Sunday, April 28, 2024

370 पर सुनवाई: चीफ जस्टिस बोले- अनुच्छेद 35A ने नागरिकों के कई मौलिक अधिकार छीने!

चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने सोमवार को कहा कि 2019 में खत्म किए गए भारतीय संविधान के अनुच्छेद 35ए ने ‘मौलिक अधिकारों को छीन लिया। सीजेआई ने यह टिप्पणी जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म करने को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई के दौरान की। उन्होंने कहा कि इसने नागरिकों से जम्मू-कश्मीर में रोजगार, अवसर की समानता, संपत्ति अर्जित करने के अधिकार को छीना है। ये अधिकार खास तौर पर गैर-निवासियों से छीने गए हैं।

भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस संजय किशन कौल, संजीव खन्ना, बीआर गवई और सूर्यकांत की सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने सोमवार को ग्यारहवें दिन भी जम्मू-कश्मीर की विशेष स्थिति को रद्द करने के केंद्र के फैसले को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई जारी रखी।

चीफ जस्टिस ने आगे कहा कि राज्य के अधीन किसी भी कार्यालय में रोजगार या नियुक्ति से संबंधित मामलों में सभी नागरिकों के लिए अवसर की समानता, अचल संपत्ति अर्जित करने का अधिकार और राज्य सरकार के तहत रोजगार का अधिकार आता है। ये सब ये अनुच्छेद नागरिकों से छीनता है। ऐसा इसलिए भी क्योंकि ये निवासियों के विशेष अधिकार थे और गैर-निवासियों के अधिकार से बाहर किए गए।

दरअसल चीफ जस्टिस ने यह बात तब कही जब केंद्र की ओर से एसजी तुषार मेहता ने कहा कि पहले की गलती का असर आने वाली पीढ़ियों पर नहीं पड़ सकता है। हमने 2019 में पिछली गलती को सुधार लिया है। इस पर चीफ जस्टिस ने कहा कि एक स्तर पर आप सही हो सकते हैं कि भारत का गणतंत्र एक दस्तावेज है जो जम्मू-कश्मीर संविधान की तुलना में उच्च मंच पर है। लेकिन एक और बात यह है कि आपने यह जताने की कोशिश की है कि जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा विधानसभा थी, लेकिन विधानसभा संविधान सभा नहीं है।

सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि यह सही नहीं हो सकता है क्योंकि अनुच्छेद 238 संविधान सभा की मंज़ूरी के बाद ही विषयों को राज्य के दायरे में लाता है। इसलिए इसे केवल विधानसभा कहना सही नहीं हो सकता है। मेहता ने कहा कि सभी मामलों को संशोधन के साथ लागू किया गया था।

उदाहरण के लिए, धारा 368 को तो लागू किया गया था लेकिन इस प्रावधान के साथ कि भारतीय संविधान में किया गया कोई भी संशोधन जम्मू-कश्मीर पर तब तक लागू नहीं होगा जब तक कि धारा 370 के रास्ते लागू नहीं किया जाता है। साथ ही भारत के संविधान में संशोधन किया गया और अनुच्छेद 21ए- शिक्षा का अधिकार जोड़ा गया है। यह 2019 तक जम्मू-कश्मीर पर कभी लागू नहीं हुआ, क्योंकि इस रूट का पालन ही नहीं किया गया था।

इस पर चीफ जस्टिस ने कहा कि इसी तरह आपने कहा था कि प्रस्तावना में 1976 में संशोधन किया गया था। इसलिए धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद संशोधन को जम्मू-कश्मीर में कभी नहीं अपनाया गया। फिर एसजी मेहता ने कहा कि हां, यहां तक कि “अखंडता” शब्द भी लागू नहीं किया गया था। रोजगार भी जीने का अधिकार है।

चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि लेकिन अनुच्छेद 16(1) के तहत एक सीधा अधिकार है, जो छीन लिया गया वह राज्य सरकार के तहत रोजगार था। राज्य सरकार के तहत रोजगार विशेष रूप से अनुच्छेद 16(1) के तहत प्रदान किया जाता है। इसलिए जहां एक ओर अनुच्छेद 16(1) को संरक्षित रखा गया, वहीं 35ए ने सीधे तौर पर उस मौलिक अधिकार को छीन लिया और इस आधार पर किसी भी चुनौती से सुरक्षा दी जाती थी। इसी तरह, अनुच्छेद 19- यह देश के किसी भी हिस्से में रहने और बसने के अधिकार को मान्यता देता है। इसलिए 35ए द्वारा सभी तीन मौलिक अधिकार अनिवार्य रूप से छीन लिए गए। न्यायिक समीक्षा की शक्ति छीन ली गई।

सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने जवाब देते हुए कहा कि यह 2019 तक हुआ। मैं आपसे इस मामले को जम्मू-कश्मीर के लोगों के नजरिए से देखने का आग्रह कर रहा हूं। यहां जिस चीज पर आपत्ति जताई गई है वह सत्ता का संवैधानिक प्रयोग है जो मौलिक अधिकार प्रदान करता है, संपूर्ण संविधान लागू करता है, जम्मू-कश्मीर के लोगों को बराबरी पर लाता है। यह उन सभी कानूनों को लागू करता है जो जम्मू-कश्मीर में कल्याणकारी कानून हैं जो पहले लागू नहीं किए गए थे।

मेहता ने आगे कहा कि इसकी सूची मेरे पास है। अब तक, लोगों को आश्वस्त किया गया था कि यह आपकी प्रगति में बाधा नहीं है, यह एक विशेषाधिकार है जिसके लिए आप संघर्ष करते हैं। अब लोगों को एहसास हो गया है कि उन्होंने क्या खोया है। अब निवेश आ रहा है। अब पुलिसिंग केंद्र के पास होने से पर्यटन शुरू हो गया है।

2019 में, केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने प्रस्ताव दिया कि अनुच्छेद 370 और अनुच्छेद 35ए को खत्म कर दिया जाए। तत्कालीन राष्ट्रपति राम नाथ कोविन्द ने एक आदेश, संविधान (जम्मू और कश्मीर पर लागू) आदेश, 2019 जारी किया, जिसमें कहा गया कि भारतीय संविधान के प्रावधान अब से जम्मू और कश्मीर पर लागू होंगे, जो विशेषज्ञों के अनुसार उत्तरी राज्य को भारत के अन्य राज्यों के बराबर पर ला देगा।

पीडीपी अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती को 2019 में अन्य पीडीपी नेताओं के साथ एहतियातन घर में नजरबंद कर दिया गया था। राज्य में तनाव पैदा होने के कारण जम्मू-कश्मीर में तालाबंदी जैसी स्थिति लागू कर दी गई थी, और निवासियों ने फैसले का विरोध किया था।

चीफ जस्टिस ने आगे कहा कि जब आप अनुच्छेद 35ए पेश करते हैं, तो आप 3 मौलिक अधिकार छीन लेते हैं- अनुच्छेद 16(1), अचल संपत्ति हासिल करने का अधिकार जो तब 19(1)(एफ), ए 31 और निपटान के तहत एक मौलिक अधिकार था। राज्य में जो 19(1)(ई) के तहत एक मौलिक अधिकार था। चीफ जस्टिस ने कहा कि अनुच्छेद 35ए तीन क्षेत्रों में अपवाद बनाता है- राज्य सरकार के तहत रोजगार, अचल संपत्तियों का अधिग्रहण और राज्य में निपटान।

अनुच्छेद 35ए पर बहस के दौरान एसजी तुषार मेहता ने दलील दी कि यह अनुच्छेद जम्मू-कश्मीर की प्रगति में बाधा पैदा करता है। उन्होंने अदालत के समक्ष प्रस्तुत किया कि अनुच्छेद को ख़त्म करने से राज्य में ‘निवेश’ को बढ़ावा मिला, जिसकी आय का एकमात्र अन्य रूप पर्यटन और कुछ कुटीर उद्योग थे।

एसजी ने कहा कि इसने उन्हें अन्य देश के पुरुषों के बराबर भी ला दिया। अब तक लोगों का मानना था कि धारा 370 आपकी प्रगति में बाधक नहीं है और इसे हटाया नहीं जा सकता। अब 35ए नहीं होने से निवेश आ रहा है। पर्यटन शुरू हो गया है। जम्मू-कश्मीर में परंपरागत रूप से ज्यादा बड़े उद्योग नहीं थे। वे कुटीर उद्योग थे। आय का स्रोत पर्यटन था। अभी 16 लाख पर्यटक आए हैं। नए-नए होटल खुल रहे हैं जिससे बड़ी संख्या में लोगों को रोजगार मिलता है।

एसजी ने आगे कहा कि संविधान सभा उस अर्थ में कानून बनाने वाली संस्था नहीं है। जम्मू-कश्मीर का संविधान केवल एक कानून के बराबर है, यह एक प्रकार का संविधान नहीं है जैसा कि हम समझते हैं, गवर्नेंस का डाक्यूमेंट्स नहीं है। 2019 तक, जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट के न्यायाधीश “राज्य के संविधान के प्रति सच्ची निष्ठा” क़ी शपथ लेते थे। जबकि उन पर भारत का संविधान लागू करने का दायित्व था। लेकिन उन्होंने जो शपथ ली वह जम्मू-कश्मीर के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त कर रही थी। उन्होंने विधानसभा बहस का हवाला दिया कि संसद ने अनुच्छेद 370 को “अस्थायी प्रावधान” के रूप में देखा। इस पर चीफ जस्टिस ने कहा कि ये व्यक्तिगत विचार हैं। अंततः, ये एक सामूहिक रूप में संसद की अभिव्यक्तियां नहीं हैं।

गौरतलब है कि भारतीय संविधान का अनुच्छेद 35ए एक ऐसा अनुच्छेद था जो जम्मू और कश्मीर राज्य की विधायिका को राज्य के “स्थायी निवासियों” को परिभाषित करने और उन्हें विशेष अधिकार और विशेषाधिकार प्रदान करने का अधिकार देता था।

जम्मू और कश्मीर राज्य ने इन विशेषाधिकारों को परिभाषित करते हुए भूमि और अचल संपत्ति खरीदने की क्षमता, मतदान करने और चुनाव लड़ने की क्षमता, सरकारी रोजगार की तलाश और उच्च शिक्षा और स्वास्थ्य देखभाल जैसे अन्य राज्य लाभों का लाभ उठाने की क्षमता को शामिल किया। राज्य के गैर-स्थायी निवासी, भले ही भारतीय नागरिक हों, इन ‘विशेषाधिकारों’ के हकदार नहीं थे। अनुच्छेद 35ए जम्मू-कश्मीर के बाहर के किसी भी व्यक्ति (जो स्थायी निवासी नहीं है) को राज्य में नौकरी पाने या राज्य में संपत्ति रखने से रोकता है।

संविधान पीठ ने केंद्र सरकार से पूछा कि जब संसद की सहमति से छह महीनों के लिए और अधिकतम तीन साल के लिए ही राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है तो आपने उससे ज्यादा समय कैसे लगाया? तुषार मेहता ने कहा कि इस एक्ट से पहले कुछ श्रेणी के आरक्षण की सुविधा कश्मीर डिविजन के सीमावर्ती इलाकों में दी जाती थी, क्योंकि वहां अक्सर पाकिस्तान की ओर से हमले और गोलीबारी होती रहती थी। मेहता ने कहा 1976 में संविधान का 42वां संशोधन किया गया था, लेकिन यह जम्मू-कश्मीर पर लागू नहीं हुआ। इस प्रकार संविधान की प्रस्तावना का मौलिक कर्तव्यों और अनुच्छेद 139ए में समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और अखंडता शब्द जम्मू और कश्मीर पर लागू नहीं किए गए।

जब 2018 में राष्ट्रपति शासन लगा तो किसी ने इसे चुनौती नहीं दी। जब विधानसभा भंग हुई तो किसी ने इसे चुनौती नहीं दी। याचिकाकर्ताओं ने अनुच्छेद 3 के प्रावधान के निलंबन के पीछे की मंशा का तर्क दिया गया जबकि स्थापना के बाद से जब भी राष्ट्रपति शासन लगाया जाता है तो अनुच्छेद 3 के प्रावधानों को निलंबित कर दिया जाता है।

मेहता ने कहा एक और तर्क यह दिया गया कि राज्यों के पुनर्गठन ने जम्मू-कश्मीर राज्य को एक केंद्र शासित प्रदेश बना दिया। एक केंद्र शासित प्रदेश एक राज्य की तरह ही संघीय ढांचे का एक हिस्सा है। सरकार को यह आवश्यक लगा कि कुछ समय के लिए यह संघ के अधीन रहे। जिसे बाद में वापस कर दिया जाएगा। मेहता ने कहा कि दुर्भाग्य की बात यह है कि अब तक लोगों को यह विश्वास था कि यह प्रगति में बाधक नहीं है, उन्हें अधिकारों से वंचित नहीं किया गया, उन्हें बताया गया कि वे विशेष हैं और इसके लिए लड़ने के लिए कहा गया। वे आश्वस्त थे कि कई प्रावधान उनके विरुद्ध थे।

मेहता ने नेहरू, इंदर मल्होत्रा, विष्णु कामथ, शाम लाल सराफ, सोनावणे, डी.सी. शर्मा, और मान सिंह पी. पटेल के भाषण पढ़े जहां वे संकेत देते हैं 370 एक अस्थायी प्रावधान था जिसे किसी भी समय हटाया जा सकता था।

इस पर चीफ जस्टिस ने कहा कि लेकिन य़ह सिर्फ संसद के व्यक्तिगत सदस्यों के विचार हैं। यहां संसद के निर्णय पर विचार हो रहा है। सिब्बल ने कहा कि बहस के दौरान नेहरू बाहरी लोगों द्वारा जमीन खरीदने के सख्त खिलाफ थे क्योंकि व्यापार आएगा और राज्य को पूरी तरह से नष्ट कर देगा।

अनुच्छेद 370 को लेकर संसद में पेश की गई विभिन्न स्पीच का हवाला देते हुए मेहता ने कहा कि इन स्पीच से साफ है कि उनका मानना था कि आर्टिकल 370 अस्थायी प्रावधान है और इसे कभी भी हटाया जा सकता है। इस पर चीफ जस्टिस ने कहा कि ये सांसदों की व्यक्तिगत राय थी। हमारे लिए मायने ये रखता है कि संसद ने सामूहिक तौर पर उस विषय पर क्या फैसला लिया।

इसी बीच याचिकाकर्ताओं की ओर से कपिल सिब्बल ने कहा कि इन बहस के दौरान नेहरू ने कहा था कि अगर आप बाहर के लोगों के जम्मू कश्मीर में ज़मीन खरीदने के बारे में बात कर रहे हैं तो मैं इसके खिलाफ हूं। नेहरू का मानना था कि जम्मू कश्मीर में बाहर का कारोबार आने से वो राज्य को खत्म कर देगा।

लेक्चरर के निलंबन का मामला उठा 

सुप्रीम कोर्ट में अनुच्छेद 370 पर सुनवाई में जम्मू कश्मीर के राजनीति विज्ञान के लेक्चरर के शामिल होने और उस पर सवाल करने के बाद उनको निलंबित किए जाने का मामला उठा। सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को केंद्र के शीर्ष कानून अधिकारी को निर्देश दिया कि वह जम्मू-कश्मीर के उपराज्यपाल मनोज सिन्हा से बात करें। अदालत ने उन्हें यह पता लगाने का निर्देश दिया कि केंद्र शासित प्रदेश के शिक्षा विभाग के एक लेक्चरर को अनुच्छेद 370 को खत्म करने के खिलाफ बहस करने के लिए अदालत में पेश होने के कुछ दिनों बाद निलंबित क्यों किया गया।

सुप्रीम कोर्ट ने यह जानना चाहा कि क्या निलंबन व्याख्याता की अदालत के समक्ष उपस्थिति से जुड़ा था। इसने संकेत दिया कि यदि ऐसा होता है तो इसे प्रतिशोध के रूप में देखा जा सकता है।

यह मामला श्रीनगर के एक सरकारी स्कूल में वरिष्ठ राजनीति विज्ञान व्याख्याता जहूर अहमद भट के निलंबन से जुड़ा है। सुप्रीम कोर्ट ने अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी और सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता से उनके निलंबन पर गौर करने को कहा।

संविधान पीठ अनुच्छेद 370 में किए गए बदलावों को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई कर रही है। इसी दौरान वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने भट के निलंबन का मुद्दा उठाया। भट एक वकील के रूप में 23 अगस्त को मामले में याचिकाकर्ताओं की ओर से बहस करते हुए सुप्रीम कोर्ट में पेश हुए थे। सिब्बल ने पीठ को बताया कि भट को सुप्रीम कोर्ट में पेश होने के एक दिन बाद निलंबित कर दिया गया था।

इस पर एसजी मेहता ने कहा कि अखबार में जो बताया गया है वह पूरा सच नहीं हो सकता है। इस पर सिब्बल ने कहा कि यह सिर्फ अखबार से नहीं है। 25 अगस्त का ऑर्डर मेरे पास है।

मेहता ने बताया कि अन्य मुद्दे भी हैं। वह विभिन्न अदालतों में पेश होते हैं। उन्होंने कहा कि वह सारी जानकारी कोर्ट के सामने रखेंगे। इस पर सिब्बल ने कहा तो फिर उन्हें पहले ही निलंबित कर देना चाहिए था। अब क्यों? यह उचित नहीं है। हमारे लोकतंत्र को इस तरह से काम नहीं करना चाहिए।

चीफ जस्टिस ने तब अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी से कहा कि देखिए क्या हुआ है। जो कोई भी इस अदालत में पेश होता है उसे निलंबित कर दिया जाता है। इस पर एक नजर डालें। बस उपराज्यपाल से बात करें। उन्होंने कहा कि अगर कुछ और है, तो वह अलग है। लेकिन उनके सामने आने और फिर निलंबित होने का इतना करीबी सिलसिला क्यों?

सॉलिसिटर जनरल ने कहा कि निलंबन अन्य मुद्दों से संबंधित था, लेकिन न्यायमूर्ति एसके कौल द्वारा समय की ओर इशारा करने के बाद उन्होंने स्वीकार किया कि यह निश्चित रूप से उचित नहीं था।

जस्टिस बीआर गवई ने कहा कि सरकारी कार्रवाई प्रतिशोध हो सकती है। उन्होंने कहा, ‘फिर इतनी आज़ादी का क्या होगा… अगर यह यहां पेशी के कारण हुआ है तो यह वास्तव में प्रतिशोध है।

भट खुद उपस्थित हुए और पांच मिनट तक बहस की। उन्होंने अदालत को बताया कि जम्मू-कश्मीर में छात्रों को भारतीय राजनीति पढ़ाना अगस्त 2019 के बाद से और अधिक कठिन हो गया है, जब केंद्र ने अनुच्छेद 370 को रद्द किया, क्योंकि छात्र उनसे पूछते हैं, ‘क्या हम अभी भी एक लोकतंत्र हैं? भट ने तर्क दिया था कि जम्मू-कश्मीर ने विशेष दर्जा खो दिया है और ‘भारतीय संविधान की नैतिकता का उल्लंघन करते हुए इसे दो केंद्र शासित प्रदेशों में विभाजित कर दिया गया है। यह कदम सहयोगात्मक संघवाद और संविधान की सर्वोच्चता के खिलाफ था।

(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार हैं।)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles