दो साल गुजर गये। भारत में लुप्त हुए चीता को दोबारा इस जमीन पर जिंदा करने के लिए नामीबिया से चीतों को लाने की योजना थी। कुछ को दक्षिण अफ्रीका से लाना था। मोदी सरकार ने इसे अपनी उपलब्धियों के खाते में जमा करने के लिए इस पर जोर दिया और चीतों को भारत की भूमि पर लाने की प्रक्रिया शुरू हो गई। उस समय इस प्रोजेक्ट को लेकर जितना प्रचार किया गया और खुद मोदी को जिस तरह चीतों की साम्यता के साथ पेश किया गया वह आने वाले समय में तब विवादास्पद हो गया जब कुछ ही महीनों के गुजरने के साथ इन आये चीतों की मौत होने लगी। इस मामले में खुद सर्वोच्च न्यायालय ने हस्तक्षेप किया था और इस मामले में जानकारी ली थी और कुछ महत्वपूर्ण सुझाव भी दिये थे।
अब इस चीता प्रोजेक्ट को लागू हुए दो साल हो गये। एक बार फिर इस परियोजना से जुड़ी समस्याओं और इसकी असफलताओं को लेकर सवाल उठ रहे हैं। अब तक की आई खबरों के अनुसार ये चीते अब भी कूनो नेशनल पार्क में छोड़े नहीं गये हैं। प्रयोग के तौर पर कुछ चीतों को गुजरे साल में छोड़ा गया था, जिसमें कुछ चीतों की मौत हो गई थी। इसके बाद एक चीता, पवन को जंगल में छोड़ा गया। बाकी अब भी पिजड़े में बंद हैं।
मूल योजना के मुताबिक तो चीतों के आने के दो महीने के अनुकूलन के बाद जंगल में छोड़ देना था। इस परियोजना से जुड़े अधिकारियों को उम्मीद थी कि आने वाले समय में सभी चीतों को जंगल में आजाद जिंदगी जीने के लिए छोड़ा जाएगा लेकिन फिलहाल तो ऐसी उम्मीद निकट समय में संभव नहीं लग रही है। यही कारण है कि कई खबरों में इस परियोजना की सफलता को लेकर सवाल उठ खड़ा हुआ है।
यदि संख्या के हिसाब से देखा जाये तब इस प्रोजेक्ट में उम्मीद से अधिक सफलता दिख रही है। पहले साल में जिस तेजी से चीतों की मौत हुई थी उसकी तुलना में यह अनुमान था कि चीतों की संख्या, खासकर बच्चों की संख्या में 50 प्रतिशत से अधिक बढ़ने की उम्मीद नहीं थी। लेकिन, रिपोर्ट के मुताबिक 70.5 प्रतिशत बच्चे जीवित रहे। इस समय 13 बड़े और 12 बच्चे चीते हैं। यानी कुल 25 चीते हैं। यहां यह ध्यान रखना होगा कि इनकी देखरेख के लिए 24 घंटे की निगरानी है और यह काम पशु चिकित्सक और अन्य कर्मचारी करते हैं। इस निगरानी और देखभाल में निश्चित ही इन चीतों की संख्या में वृद्धि हुई है लेकिन लंबे समय तक उन्हें पिजड़े में रखना उनकी शारीरिक क्षमता को प्रभावित करेगा। दूसरे उन्हें इस तरह बढ़ती संख्या के साथ रखने से न सिर्फ प्रबंधन की समस्या आएगी, साथ ही जगह की कमी की वजह से चीतों की मानसिक अवस्था में भी परिवर्तन आयेगा।
अफ्रीकी चीतों के अध्ययन के आधार पर यह माना गया था कि कूनो जंगल में उनकी गति और क्षेत्र के चुनाव के आधार पर 21 चीते रखे जा सकते हैं। एक चीता 600 से 3000 वर्ग किमी के दायरे में घूमता है। कूनो का क्षेत्रफल 3200 वर्ग किमी है। वन अधिकारियों का मानना है कि यहां 12 से अधिक चीतों को रखना संभव नहीं है। प्रयोग के तौर पर जब दो चीतों को जंगल में छोड़ गया तब वे इस जंगल के दायरे से बाहर 100 किमी दूर निकल गये थे। ऐसे में उनका मानव के साथ भिडंत की संभावना काफी बढ़ जाती है। लेकिन, इससे भी बड़ी समस्या जंगल में रहने वाले तेंदुए से मिलने वाली चुनौती है। यहां उनकी संख्या 80 मानी जाती है। यह माना जा रहा है कि भारत के तेंदुए चीतों के साथ पिछले 75 सालों से नहीं रहे हैं। ऐसे में उनका चीतों के साथ व्यवहार क्या होगा, यह कहना मुश्किल है।
इन चीतों के लिए कूनो जंगल में पिछले समय में 1000 चीतल छोड़े गये। ये चीते उनका शिकार करने की स्थिति में नहीं दिखें। एक खबर के अनुसार उन्हें मारकर बकरी और भैंसे दिये गये। कई बार ये चीते जंगल में भूखे हुए मिले। इसी साल के जाड़े में इस संबंध में काफी खबरें आईं कि इन चीतलों का शिकार कौन कर रहा है। इस रहस्य से पर्दा उठाने वाली फिलहाल तो कोई खबर नहीं आई, लेकिन यह भी सच है कि तेंदुए और चीतों के बीच किसी तरह की कोई भिड़ंत की खबर भी सामने नहीं आई।
नवभारत टाइम्स में पी. नवीन की रिपोर्ट के मुताबिक एक वन अधिकारी ने बताया कि अफ्रीका में तेंदुए और शेर अक्सर चीतों को मारकर उनका शिकार छीन लेते हैं। संभवत: अफ्रीकी चीतों में यह अनुभव उनके व्यवहार का हिस्सा बन गया हो। बहरहाल, कूनो में इन चीतों ने जब भी शिकार किया, वे अपने शिकार को पूरी सफाई के साथ खाते हैं। लेकिन, अक्सर यह भी देखा गया कि वे शिकार में असफल रहे और भूखे मिले। ऐसे में वन अधिकारी ही उन्हें अपनी निगरानी में भोजन उपलब्ध कराते हैं।
भारत में चीता को एक बार फिर से वन्य जीवन का हिस्सा बनाने वाली परियोजना अब तक कई ऐसी समस्याओं से जूझ रहा है, जिनका निराकरण फिलहाल होते हुए नहीं दिख रहा है। अफ्रीकी चीते वहां के मौसम के अनुकूलन में रहे होने की वजह से जुलाई से सितम्बर के बीच वहां की ठंड से बचने के लिए अपने शरीर पर बाल बढ़ाते हैं। जबकि इसी समय में भारत में मौसम बेहद उष्ण और नमी भरा होता है। ऐसे में उनके संक्रमित होने का खतरा बना रहता है। दूसरे, उनके शिकार की उपलब्धता मुख्यतः जंगली बकरियां और भैंसे हैं जबकि भारत में अमूमन चीतल और अन्य जानवर हैं। तीसरे, अफ्रीका में चीतों को पीछे धकेलने और यहां तक कि उन्हें मारकर उनका शिकार छीन लेने का काम वहां के तेंदुए और शेर किया करते हैं।
भारत के तेंदुए अफ्रीका की तुलना में छोटे हैं लेकिन उनकी संख्या यहां के जंगलों में पर्याप्त है। उनकी उपस्थिति निश्चित ही चीतों की उन्मुक्तता को प्रभावित करेगी। इन सारी समस्याओं के अतिरिक्त एक बड़ी समस्या सरकार और कोर्ट की ओर से लगातार बनी रहने वाली वह निगरानी है, जिसमें वन अधिकारियों की मुख्य जिम्मेवारी उनकी जिंदगी को बचाकर रखना हो गया है। ऐसे में, इन चीतों को वन्य जीवन नसीब न होना ही एक बड़ी चुनौती बन गई है।
रेडिफ.कॉम ने प्रसिद्ध वाइल्डलाइफ कार्यकर्ता अजय दुबे से फिरदौस अशरफ से की गई बातचीत को प्रकाशित किया है। अजय दुबे ने इस चीता परियोजना को लेकर दो बार सूचना के अधिकार के आधार पर इससे जुड़ी जानकारी मांगी। उन्हें मांगी गई सूचना ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ के मद्देनजर नहीं दी गई। वह इस परियोजना को लेकर सूचना न मिलने के पीछे का कारण इस साक्षात्कार में बताते हैंः ‘संभवतः चीतों का स्वास्थ्य अच्छा नहीं है। संभवतः कूनो में वित्तीय प्रबंधन में खामी है। संभवतः सरकारी अधिकारी सूचना बाहर जाने को लेकर डरे हुए हैं।’
बहरहाल, इतना तो साफ है कि यह परियोजना न तो जंगल से एकाकार हो पाया और न ही लोगों के कुतूहल के बाद भी उनके साथ कोई साबका हो पाया। यह चीता परियोजना अब भी प्रयोग की आरम्भिक अवस्था में ही है। इस परियोजना के आगे न बढ़ने का अर्थ होगा इन चीतों को वन्य जीवन न देना। दो साल एक बड़ी अवधि है। मूल परियोजना में दो महीने का अनुकूलन का दो साल में बदलना चिंताजनक है और प्रबंधन की असफलता भी। यह चीतों के उनके जंगल जीवन से निकालकर यहां परियोजना की तैयारी में ही सही, कैद कर देने जैसा है।
(अंजनी कुमार लेखक और स्वतंत्र पत्रकार हैं)
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