अमेरिका का  युद्ध अपराधी चेहरा बेनकाब: यूक्रेन को देगा प्रतिबंधित क्लस्टर बम

दूसरे देशों के जिस काम को अमेरिका युद्ध अपराध समझता है, उसे खुद सरेआम करने में उसे कोई हिचक नहीं होती, यह बात उसने फिर जग-जाहिर की है। यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद पश्चिमी मीडिया ने एक खबर फैलाई थी कि रूस इस जंग में क्लस्टर बमों का इस्तेमाल कर रहा है। तब ह्वाइट हाउस की तत्कालीन प्रेस सेक्रेटरी जेन साकी ने प्रेस ब्रीफिंग में कहा था कि अमेरिका अभी इस खबर की पुष्टि नहीं कर पाया है, लेकिन अगर यह सच है, तो इसे युद्ध अपराध समझा जाएगा।

अब उन्हीं क्लस्टर बमों की खेप अमेरिका ने यूक्रेन को देने का फैसला किया है। 

इस घटनाक्रम ने दूसरी बात यह बताई है कि अमेरिका रणनीतिक आवरण के रूप में भले विभिन्न देशों को अपना सहयोगी बताता हो, लेकिन असल में जब फैसला लेने की बात आती है, तो वह उनमें से किसी परवाह नहीं करता। यह बात 2021 में तब भी सामने आई थी, जब फ्रांस को अंधेरे में रखते हुए जो बाइडेन प्रशासन ने ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया के साथ AUKUS पनडुब्बी करार कर लिया था। इसके परिणामस्वरूप ऑस्ट्रेलिया ने फ्रांस से पनडुब्बी खरीदने का अरबों डॉलर का सौदा रद्द कर दिया था।

बहरहाल, अब क्लस्टर बमों के मामले में अमेरिका ने लगभग पूरे पश्चिमी यूरोप को ठेंका दिखा दिया है। क्लस्टर बम के इस्तेमाल पर हुई अंतरराष्ट्रीय संधि पर 123 देश दस्तखत कर चुके हैं, जिनमें ज्यादातर पश्चिमी यूरोपीय देश शामिल हैं। 

क्या होते हैं क्लस्टर बम? 

कलस्टर बम कनिस्टर में रखे छोटे बमों का गुच्छा होते हैं, जिनका जब विस्फोट किया जाता है, तो उनमें से बहुत से बम तुरंत नहीं फटते। लंबे समय बाद तक इनका विस्फोट होता रहता है। इस कारण युद्ध खत्म होने के बाद भी आम लोग इसके शिकार बनते हैं। वियतनाम युद्ध के दौरान अमेरिका ने इसका खासकर लाओस में इस्तेमाल किया था, जहां मानवीय त्रासदी की लिखी गई कहानियां आज तक रूह कंपा देती है। अमेरिका ने फिर से इन कहानियों को इराक युद्ध में दोहराया था। इन अस्त्रों के इसी खतरनाक रूप के कारण इनके खिलाफ एक अंतरराष्ट्रीय संधि हुई, जिसमें इनके इस्तेमाल को युद्ध अपराध माना गया।

बीबीसी ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि यूक्रेन को क्लस्टर बम देने का राष्ट्रपति जो बाइडेन का फैसला खुद एक अमेरिकी कानून का उल्लंघन है। इस कानून में प्रावधान है कि जिन हथियारों की विफलता की दर एक प्रतिशत से ज्यादा हो, अमेरिका किसी अन्य देश को वो हथियार नहीं देगा। अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेक सुलिवन ने यह कहा था कि अमेरिकी क्लस्टर बमों की विफलता दर ‘2.5 प्रतिशत से कम’ है। यानी यह निश्चित रूप से एक प्रतिशत से ज्यादा है।

अमेरिका एक उद्दंड देश है?

तो यह घटनाक्रम तीसरी बात यह बताता है कि अमेरिकी सरकार अंतरराष्ट्रीय मान्यताओं और कानूनों का तो पालन नहीं ही करती है, वह अपने देसी कानूनों को भी ठेंगे पर रखती है। ऐसे ही देशों के लिए अंतरराष्ट्रीय संबंध की भाषा में rogue state (उद्दंड राज्य) शब्द का इस्तेमाल होता है। यानी वो देश, जो कोई नियम-कानून नहीं मानते।

बहरहाल, उपरोक्त तमाम बातें जानी-पहचानी हैं। अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य पर अमेरिका की पिछले साढ़े दशक की साम्राज्यवादी भूमिका से परिचित लोगों के लिए बाइडेन का यह फैसला उन देश के निरंकुश आचरण की सिर्फ एक ताजा मिसाल है। अब चूंकि विश्व शक्ति संतुलन की कमान अमेरिका के हाथ से काफी फिसल चुकी है और साथ ही दुनिया में नैरेटिव सेट करने की उसकी पहले जैसी क्षमता नहीं रही, इसलिए अब उसके फैसलों की हकीकत तुरंत दुनिया के सामने आ जाती है।

यूक्रेन युद्ध में विफलता की आत्म-स्वीकृति 

जैसे कि अब यह बात सबके सामने है कि यूक्रेन को क्लस्टर बम देने का निर्णय असल में अमेरिका की तरफ से इस कड़वे सच की आत्म-स्वीकृति है कि यूक्रेन को प्यादा बनाकर अपने सैनिक गठजोड़ नाटो (नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गनाइजेशन) के जरिए रूस को विखंडित करने और उसके बाद चीन को परास्त करने की उसकी बड़ी योजना फेल होने के कगार पर पहुंच गई है। खुद बाइडेन ने टीवी चैनल सीएनएन को दिए इंटरव्यू में यह स्वीकार किया कि यूक्रेन के पास हथियारों की कमी हो गई है, इसलिए उन्हें यह “फैसला करना पड़ा”।

इस निर्णय वॉशिंगटन स्थित रूसी राजदूत एंटनी एतोनोव की यह टिप्पणी गौरतलब हैः ‘क्लस्टर अस्त्र हताशा का संकेत हैं। इस कदम से यह कहानी सामने आती है कि अमेरिका और उसके अधीनस्थ देशों ने यह स्वीकार कर लिया है कि वे शक्तिहीन हैं। लेकिन वे अपनी नाकामी और रूसी इलाकों में यूक्रेन की सेनाओं के आक्रमण की विफलता को स्वीकार करना नहीं चाहते, इसलिए उन्होंने यह पागलपन दिखाया है। अमेरिका की यह भड़काऊ कार्रवाई बेशक असाधारण है, जिससे दुनिया नए विश्व युद्ध के करीब पहुंचेगी। अमेरिका रूस को परास्त करने के उन्माद में इतना खोया हुआ है कि वह अपने कदमों की गंभीरता को नहीं समझ पा रहा है।’

Deindustrialization ने किया खोखला

अब हकीकत से नावाकिफ लोगों को लग सकता है कि यह टिप्पणी रूस का बड़बोलापन है। इसलिए अमेरिका की वास्तविक स्थिति क्या है, इस पर खुद अमेरिकी मीडिया में क्या चर्चा चल रही है, उस पर गौर करना उचित होगा। इन पंक्तियों पर ध्यान दीजिएः

‘जिन घातक मोर्चों पर यूक्रेनी और रूसी सैनिक जंग लड़ रहे हैं, उनके पीछे जीवन-मरण की एक लड़ाई छिपी हुई है, जिस पर कम ध्यान दिया गया है। यह संघर्ष युद्धरत सैनिकों को हथियार और गोला-बारूद की आपूर्ति करने के लिए है। इसमें जिस पक्ष की हार होगी, वह युद्ध भी हार जाएगा। यह वो सबक है, जिसे अमेरिका फिर से सीख रहा है।…

यूक्रेन पर रूस के हमले ने पश्चिम के रक्षा उद्योग की क्षमता और संगठन की बड़ी कमजोरियों को बेनकाब कर दिया है। अमेरिका और उसके सहयोगी देशों के पास प्रशांत क्षेत्र में लंबा खिंचने वाले युद्ध को लड़ने की तैयारी नहीं है। यूरोप में भी लड़ाई लंबी खिंचने पर उन्हें संघर्ष की स्थिति में जाना पड़ेगा।…

जैसाकि नाटो के सर्वोच्च सैन्य अधिकारी एडमिरल रॉब बाउर ने कहा है- हर युद्ध, पांच या छह दिन के बाद, संभारतंत्र (logistics) की क्षमता पर निर्भर हो जाता है। 

अगर अमेरिका का रूस या चीन से सीधा टकराव हुआ, तो अचूक हमला करने वाले हथियार (precision weaponry) कुछ घंटों या दिन में समाप्त हो जाएंगे। दूसरी महत्त्वपूर्ण आपूर्तियां भी जल्द ही खत्म हो जाएंगी।’

ये पंक्तियां अमेरिकी अखबार द वॉल स्ट्रीट जर्नल में छपे एक लंबे विश्लेषण का हिस्सा हैं। विश्लेषण इस शीर्षक के साथ छपा है– ‘पश्चिम को फिर सीख मिलीः युद्ध के लिए उद्योग की जरूरत होती है।’ इस विश्लेषण का उपशीर्षक हैः ‘रूस या चीन से लंबे युद्ध की आशंका से ग्रस्त बाइडेन और नाटो नेता अगले शिखर सम्मेलन में सेनाओं और उनके लिए सप्लाई क्षमता को पुनर्निर्मित करने पर ध्यान केंद्रित करेंगे।’ यहां उल्लिखित शिखर सम्मेलन से मतलब 11-12 जुलाई को लिथुआनिया में होने जा रही नाटो की महत्त्वपूर्ण शिखर बैठक से है। 

तो चीन से व्यापार और तकनीक युद्ध और रूस से सीधे सैनिक युद्ध में अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों का सामना इस हकीकत से हुआ है कि चार दशक पहले अपने उद्योग-धंधों को कम मजदूरी वाले देशों में भेजते हुए अपनी अर्थव्यवस्था का पूरा वित्तीयकरण (financialization) करने की जिस राह पर वे चले, उसने उन्हें खोखला कर दिया है। इस अहसास से पैदा हुई हताशा में अमेरिका ने मूलभूत मानवीय चिंताओं को भी भुला दिया है और उसी का परिणाम यूक्रेन को क्लस्टर अस्त्र देने का उसका फैसला है। यह निर्णय की अमानवीयता इतनी बेपर्द है कि आम तौर पर पश्चिमी नजरिए से सोचने वाले और वहीं से संचालित मानव अधिकार संगठनों को भी खुल कर इसकी आलोचना करनी पड़ी है

शिखर सम्मेलन से पहले नाटो में फूट

यह हताशा असल में कई रूपों में जाहिर हो रही है। उसकी एक अन्य मिसाल नाटो को एशिया तक फैलाने का इरादा है, जिस पर अब खुद नाटो के अंदर फूट पड़ती दिख रही है। अमेरिका चीन के खिलाफ लामबंदी की अपनी कोशिश के तहत नाटो का एशिया संस्करण बनाना चाहता है। इसी कोशिश में 2022 में हुए नाटो शिखर सम्मेलन में ऑस्ट्रेलिया, जापान, न्यूजीलैंड और दक्षिण कोरिया को आमंत्रित किया गया था। एक बार फिर उन्हें लिथुआनिया की राजधानी विल्नुस में होने जा रहे नाटो शिखर सम्मेलन में बुलाया गया है। 

लेकिन खबर है कि फ्रांस ने नाटो विस्तार की योजना पर अपनी असहमति जता दी है। उसने कहा है कि उत्तर अटलांटिक का मतलब उत्तर अटलांटिक है, इसका प्रशांत क्षेत्र से कोई संबंध नहीं है। वैसे रिकॉर्ड यही है कि यूरोपीय देश- खासकर नाटो के सदस्य- ऐसी असहमतियां जताते जरूर हैं, लेकिन जब अमेरिका का दबाव पड़ता है, तो दुम दबा लेते हैं। इसलिए फिलहाल फ्रांस के विरोध को अधिक महत्त्व नहीं दिया जा सकता।     

इसका प्रमुख कारण यह है कि आखिरकार नाटो अमेरिकी साम्राज्यवाद का सैनिक मोर्चा है। इसलिए ऐसी उम्मीद का कोई ठोस आधार नहीं है कि इसके अंदर कोई देश अमेरिकी मंशा को रोक पाएगा। इसलिए चीन अगर नाटो की अंदरूनी गतिविधियों से सतर्क है, तो उसे उसकी उचित प्रतिक्रिया ही कहा जाएगा।

तो यूक्रेन को परमाणु बम भी देगा अमेरिका?  

बहरहाल, तो तय है कि यूक्रेन युद्ध को संयोजित और संचालित करने का अमेरिकी उद्देश्य उलटा पड़ा है। मीडिया की ताकत से गढ़ी गई पश्चिम की नैतिक साख तो पहले ही क्षीण हो गई थी, इस युद्ध ने पहले उसकी आर्थिक शक्ति के खोखलेपन को जाहिर किया और अब यह उसकी सैनिक क्षमताओं को भी बेनकाब कर रहा है। रूस पर लगाए गए प्रतिबंध अपना मकसद हासिल करने में नाकाम रहे। उधर अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में रूस को अलग-थलग करने की पश्चिम की कोशिशें मुंह के बल गिरीं और अब यह भी जाहिर होने लगा है कि लंबे समय तक सैन्य मदद देने की पश्चिम की क्षमता भी चूक रही है। इन सच्चाइयों का सामने आना अमेरिका के लिए बहुत तगड़ा झटका है। यह हताशा उसे क्लस्टर बमों का सहारा लेने तक ले गई है। लेकिन प्रश्न है कि अगर ये बम भी उसके मकसद हासिल नहीं कर पाए, तो उससे और गहराई हताशा के बीच अमेरिका खुलेआम परमाणु युद्ध की तरफ कदम बढ़ा देगा?  

( सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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