डोमरी, वाराणसी। वाराणसी के सांसद व देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साल 2018 में आदर्श गांव बनाने के माफिक डोमरी को गोद लिया था। यह घोषणा स्मार्ट सिटी बनारस के माथे पर काला धब्बा बने बदहाल गांव के लिए किसी लॉटरी से कम न थी। लेकिन, यहां के बाशिंदों को यह एहसास होने में ज्यादा वक्त नहीं लगा कि इनके साथ भद्दा मजाक किया गया है। गोद लिए जाने के शुरुआती दिनों में धूल उड़ाते-हिचकोले खाते वाहनों से अफसर गांव में आए। विकास के लिए डोमरी के गले की माप उतारी और फिर चलते बने। कुछ कोशिशें भी हुईं। इनमें से कई योजनाएं भ्रष्टाचार से छीजती हुई जमीन पर भी उतरीं, तो कई अब भी फाइलों में धूल फांक रही हैं।
नतीजतन, आज भी गांव वाले कई समस्याओं से घिरे हुए हैं। फिलवक्त में टूटी और कटी -फटी सड़क, सड़क पर जल-जमाव, कच्ची पगडंडी, उखड़े और टूटे हुए ईंट के खड़ंजे, बदहाल हैंडपंप, सरकारी स्कूल जाने का रास्ता बदहाल, बेरोजगारी, महंगाई, चौपट होते पावरलूम व पंखे के जाली के कारखाने, बिजली कटौती, रुपए के अभाव में महीनों से खाली पड़े उज्ज्वला रसोई गैस के सिलेंडर, अपना और परिवार का पेट पालने के लिए रोज सुबह मेहनत-मजदूरी की कभी न ख़त्म होने वाली खोज।
मसलन, सरकारी दस्तावेजों की मानें तो डोमरी आदर्श गांव है। लेकिन, हकीकत में डोमरी और डोमरी के लोगों के हालात इंडिया के सामान्य गांवों से भी बदतर हैं। गांव में अधिक आबादी वाले पसमांदा लोग गुरबत और तंगहाली में जिन्दगी की चुनौतियों से आंख मिला रहे हैं। काबिल-ए-गौर है कि पीएम मोदी ने साल 2018 में जयापुर, नागेपुर, ककरहिया और डोमरी समेत चार गांव गोद लिये थे। सरकारी दस्तावेजों में ये सभी आदर्श गांव हैं। पेश है आदर्श गांवों की रियल्टी चेक का पहला भाग। डोमरी की रिपोर्ट…
गंगा नदी के पूरब में एक गड्ढेनुमा भूखंड पर बसा है तकरीबन बारह हजार की आबादी वाला डोमरी गांव। इस गांव को रोजाना आते-जाते लाखों-लाख लोग निहारते हैं। डोमरी के उत्तरी हिस्से में अंग्रेजों के समय में आवागमन के लिए बनाया गया राजघाट पुल है। इस पुल का ऊपरी हिस्सा सड़क व निचले हिस्से पर रेल की पटरी बिछी हुई है। यानी इस डबल डेकर पुल से रोजाना लाखों पब्लिक, हजारों वाहन और सैकड़ों रेलगाड़ी व मालगाड़ियां गुजरती हैं। राजघाट पुल से गुजरते हुए 45 डिग्री के कोण पर मुड़ते ही एक गहरे आसमानी रंग में रंगी हुई भव्य पानी की टंकी सहज ही लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचती है। जैसे ही पल भर ठहर कर निहारेंगे तो महसूस करेंगे कि आप किसी भौगोलिक प्रयोगशाला में थ्री डाइमेंशन मानचित्र देख रहे हैं। यह तस्वीर दूर से लुभावनी ज़रूर लगेगी, लेकिन करीब से देखने पर हकीकत निराश करने वाली है।
डोमरी के पश्चिम में गंगा का विस्तारित रेतीला तट, नदी के करार पर ऊबड़-खाबड़ खेत, जगह-जगह पर रेत के टीले, कुछ नए-कुछ पुराने भवन, कहीं तालाबनुमा गड्ढा तो कहीं तीव्र ढलान वाले प्लाट। डोमरी का पूर्वी हिस्सा चंदौली की सीमा से टकराता है। यहां के ग्रामीण चंदौली जिले की सीमा से गुजरी सड़क से बाहरी दुनिया से मुखातिब होते हैं। उत्तर दिशा में भौगोलिक दृष्टिकोण से गंगा नदी का कई किमी दूर तक फैला हुआ तट है। तट किनारे मानव बस्तियां भी बसी हैं, जो स्वास्थ्य और ऊंचे-ऊंचे पेड़ों की झुरमुटों में आधी दिखती हैं। दक्षिणी सीमा पर हेलीपैड विकसित किया जाना था, जिसे कैंसिल कर दिया गया है। वाराणसी जिले में स्थित प्रशासनिक तौर पर 486 हेक्टेयर में फैला डोमरी सुजाबाद नगर पंचायत में आता है।
वाराणसी जिला मुख्यालय से महज 12 किलोमीटर दूरी पर विकास से कोशों दूर बसा है डोमरी। ‘जनचौक’ की टीम को गांव में पहुंचने के लिए कुछ खास मशक्कत नहीं करनी पड़ी। गांव का लिंक रोड कई स्थानों पर उखड़ा और टूटा हुआ है। इसके गड्ढों में बारिश का पानी जमकर सड़ रहा है। नगर पंचायत की डस्टबिन भी बदहाल अवस्था में जहां-तहां सड़क के किनारे पड़े हैं। शुक्रवार की दोपहर में जबरदस्त उमस और धूप थी। गांव के एक हिस्से की बिजली गुल थी।
इसलिए गांव के कुछ युवा और बुजुर्ग चौराहे पर पीपल के पेड़ के नीचे बने चबूतरे पर आराम करते और समय बिताते मिले। पीपल के नीचे सुस्ता रहे रामकिशुन पंखे की जाली बनाते थे। इस बरस लोहे के भाव बढ़ने से डोमरी के अधिकतर पंखे की जाली बनाने वाले पंखे के कारखाने बंद हो गए हैं। रामकिशुन ‘जनचौक’ को बताते हैं कि ‘जाली का काम बंद हो गया है। मैं इन दिनों बेरोजगार हूं। अब मजदूरी करता हूं। इसमें भी सातों दिन काम नहीं मिल पाता है। काम नहीं होने की वजह से यहां-वहां बैठकर समय बिताता रहता हूं।’
नत्थूलाल ने बताया कि ‘मोदी जी के गोद लेने के बाद से बिजली के खम्भे लगा दिए गए। पानी व शौचालय की सुविधा बढ़ी है। रोजाना सड़क पर झाड़ू लगता है। लेकिन, जो हमारी अपेक्षाएं थीं, वह आज भी अधूरी रह गई हैं। हम लोग जब से होश संभाले हैं, तब से पंखे की जाली बनाते आ रहे थे। वह धंधा भी अब बंद हो गया है। पंखे की जाली बनाने का काम कोरोना की विकट लहर में भी जारी रहा। अचानक से इस साल जाने क्या हुआ कि धड़ाधड़ कई कारखाने बंद हो गए।
इससे मैं और गांव के हजारों लोग बेरोजगार हो गए। डोमरी के तीस फीसदी लोग जाली बनाने के कारीगर और मजदूर थे। अन्य बीस फीसदी लोग पावरलूम पर बुनाई करते थे। हथकरघा तो सभी बंद हो गए हैं। जाली और पावरलूम के कारखाने के बंद होने से कोई टोटो (ईरिक्शा) चलता है, तो कई परिवार के भरण पोषण के लिए ईंट-पत्थर का काम और मजदूरी कर रहे हैं।’ वृद्ध रामसेवक भी इन बातों से इत्तेफाक रखते हैं।
चूना-पेंट का काम करने वाले पचास वर्षीय जवाहिर काम के दौरान गिरकर चोटिल हो गए थे। इस हादसे में इनका दाहिना हाथ टूट गया था। फिर कुछ दिन बाद बिजली का करंट भी लग गया। अब जवाहिर ठीक हैं और तकरीबन आठ महीने से बेरोजगार हैं। वे जनचौक को बताते हैं ‘अखिलेश की सरकार में पेंशन मिल रहा था, जो अब बंद हो गया है। सरकार के 25 किलो राशन से परिवार का गुजारा हो रहा है। जैसे-तैसे व्यवस्था कर उधारी से इलाज हुआ और जीवन कट रहा है। ऐसे कितने दिन तक चलेगा ? इलाज के लिए निजी क्लिनिक में जाना पड़ता है। हल्ला हुआ था कि गांव को मोदीजी ने गोद ले लिया है। डोमरी अब शहर की तरह चमचमाने लगेगा। हकीकत में कुछ नहीं हुआ। पास में ही एक आंगनबाड़ी केंद्र है, जिसमें सिर्फ आठ या दस बच्चे जाते हैं।’
डोमरी के किसान बहादुर की डेढ़ बीघे की जमीन सड़क में चली गई है। उनको सरकार से मुआवजे की उम्मीद बहुत कम है। वे अपनी बात कुछ यूं बयां करते हैं ‘दो-तीन साल गांव में करीब 50 हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि थी, अब मुश्किल से 20 हेक्टेयर रह गई होगी। सभी जमीनें धीरे-धीरे प्लॉटिंग की भेंट चढ़ती जा रही हैं। जो खेती-किसानी लायक जमीन है।
इन खेतों में अब अनाज, सब्जी और अन्य फसलों की खेती करना आसान काम नहीं रह गया है। क्योंकि, गांव में सैकड़ों की तादाद में आवारा मवेशी दिनभर घूमते रहते हैं, जो रात और दिन में फसलों को चर जाते हैं। खेती करने के लिए अपने खेतों की बाउंड्री करानी पड़ेगी। इतना पैसा कहां है कि मैं खेतों के किनारे कंटीले बाड़ लगाऊं ? कई सालों से मैं भी खेती छोड़कर कपड़े की बुनाई करता हूं।’
बहादुर आगे कहते हैं ‘आवारा मवेशियों से परेशान बहुत से किसान डोमरी में सिर्फ रहने भर जमीन छोड़कर शेष जमीनों को बेचने लगे हैं। हालांकि, इस समय जमीनों की खरीद बिक्री पर जिलाधिकारी ने रोक लगाई हुई है। खेत बेचने के एवज में मिले रुपए से किसान मिर्जापुर, चंदौली और सोनभद्र जैस जिलों में खेती करने लायक जमीन खरीद रहे हैं। यहां न ट्यूबवेल और न ही सिंचाई के लिए साधन। पीएम मोदी के गोद लेने के बाद भी कुछ हालात नहीं सुधरे हैं।
सब काम आधा-अधूरा छोड़ दिया गया है।’ पंखे की जाली बनाने वाले नत्थूलाल भी इन दिनों बेरोजगार हैं। कुछ साल पहले मैंने जमा किए हुए रुपए से एक पावरलूम मशीन लगाया है। इस मशीन पर मैं कपड़े की बुनाई करता हूं। शुरुआत में बिजली का बिल 307 रुपए महीना था। अब बिजली विभाग के अधिकारी बताते हैं कि 500 रुपए प्रतिमाह जमा करना है, ऊपर से नियम बदल गया है। दिन रात मेहनत करने के बाद महीने में बमुश्किल 10 से 12 हजार रुपए कमा पाते हैं, ऐसे में बिजली की बढ़ी दरें भी परेशान करने वाली हैं। हाल के दो सप्ताह से कई-कई घंटों की अघोषित बिजली कटौती की जा रही है। पानी भरने के बाद बिजली गुल हो जाती है। इससे मिले ऑर्डर को तैयार करने में परेशानी होती है। माल की डिलीवरी में देरी होती है।’
पीपल पेड़ के चौराहे से गांव में करीब 150 मीटर अंदर नीम की छांव में कई महिलाएं माला बुनती हुईं दिखीं। इसमें से एक महिला राधा बताती हैं ‘करीब दो साल पहले मेरे बेटे को उज्ज्वला योजना का लाभ मिला था। लेकिन इतनी महंगाई है कि हम लोग अपना पेट भरे या 1150 रुपए की व्यवस्था कर सिलेंडर भरवाए। जैसे-तैसे गृहस्थी चल रही है। महंगाई ने जीना दुश्वार कर रखा है। रोज धुंआ में खाना बनाना पड़ता है। दोनों बखत धुंए से सांस फूलने लगती है, बड़ी परेशानी होती है। इस गैस का क्या फायदा जब हम इसे भरवा ही नहीं पा रहे हैं।’
सीता देवी का घर घास-फूस के छप्पर का है। आवास के लिए ग्राम प्रधान को आवेदन किया है। बेबी छोटे-छोटे दीवारों पर टीन शेड में रहती हैं, इनको भी आवास नहीं मिला है। दशरथी का मकान काफी पुराना और जर्जर हो गया है। दशरथी ने बताया कि उनका मकान कभी भी भरभरा कर ढह सकता है। सरिता ने भी आवास की समस्या को जाहिर किया। शारदा ने बताया कि ‘हम लोगों के मोहल्ले में लगा हैंडपंप महीनों से खराब पड़ा है। गर्मी भर पानी के लिए दिक्कत उठाना पड़ा। मिलकर चंदा जुटाकर हैंडपंप को बनवाया गया था, लेकिन कुछ ही दिनों में ख़राब हो गया।’ नीलम को पेयजल की दिक्कत है।
गौरी शंकर को भी भनक लग गई कि उनके गांव में कोई पत्रकार आया है, जो गांव के विकास और नागरिकों की समस्या पर बातचीत व लिखा-पढ़ी कर रहे हैं। गौरी शंकर से बातचीत करने पर मालूम हुआ कि वे अधिकारियों की लापरवाही और उपेक्षा से परेशान हैं। वह नाराजगी जताते हुए शिकायती लहजे में कहते हैं ‘गांव में जल निकासी, सीवर और सड़कों की स्थिति बदहाल है। अधिकारी और गांव का प्रधान दो साल से नाली मरम्मत और सीमेंटेड गली बनाने के लिए चक्कर कटवा रहे हैं। आप देख लीजिये यह मेरा घर है, नाले के उस पर बचाऊ का मकान हैं। यह गली कई सालों से बजबजा रही है। इससे कई संक्रामक बीमारियों के फ़ैलने की आशंका भी है। मैंने प्रधान, डीएम और अधिकारियों से मिलकर नाली और रास्ते के मरम्मत की मांग भी कई दफा कर चुका हूं, लेकिन कहीं कोई सुनवाई नहीं हो रही है। जबकि इस गली के बन जाने से सैकड़ों नागरिकों और स्कूल जाने वाले छोटे-छोटे बच्चों को भी सहूलियत हो जाएगी।’
काशी पत्रकार संघ के पूर्व अध्यक्ष वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप श्रीवास्तव कहते हैं कि’ नारे और घोषणाएं भारतीय राजनीति का गहना बन गई है। इनकी मौजूदगी पहले भी थी, लेकिन आज नारे और घोषणाओं की धुरी पर पूरी राजनीति घूमने लगी है। सिर्फ प्रधानमंत्री द्वारा गोद लिए गए गांव की यह हालत नहीं है। बल्कि, जब पीएम मोदी गांवों को गोद लेने की पहल की, तो देखते-देखते ताबड़तोड़ बीजेपी के सांसदों ने कई गांवों को गोद ले डाला। गोद लिए गये गांवों की हालत पहले भी बदतर हो गई है। उनका कोई पुरसाहाल लेने वाला कोई नहीं है। गोद लेने से गांवों की स्थिति नहीं सुधरेगी। गांवों की स्थिति सुधरेगी गांधी के ग्राम स्वराज्य के दर्शन से। इन दिनों कारपोरेट आधारित व्यवस्था हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्थाओं को निगलती चली जा रही है। गांधी के ग्राम स्वराज्य के दर्शन में गांधी ने बुनियादी सुविधाओं से संपन्न और आत्मनिर्भर गांव की कल्पना की है। गांवों का उत्पाद गांवों में ही रहे, इससे गांव की अर्थव्यवस्था चले।’
‘वर्तमान में गांवों का और विकास का दूर-दूर तक का रिश्ता ही नहीं नजर आता है। जहां सबसे ज्यादा विकास की आवश्यकता ग्रामीण इलाकों में है, वे सबसे ज्यादा उपेक्षित और पिछड़े हैं। आधुनिकता की आंधी में इनका आधा चेहरा सफ़ेद और आधा चेहरा स्याह हो गया है। उहापोह में फंसे गांव, एक ओर अपनी मौलिकता खोते जा रहे हैं। वहीं, दूसरी तरफ आधुनिकता की दौड़ में भी इनका कोई नंबर नहीं है। गांव, खेत और किसान तीनों दोहरी मार झेल रहे हैं। सिर्फ गोद लेने की घोषणाओं से काम नहीं चलने वाला है। विकास के लिए स्पष्ट नीति और कार्य योजना की आवश्यकता होती है। एक व्यापक परिकल्पना की आवश्यकता है, जो मजबूत इच्छाशक्ति की बुनियाद पर खड़ी हो। लेकिन, फिलवक्त में इन सब बिंदुओं का नितांत अभाव है। नीति को कार्यान्वित करने की मजबूत इच्छाशक्ति दूर-दूर तक नहीं है। यही वहज है कि गांवों का विकास एक नौटंकी बनाकर रह गया है।’
( वाराणसी से पीके मौर्य की रिपोर्ट। )
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