Saturday, April 27, 2024

भीमा कोरेगांव मामले में सामाजिक कार्यकर्ता महेश राउत की जमानत मंजूर, लेकिन NIA ने फंसाया पेंच 

नई दिल्ली। 2018 के भीमा कोरेगांव दंगों में कुल 16 सामाजिक कार्यकर्ताओं को आरोपी बताकर जेलों में बंद किया गया है, उनमें से सबसे युवा महेश राउत (35 वर्ष) को आज बृहस्पतिवार के दिन बॉम्बे हाईकोर्ट से जमानत मिल गई है। अपने जीवन के 5 अनमोल वर्ष जेल की सीखचों के भीतर बिता चुके इन आरोपियों पर लगाये गये आरोपों की चार्जशीट अभी तक अदालत में दाखिल नहीं की जा सकी है। बेहद हाई प्रोफाइल मामला बताकर सरकार और सरकारी एजेंसियों द्वारा देश में ऐसा माहौल बनाया हुआ है कि प्रमुख समाचार पत्रों तक में इस सनसनीखेज मामले के बारे में शायद ही कोई खबर प्रकाश में आती हो।

लेकिन न्यायमूर्ति ए एस गडकरी और शर्मिला देशमुख की खंडपीठ द्वारा जमानत दिए जाने के आदेश से बीच-बीच में यह मामला फिर ताजा हो जाता है। देश के जाने माने पत्रकारों, साहित्यकार, सामाजिक कार्यकर्ता और नागरिक संगठन एवं लेखकों की भीड़ में महेश राउत सबसे कम सुना नाम रहा है। लेकिन आज जब उनकी जमानत की अपील मंजूर हो चुकी है, तो यह जिज्ञासा उत्पन्न होना स्वाभाविक है कि महेश राउत कौन हैं और उनकी पृष्ठभूमि क्या है?

बता दें कि महेश राउत अब छठे आरोपी हैं, जिन्हें भीमा कोरेगांव मामले में अदालत द्वारा जमानत दी गई है। इससे पहले प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता और छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के न्याय के लिए लड़ने वाली सुधा भारद्वाज, जनकवि वरवर राव, दलित लेखक और आंबेडकर के परिवार से सम्बद्ध आनंद तेलतुम्बडे, वेर्नोन गोंसाल्विस और अरुण फेरेरा को भी अदालत की ओर से जमानत दी जा चुकी है। इसमें वरवर राव को मेडिकल आधार पर जमानत मंजूर हुई थी।

मामले में एक अन्य आरोपी प्रख्यात वामपंथी लेखक एवं पत्रकार, गौतम नवलखा को जमानत तो नहीं मिली है, लेकिन उन्हें सर्वोच्च न्यायालय के एक आदेश के बाद जेल में बंद रखने के बजाय घर पर ही नजरबंद रखा गया है, और उनकी सुरक्षा पर होने वाले सरकारी बंदोबस्त और खर्चों का उन्हें भुगतान करना पड़ रहा है।

महेश राउत को जून 2018 में हिरासत में लिया गया था। उनकी ओर से एनआईए की विशेष अदालत के समक्ष जमानत प्रदान किये जाने की याचिका दाखिल की गई थी, जिसे नवंबर 2021 को एनआईए कोर्ट ने खारिज कर दिया था, जिसके बाद उन्होंने उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था।

कौन हैं महेश राउत?

विभिन्न सार्वजनिक स्रोतों से प्राप्त जानकारी के अनुसार महेश राउत का जन्म महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र में चंद्रपुर जिले के लखनपुर गांव में हुआ था। बेहद कम उम्र में ही सिर से पिता का साया हट जाने की वजह से राउत को अपने मामा के साथ रहकर स्कूली शिक्षा हासिल करनी पड़ी। उनकी स्कूली पढ़ाई-लिखाई गढ़चिरौली स्थित नवोदय विद्यालय में हुई थी, और इसके बाद की उच्च शिक्षा नागपुर से हासिल की। 2007 में कुछ समय के लिए उन्होंने प्राथमिक शिक्षक के तौर पर भी काम किया।

लेकिन 2009 में उन्हें मुंबई स्थित प्रसिद्ध टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंस (टीआईएसएस) में सामजिक कार्य पर अध्ययन करने का मौका हासिल हुआ, इसलिए नौकरी छोड़कर उन्होंने टीआईएसएस ज्वाइन कर लिया। टीआईएसएस से डिग्री हासिल करने के बाद राउत का चुनाव प्रधानमंत्री ग्रामीण विकास (पीएमआरडी) फेलोशिप के लिए हो गया था।

लेकिन 2018 में जब वे बड़ी आंत के प्रदाह रोग से जूझ रहे थे, उसी वर्ष भीमा कोरेगांव केस में षड्यंत्र रचने का आरोपी बनाकर राउत को अन्य 6 लोगों के साथ गिरफ्तार कर लिया गया। उनके परिचितों से जानकारी मिलती है कि राउत के दादाजी स्थानीय स्तर पर नेता थे, और उनकी वैचारिकी ने राउत को गहराई से प्रभावित किया था।

महेश राउत की छोटी बहन ने बातचीत में बताया था कि टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंस में जाने से पहले भाई पैसा कमाने और आरामदेह जिंदगी जीने के प्रति गंभीर थे, लेकिन टीआईएसएस में जाने के बाद उनके दृष्टिकोण में बड़ा बदलाव आया था। पीएमएमआरडी की फेलोशिप खत्म होने के बाद राउत ने राज्य के आदिवासी क्षेत्रों में काम करने का फैसला लिया।

द वायर के साथ बातचीत में उनकी बहन ने बताया कि “इस क्षेत्र के विभिन्न कॉलेजों में लेक्चर देने के लिए उन्हें आमंत्रित किया जाता था, जिससे उन्हें थोड़ी-बहुत आय भी प्राप्त हो जाती थी। लेकिन ज्यादातर अपनी आर्थिक जरूरतों के लिए वे परिवार के लोगों पर निर्भर थे। उन्होंने जो राह चुनी थी, उस पर हमें गर्व है।”

सूरजगढ़ माइनिंग प्रोजेक्ट सहित इस क्षेत्र में अनेकों विरोध प्रदर्शनों का उन्होंने नेतृत्व किया। जिला परिषद की सदस्य और इंडियन लॉ सोसाइटी कालेज की पूर्व छात्र लालसू लोगोटी का कहना था, “आदिवासियों एवं हक की लड़ाई में उन्होंने हमेशा संवैधानिक और क़ानूनी राह को ही चुना। एक पिछड़े समुदाय ताल्लुक रखने वाले राउत अपने समुदाय और आदिवासियों को किन समस्याओं का सामना करना पड़ता है, के बारे अच्छी तरह से वाकिफ थे।”

विस्थापन विरोधी जन विकास आंदोलन के संयोजक और समिति के सदस्य के रूप में महेश राउत ने क्षेत्र के आदिवासी समुदाय के तेंदू पत्ते की बिचौलियों के बगैर बाजार में सीधी बिक्री की मुहिम में अपनी सक्रिय भूमिका अदा करने का काम किया था। इसके अलावा वीवीजेवीए के बैनर तले उन्होंने हाशिये पर पड़े विस्थापितों के हक की लड़ाई लड़ी। इसके अलावा राउत भारत जन आंदोलन (एक मानवाधिकार संगठन) के भी सदस्य के बतौर सूरजगढ़ सहित गढ़चिरौली जिले के माइनिंग प्रोजेक्ट्स के खिलाफ अभियान चला रहे थे।

6 जून, 2018 को यूएपीए अधिनियम के तहत पुणे पुलिस ने राउत को उनके घर से गिरफ्तार किया था। तलोजा सेन्ट्रल जेल में 5 वर्षों से अधिक अपने जीवन के बहुमूल्य वर्षों को गंवाने वाले युवा को आज उच्च न्यायालय ने जमानत पर रिहा करने का आदेश दिया है, लेकिन ठहरिये! एनआईए द्वारा इस आदेश के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर करते हुए समय मांगा है, जिस पर उच्च न्यायालय ने अपने आदेश की तामील पर एक सप्ताह की रोक लगा दी है। इस प्रकार जमानती आदेश हासिल करने के बाद भी महेश राउत की रिहाई पर अभी भी संदेह बना हुआ है।

महेश राउत की रिहाई के लिए उच्च न्यायालय में दलील

राउत के पक्ष में वरिष्ठ वकील मिहिर देसाई और विजय हिरेमथ ने कोर्ट के सामने दलील रखी थी कि जिस प्रकार से मामले में सह-आरोपी आनंद तेलतुंबडे, अरुण फेरेरा और वेरनॉन गोंजाल्विस को अदालत ने जमानत दी है, उसी आधार पर राउत को भी जमानत दी जानी चाहिए। इसके अलावा उनकी ओर से यह दलील भी पेश की गई कि पहले ही राउत ने 5 वर्ष से अधिक कैद में गुजार लिए हैं, और अदालती कार्यवाही अभी तक शुरू नहीं हो सकी है, इस सूरत में वे जमानत के हकदार हैं।

इतना ही नहीं, उनका यह भी तर्क था कि उनके खिलाफ मुख्य आरोप का जो आधार बनाया गया है, उसमें रोना विल्सन के कम्प्यूटर से जब्त किये गये दस्तावेजों को बनाया गया है। इस आधार पर राउत को फंसाया गया है, जबकि कंप्यूटर उनका है ही नहीं, और न ही उन्होंने किसी दस्तावेज पर हस्ताक्षर किये थे।

वहीं एनआईए का पक्ष रखते हुए अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल देवांग व्यास और वकील सन्देश पाटिल ने राउत की जमानत याचिका का इस आधार पर विरोध किया कि राउत के कथित कृत्य समाज के खिलाफ निर्देशित थे। उनकी ओर से तर्क रखा गया कि आरोपी राउत को संवैधानिक आधार पर रिहा करना इसलिए न्यायोचित नहीं होगा क्योंकि उसके कृत्य सरकार और समाज के हितों के खिलाफ थे और इससे भारत की एकता, अखंडता, सुरक्षा और संप्रभुता प्रभावित होती है। 

इसके साथ ही उनकी ओर से इस तथ्य को भी आधार बनाया गया, जिसमें कथित रूप से यह दिखाया गया है कि कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (माओवादी) द्वारा राउत सहित सह-अभियुक्त सुरेंद्र गाडलिंग और सुधीर धवले को 5 लाख रूपये दिए गये थे।

महेश राउत को 5 वर्षों बाद जमानत दी जाती है या नहीं, इसका फैसला सर्वोच्च न्यायालय को करना है, जहां एनआईए ने राउत की रिहाई के खिलाफ अपील दायर की है। भीमा कोरेगांव मामले में सरकारी एजेंसियों की दौड़-धूप का नतीजा अभी तक सिफर साबित हुआ है। विश्व में लोकतंत्र की जननी का जय-उद्घोष करने वाली मोदी सरकार की मशीनरी स्वंय इस मामले में संदेह के घेरे में है।

संयुक्त राज्य अमेरिका स्थित एक डिजिटल फॉरेंसिक फर्म, आर्सेनल कंसल्टिंग ने दिसंबर 2022 को इस बारे में एक रिपोर्ट जारी कर बताया था कि जून 2019 में पुलिस द्वारा भीमा कोरेगांव मामले में गिरफ्तार स्टेन स्वामी, जिनकी मौत जेल के भीतर 5 जुलाई, 2021 को हो गई थी, के कंप्यूटर में हिरासत में लिए जाने से 5 साल पहले ही बड़े पैमाने पर मैलवेयर वायरस डाला गया था।

स्टेन स्वामी झारखंड में गरीब आदिवासियों के बीच में उनके अधिकारों के लिए लड़ने वाले बेहद प्रतिष्ठित सामाजिक कार्यकर्ता थे, जिनके डिवाइस में हैकर ने मैलवेयर डालकर उनके खिलाफ सुबूत तैयार किये थे। आर्सेनल कंसल्टिंग ने 2021 में भी इसी प्रकार का खुलासा सुरेंद्र गाडलिंग और रोना विल्सन के कंप्यूटर को लेकर किया था, जिसमें द्वेषपूर्ण मैलवेयर सॉफ्टवेयर को ईमेल के जरिये डालकर 10 पत्र प्लांट किये गये थे। पुणे पुलिस और एनआईए ने इसी तथ्य को आधार बनाते हुए अपनी चार्जशीट दाखिल की है।

इसी मामले में सुनवाई करते हुए एक विशेष अदालत ने 18 सितंबर के दिन एनआईए को निर्देशित किया है कि वह साबित करे कि उसके द्वारा इकट्ठा किये सुबूतों की क्लोन कॉपी आरोपियों को दी गई है। जाहिर है, इतने वर्ष गुजर जाने के बाद भी अभी तक इस मामले में अदालती कार्रवाई शुरू नहीं हो सकी है।

सारे आरोपी वे लोग हैं, जिनके पास हथियार के नाम पर कलम रही है, और वे देश के सबसे पिछड़े और बदहाल क्षेत्रों में मौजूद समाज के हाशिये पर पड़े लोगों से सहानुभूति रखते थे, जिसके बारे में देश के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का कहना था कि जब तक समाज में सबसे गरीब व्यक्ति की आंखों के आंसू को नहीं पोछा जाता, तब तक देश में वास्तविक लोकतंत्र को स्थापित करने की बात कहना फिजूल है। 

(रविंद्र पटवाल ‘जनचौक’ की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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