मेरे प्यारे सिस्टम जी,
जयहिंद।
मैं बड़ी बेकरारी से आपका पता ढूंढ़ रहा था, जिससे कि अपने विचारों को आपके सम्मुख प्रस्तुत कर सकूं, लेकिन मुझे कोई भी आपका सही पता नहीं बता सका। इसलिए मेरे पास इस लेख को लिखने के अलावा कोई चारा नहीं था, जिसे पढ़कर आप अपने बारे में सच जान सकें।
काफी दिन से यह बात सुनी जा रही है कि “यह सिस्टम फेल” हो गया है। कि “सिस्टम नष्ट हो गया है”, और “यह सिस्टम ही है” जिसके कारण लाखों भारतीय अभूतपूर्व तकलीफ, दुख-दर्द और मुश्किलों से गुजर रहे हैं। हम देखते आ रहे हैं कि किस प्रकार राज्यों में कोविड संक्रमित मरीजों का डाटा मैनेज किया जा रहा है। हम “सिस्टम” के द्वारा बताई गई म़ृतकों की संख्या और श्मशान में जलती हुई लाशों की संख्या के भारी अंतर को भी असहाय होकर देख रहे हैं। हमने नदियों में बहती वे लाशें भी देखीं, जिन्हें “सिस्टम” ने निर्ममता से नकार दिया। भारत के संविधान में अनुच्छेद 21 जो हमें जीवन का अधिकार देता है, वह इन दिनों धूल चाट रहा है। और यही हश्र दूसरे संवैधानिक मूल्यों का भी होता नजर आता है। कोविड महामारी की दूसरी लहर के दौरान “तथाकथित सिस्टम” में सबसे ताकतवर लोगों की हेकड़ी यह बताती है कि सरकार के महत्वपूर्ण संस्थानों को अब किसी म्यूजियम में रखी बेजान वस्तुओं में तब्दील कर दिया गया है।
उपरोक्त आख्यान इसी तथाकथित “सिस्टम” की उपज है, जिसके तहत सत्ता के सबसे ऊंचे पाए पर बैठे लोग अपने को किसी भी अपराध बोध से मुक्त कर लेते हैं। इनसे किसी भी प्रकार के पश्चाताप की उम्मीद करना असम्भव है।
वे लोग जो अस्पतालों में एक–एक बेड, आक्सीजन सिलेंडर और जीवन रक्षक दवाओं के लिए इधर से उधर भाग रहे हैं, उऩ्हें ये सब चीजें आसानी से नहीं मिल पा रही हैं। वे अपने लोगों को लाचारी से मरता देख रहे हैं। ये सिलसिला हफ्तों से चल रहा है। उऩ्हें मालूम है कि “इस सिस्टम” के पीछे असली चेहरे कौन से हैं। लेकिन वे बहुत ही साधारण और कमजोर लोग हैं जो ताकतवरों को किसी तरह से न दोषी ठहरा सकते हैं, न उनका नाम ले सकते हैं, न उन्हें शर्मिंदा कर सकते हैं।
हैरोल्ड लास्की ने कहा था- “सभ्य होने का अर्थ है कि हम अपने लोगों को अवांछित पीड़ा और दुःख न सौंपें। बिना सोचे समझे जो सत्ता के हुकुम को जस का तस स्वीकार कर लेते हैं, उऩ्हें खुद को सभ्य कहने का कोई अधिकार नहीं है”। इस आदर्श विचार के बावजूद हमारे आज के “इस सिस्टम” के पीछे छिपे चेहरों ने भारत के सभ्यतामूलक मूल्यों को नष्ट कर दिया है।
हमारा संविधान सिखाता है कि सिस्टम और सरकारों को पंक्ति के आखिरी व्यक्ति के लाभ के लिए काम करना चाहिए। इसे करने के लिए संविधान ने हमें सही समतावादी दृष्टि और रास्ते भी सुझाए हैं। अगर सिस्टम सही तरीके से काम न कर पाए, तो उसे नियंत्रण में रखने के अनेक उपाय भी बताए गए हैं। मेरी पीढ़ी ऐसे विश्वासों के साथ बड़ी हुई है, जहां यह हमेशा बताया गया है कि यह सिस्टम इतना मजबूत है कि किसी भी संकट को झेल सकता है। वास्तव में एक अच्छा सिस्टम तो वही होता है जो सबको जनहित की योजनाएं, लोगों की सुरक्षा, उनकी खुशहाली और सम्मान हमेशा दे सके। लेकिन जो सिस्टम लोगों की भलाई करने के लिए बना था, अगर उनके खिलाफ काम करने लगता है, तो “वह सिस्टम” नाकारा और बेकार हो जाता है। अगर हमें यह बताया जा रहा है कि यह सिस्टम फेल हो चुका है, तो इसका यही अर्थ है कि एक रहस्य को सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया जा रहा है।
यह एक ऐसा सच है, जो पिछले छह-सात साल से हमारे सामने है-संविधान की आत्मा का उपहास उड़ाया जा रहा है। उसकी अवमानना की जा रही है। हमने न केवल इस सत्ता का अति केंद्रीयकरण न केवल संघीय स्तर पर बल्कि कार्यकारिणी के अंदर भी देखा है। हमने जनतांत्रिक प्रक्रिया का जबर्द्स्त हनन होते हुए भी देखा है। हमने ये भी देखा है कि कैसे स्वतंत्र संस्थानों ने अपनी-अपनी जिम्मेदारियों और कर्तव्यों से मुंह मोड़ लिया है या फिर उन्हें “इसी सिस्टम” की एजेंसियों का इस्तेमाल करके खामोश कर दिया गया है। अब अभिव्यक्ति की आजादी और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की कोई गारंटी नहीं रह गई है। इस कठिन समय की सबसे दुःख भरी टिप्पणी है कि राहत कार्यों का भी अपराधीकरण हो चुका है। इस महामारी की हाहाकार मचाती दूसरी लहर के बीच जब विपक्ष और सिविल सोसाइटीज सही तरीके से काम करने की मांग करती हैं, तो “सिस्टम” के पीछे के यही चेहरे उनसे डांटते हुए कहते हैं कि राजनीति मत करो।
वे लोग जो “इस सिस्टम” का हिस्सा हैं, वे ये भूल चुके हैं कि राजनीति सिर्फ चुनाव लड़ने और जीतने का नाम नहीं है, बल्कि तीखे सवाल पूछने का भी नाम है जैसे कि किसको, क्या, कहां, कब और कैसे मिला। अपनी सहूलियत के हिसाब से याद रखना या भूल जाना इसलिए किया जाता है, ताकि “इस सिस्टम” के असल चेहरे एवं काल्पनिक चेहरों के बीच सत्य और असत्य का किसी को पता न चले। इस तरह का वाक चातुर्य सच को ज्यादा देर तक नहीं छिपा सकता। एक रोते हुए देश को इस समय हुक्म दिया जा रहा है कि कैसे पाजिटिव रहा जाए। अगर ये “सिस्टम” इतना ही लाइलाज और सड़ा-गला था, तो अच्छे दिन के वायदे क्यों किए गए। गंगा नदी की तेज धारा में बहती हुई लाशें अपनी–अपनी कहानियां खुद कह रही हैं, ये दृश्य भुलाए नहीं जा सकते। चाहे जितनी तेज धार हो, ये दृश्य आखों से ओझल नहीं किए जा सकते।
मुख्य धारा मीडिया के घराने बेशर्मी से इस सिस्टम का बचाव करने में लगे हुए हैं, उन्हें याद रखना चाहिए कि इतिहास इन बातों का बेहद पारदर्शिता और निर्ममता के साथ सच कहेगा और इनकी भूमिका का मूल्यांकन करेगा। जिनके कारण सभी को पता हैं। इस मीडिया ने “सिस्टम” की असफलता के विमर्श को इतना बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया है कि जिसकी वजह से जो लोगों की जान और रोजगार के जाने के लिए जिम्मेदार हैं, उऩ्हें बचने का रास्ता मिल गया है।
सरकार की विफलताओं को पहचानने, सामने लाने एवं उनकी जवाबदेही तय करने की बजाए, मीडिया इसी सिस्टम के पीछे के चेहरों के आदेशों को सुनते हुए लोगों से “पाजिटिविटी” की गुहार लगा रहा है। इस चौथे स्तम्भ ने लोकतंत्र का दम ऐसे समय पर घोंटा है, जब सारा देश अपने परिजनों को बचाने के लिए आक्सीजन पाने के लिए संघर्ष कर रहा है।
यह कहना न कोई काल्पनिक बात है, न ही कोई आकाशवाणी है कि “यह सिस्टम” पूर्ण रूप से फेल हो चुका है। “इस सिस्टम” को इस घमंड में नहीं रहना चाहिए कि लोग इस पर अंध श्रध्दा रखते हैं। यह ऐसे लोगों से बना हुआ है , जिनके पास अपने कर्तव्यों को निभाने की क्षमता होती है। लेकिन यही लोग, लोगों के प्रति “इस सिस्टम” द्वारा सौंपे गए अपने दायित्वों को निभाने में पूरी तरह से असफल साबित हुए हैं।
(लेखक मनोज कुमार झा राज्यसभा सांसद और आरजेडी के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं। यह लेख 20 मई को इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित हो चुका है।)
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