालय ने लगातार यह माना है कि अल्पसंख्यकों को राज्य स्तर पर परिभाषित किया जाना चाहिए। चूंकि पंजाब, कश्मीर और पूर्वोत्तर राज्यों में हिंदू धार्मिक अल्पसंख्यक हैं, इसलिए उन्हें अल्पसंख्यक अधिकार प्राप्त हैं। भारत में सैकड़ों हिंदू अल्पसंख्यक संस्थान हैं।
अब जरा, सर्वोच्च न्यायालय की व्यवस्था के मद्देनजर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति शेखर कुमार यादव के विश्व हिंदू परिषद के कार्यक्रम में दिए गए व्याख्यान को याद करें, जहां उन्होंने कहा था ” देश बहुसंख्यकों की इच्छा से चलेगा।”
अगर न्यायमूर्ति की बात को ऊपर रखा जाए तो क्या पंजाब, कश्मीर या पूर्वोत्तर राज्यों में भी ‘बहुसंख्यकों की इच्छा’ हावी नहीं होनी चाहिए ?
यह मानने भी कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि आज के दौर में भाजपा शासित राज्यों में अल्पसंख्यकों की मुश्किलें बढ़ी हैं। जरूरत है कि इस तरह की कारगुजारियों को जल्द से जल्द विराम दिया जाना चाहिए, वर्ना कहीं बहुत देर न हो जाए।
(राम पाठक स्वतंत्र पत्रकार हैं)
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