नैनीताल : एक खूबसूरत झील पर मंडराता संकट

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गर्मी की मार अभी शुरू भी नहीं हुई थी कि नैनीताल के गिरते जल-स्तर की खबर आने लगी थी। इसी साल के मार्च के अंतिम हफ्तों में प्रतिदिन 0.5 इंच के हिसाब से इस खूबसूरत झील का जल-स्तर नीचे गिर रहा था। पिछले 5 सालों में पानी का स्तर 4.7 फीट नीचे आ गया है।

नैनीताल, जहाँ पूरे साल प्रत्येक हफ्ते के शनिवार और रविवार को वीकेंड मनाने वालों की भीड़ से भरा रहता है और गर्मियों में यह शहर पर्यटकों से उफनने लगता है, वहाँ पानी की आपूर्ति के मुख्य स्रोत में आ रहा संकट एक बड़ी चेतावनी की तरह है। लेकिन उससे भी अधिक, यह शहर प्रशासनिक केंद्र होने और मैदानी क्षेत्र के करीब होने से लगातार आवासीय भवनों से भरता गया है। इससे पानी की माँग भी बढ़ी है। जबकि पिछले तीन सालों में पर्यावरण का बदलाव शहरीकरण के कत्तई अनुरूप नहीं है।

अक्टूबर 2024 से मार्च 2025 के बीच बर्फबारी न के बराबर देखी गई। बारिश की भी यही स्थिति रही। बताया जा रहा है कि 2022 की तुलना में यह 90 प्रतिशत की गिरावट है। जबकि नैनीताल की कुल पेयजल आपूर्ति का 76 प्रतिशत इसी झील से होता है। इस झील से उत्तराखंड जल संस्थान प्रतिदिन 10 मिलियन लीटर से अधिक जल का दोहन करता है। अप्रैल के महीने में इसे कम करने की बात भी संस्थान की ओर से आई है।

23 मार्च 2025 को सोनाली मिश्रा की द टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट में झील में पानी के स्रोतों की कमी और इसमें सीवेज की मात्रा बढ़ने से यहाँ बीमारियों की संख्या में वृद्धि देखी जा रही है। खासकर किडनी की बीमारी में वृद्धि देखी गई है। इस संदर्भ में आई खबरों को उत्तराखंड उच्च-न्यायालय ने ‘मामले को देखने’ का निर्णय लिया है। इस झील की जल पारदर्शिता में 25 सेमी की गिरावट देखी गई है। यह 150 सेमी से 126 सेमी तक पहुँच गई है।

आमतौर पर इस गिरते जल-स्तर और जल संकट को बारिश की कमी और ऊँचे इलाकों में बर्फबारी में गिरावट का एक बड़ा कारण माना जा रहा है। इसके अतिरिक्त, इसमें आकर मिलने वाली जल धाराओं में गिरावट भी एक बड़ा कारण है। पिछले पाँच सालों से नैनीताल में पानी का जल-स्तर असामान्य तौर पर ऊपर-नीचे होता रहा है। इसका एक तात्कालिक कारण इसके सीधे जल-स्रोतों में उपलब्ध जल से जुड़ा है। लेकिन इसके स्थिर जल-स्रोत को लेकर जितनी चिंता प्रकट की जानी चाहिए, वह अब भी नदारद है।

पर्यावरण में आ रहे संकट, खासकर बढ़ती गर्मी ने बर्फबारी के दिनों को ही सिर्फ कम नहीं किया है, इसकी कुल मात्रा और इसके लंबे समय तक बने रहने की क्षमता को भी प्रभावित किया है। दूसरा, नैनीताल के साथ कुल 7 झीलों की एक श्रृंखला है और ये एक-दूसरे से किस तरह जुड़ी हुई हैं, इसे लेकर समय-समय पर रिपोर्ट भी आती रही है। नैनीताल से सटा हुआ एक झील सुखताल है। इस झील को कचरा फेंकने का एक केंद्र बना दिया गया, खासकर निर्माण से जुड़े ठोस कचरे से यह पटने लगा था।

2021 में कुमाऊँ विश्वविद्यालय के रिटायर्ड प्रोफेसर अनिल बिष्ट ने इस मसले को उठाया और उच्च-न्यायालय के हस्तक्षेप से इसके किनारों पर चल रहे निर्माण को रोका गया। यदि हम और पीछे की तरफ जाएँ, तो 1993 में सर्वोच्च न्यायालय ने यहाँ व्यावसायिक भवनों के निर्माण पर रोक लगाई थी। ‘होमस्टे’ के नाम पर निर्माण जारी रहा। यह निर्माण एकदम झील के किनारों और निचले नम इलाकों में होता गया। कई सारे गदेरों (नालों) के किनारों को कम करते हुए निर्माण किए गए।

वर्तमान में नैनीताल में गिरते जल का जो रिकॉर्ड कायम हुआ है, इससे भी कम जल-स्तर 2017 में था। तब भी इस मसले पर काफी बात हुई थी। उस समय पाया गया था कि इस झील के कुल 60 प्राकृतिक जल स्रोतों में से 30 या तो सूख गए थे या गायब हो चुके थे। उस समय समुद्र तल से लगभग 2000 फीट ऊँचाई वाले इस शहर में पेड़ काटने की घटनाओं को भी दर्ज किया गया था। ऐसे तो कोर्ट की ओर से यह आदेश है कि झील के पाँच किमी के दायरे में पेड़ न काटे जाएँ, लेकिन यह काम कई बार खुद वन विभाग की ओर से भी किया गया।

शहरीकरण का दबाव निश्चित तौर पर पेड़ों की कटाई, जल स्रोतों पर दबाव या उनका नष्ट होना और कचरे के निपटान में वन क्षेत्र को प्रभावित करता है। यह प्रभाव पहले दिन से ही दिखने लगता है। वाहनों और ईंधन का बड़े पैमाने पर प्रयोग पर्यावरण में एक ऐसे स्थायी प्रभाव को पैदा करता है, जिसका असर अपरोक्ष किंतु समय के साथ दिखता है। इन सबके नतीजों में एक बड़ी चिंता की बात झील के तल में भरने वाली गाद भी है।

आज जब देश के सभी बड़े महानगर प्रदूषण की मार से कराह रहे हैं और साँस लेना जहर पीने की तरह हो गया है, प्रकृति की गोद में जाने की लालसा से कौन रोक सकता है। पहाड़ और जंगल में खुली हवा की चाहत चाहे जितनी अच्छी हो, आज वहाँ पर भी स्थिति भयावह हो रही है। खुद जंगल विकास की भेंट चढ़ रहे हैं और पहाड़ पर्यटन उद्योगों में नष्ट हो रहे हैं।

पूरी दुनिया पूँजीवाद की साम्राज्यवादी आकांक्षाओं में न सिर्फ युद्ध की चपेट में आ रही है, इसकी हवस में धरती का कुल तापमान आम इंसानों के जीने पर सवाल खड़ा कर रहा है। यह भी पूँजीवाद की भयावह हवस में सजाया गया वह जुल्म है, जिसमें प्राकृतिक जीवन लगातार नष्ट हो रहा है। पूँजीवादी साम्राज्यवाद के युद्ध का दायरा लगातार बढ़ते हुए दिख रहा है।

(अंजनी कुमार पत्रकार हैं)

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