Thursday, March 23, 2023

कैसे मनाएं महिला दिवस जब महिला ही न्याय से रह रही है वंचित

पूनम मसीह
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यह तो थी इस साल मनाए जाने वाले अंतर्राष्ट्रीय दिवस की बात। लेकिन पिछले एक साल में महिलाओं को विश्व पटल पर कई तरह के संघर्षों का सामना करना पड़ा है। यहां तक की एक तरफ महिलाओं की बराबरी की बात की जा रही थी और दूसरी तरफ महिलाओं पर हिंसा लगातार बढ़ी है। महिला दिवस से दो दिन पहले एक महिला पत्रकार ने बड़े गुस्से में अपनी फोटो के साथ स्टेट्स लगाया “मेहरबानी करके मुझे कोई महिला दिवस की बधाई न दे, पूरे साल हर जगह महिलाओं का शोषण हो रहा है न्याय न के बराबर है, ऐसे में बधाई का क्या मतलब”?

महिलाओं के सम्मान में हर साल आठ मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता है। आधुनिकता और पूंजीवाद की बढ़ती ताकतों के बीच महिलाओं के असली मुद्दे और जरूरी आवाज कहीं दबती जा रही है। लगभग एक सदी से मनाये जा रहे इस स्पेशल दिन को मनाने के तरीकों में अब कई तरह के बदलाव आ गए हैं।

हर साल महिला दिवस एक थीम के तहत यह मनाया जाता है। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस 2022 की थीम थी “जेंडर एक्वालिटी फॉर सस्टेनेबेल टुमारो” ( Gender Equality for sustainable tomorrow ) और साल 2023 का थीम है “समानता को अपनाना”(Embrace Equality) है।

एक तरफ हिंसा दूसरी तरफ दिवस

यह तो थी इस साल मनाए जाने वाले अंतर्राष्ट्रीय दिवस की बात। लेकिन पिछले एक साल में महिलाओं को विश्व पटल पर कई तरह के संघर्षों का सामना करना पड़ा है। यहां तक की एक तरफ महिलाओं की बराबरी की बात की जा रही थी और दूसरी तरफ महिलाओं पर हिंसा लगातार बढ़ी है।

महिला दिवस से दो दिन पहले एक महिला पत्रकार ने बड़े गुस्से में अपनी फोटो के साथ स्टेटस लगाया “मेहरबानी करके मुझे कोई महिला दिवस की बधाई न दे, पूरे साल हर जगह महिलाओं का शोषण हो रहा है न्याय न के बराबर है, ऐसे में बधाई का क्या मतलब”?

वैसे इस बात में कोई बुराई भी नहीं है। पिछले एक साल की कुछ घटनाओं पर सिलसिलेवार तरीके से नजर डाली जाए तो एक दिन की बधाई का कोई मतलब नहीं रह जाता है।

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महिलाओं के प्रति लगातार बढ़ती हिंसा और न्याय न मिल पाने की स्थिति ने कइयों के हौसले को तोड़ दिया है। साल 2020 का हाथरस गैंगरेप केस से पूरा देश परिचित है। इस केस के मामले में फास्ट ट्रैक कोर्ट में मामला चला। लगभग ढाई साल बाद इस केस में आए फैसले ने सबको हैरान कर दिया है।

महिला दिवस से लगभग एक सप्ताह पहले हाथरस की एससी-एसटी कोर्ट ने अपराध में शामिल चार अपराधियों में से तीन को रिहा कर दिया है। जबकि सिर्फ संदीप नाम के अपराधी को एससी/एसटी एक्ट और आईपीसी की धारा 304 के तहत दोषी करार दिया गया है।

हाथरस गैंगरेप की चर्चा पूरे देश में हुई। कई नेताओं से लेकर सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इस पर अपना रोष जाहिर किया था। आम जनता ने भी सरकार के प्रति सड़कों पर अपना गुस्सा जाहिर किया। लेकिन अंत में सबूतों के अभाव में अपराधी बरी हो गए।

इस केस में यूपी पुलिस ने पोस्टमार्टम रिपोर्ट के आधार पर ये दावा किया था कि पीड़िता के साथ गैंगरेप नहीं हुआ था। जिसके लिए कोर्ट ने यूपी पुलिस को फटकार भी लगाई थी।

इस केस में लंबे समय तक काम करने वाली पत्रकार निधि सुरेश और तनुश्री ने फैसला आने के बाद एक ट्विटर स्पेस में अपनी बात को रखते हुए यूपी पुलिस की कार्रवाई पर सवाल उठाए थे। जिसमें उनका कहना था पुलिस ने सबूतों के साथ छेड़छाड़ की साथ ही रेप के मामले में जांच करने में देरी की गई। इसलिए सबूतों के अभाव में पीड़िता को न्याय नहीं मिल पाया।

तो ये है 21वीं सदीं में किसी महिला को न्याय देने की प्रक्रिया। साल 2012 में बाहरी दिल्ली में हुए गैंगरेप के मामले में नवंबर के महीने में आए फैसले में यही देखने को मिला। इस मामले में पीड़िता के साथ गैंगरेप करने बाद उसकी हत्या कर दी गई थी। माता-पिता द्वारा लगभग 10 साल तक एक लंबी न्यायिक लड़ाई लड़ने के बाद भी पीड़िता को न्याय नहीं दिला पाया।

इस मामले में सुप्रीम कोर्ट से आए फैसले ने लोगों का न्याय के प्रति भरोसा ही तोड़ दिया। जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने सबूतों के अभाव में सभी आरोपियों को बरी कर दिया है।

देश में एक तरफ महिलाओं के साथ गैंगरेप हो रहे हैं दूसरी तरफ न्याय के मामले में उन्हें सिर्फ अपराधियों के बरी होने की पीड़ा मिल रही है।

एनसीआरबी (नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो) के डेटा के अनुसार प्रतिदिन औसतन 86 महिलाओं के साथ रेप किया जा रहा है। जिसमें दलित आदिवासी महिलाओं के साथ ऐसे मामले ज्यादा होते हैं।

इस बारे में पत्रकार और द मूकनायक की फाउंडर मीना कोटवाल का कहना है कि कोई एक दिन सिर्फ महिलाओं के लिए नहीं हो सकता है। यह बात सच है कि एक तरफ हम महिला दिवस मना रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ महिलाओं को न्याय नहीं मिल पा रहा है।

हाथरस मामले में आए फैसले पर वह कहती हैं कि दो साल तक यह मामला चला। फास्ट कोर्ट में चला लेकिन अंत में जो फैसला आया वह चौंकाने वाला है। इस समय उनके परिवार की स्थिति के बारे में सोचे कैसी होंगी।

पीड़िता के साथ इतनी बर्बरता होती है और कोर्ट से फैसला आता है कि रेप हुआ ही नहीं है। आखिर यह कैसे इंसाफ है। जहां पूरी तरह से मामले को दरकिनार कर दिया गया है। कोर्ट का फैसला अपने आप में ही संदेहपूर्ण है। आखिर पीड़िता के साथ इतनी बर्बरता कैसे हुई। उसकी रीढ़ की हड्डी कैसे टूटी?

कोर्ट ने कहा कि उसे जानबूझकर नहीं मारा गया है। लेकिन सवाल उठता है कि उसे मारा ही क्यों? इसमें बहुत सारे सवाल हैं जो आम इंसान के जेहन में हैं। इस फैसले से लोग एकदम खुश नहीं हैं।

मैं ऐसे महिला दिवस के दिखावे से एकदम खुश नहीं हूं कि महिला दिवस पर हम ये कर रहे हैं या वो कर रहे हैं। महिलाओं को सिर्फ उनका अधिकार दे दिया जाए वहीं बहुत है। महिलाएं अपने आप में पूर्ण हैं वह अपना काम खुद कर लेती हैं। लेकिन हर कदम पर उन्हें अपने आप को साबित करना पड़ता है।

हाल के दिनों में महिलाओं पर शारीरिक हिंसा भी बहुत बढ़ी है। एक तरफ महिलाएं चांद तक पहुंच गई हैं। दूसरी तरफ उन्हें आज भी दोयम दर्जे का समझा जाता है। पिछले कुछ महीनों में महिलाओं के प्रति शारीरिक हिंसा इस कदर बढ़ी है जो कल्पना से परे हैं। श्रद्धा बलात्कार वाले मामले ने पूरे देश का ध्यान अपनी ओर खींचा। जबकि श्रद्धा एक पढ़ी लिखी माडर्न मूल्यों से अपनी जि़दंगी जी रही थी। लेकिन फिर भी शारीरिक हिंसा से नहीं बच पाई।

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अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस से मात्र दो दिन पहले छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में एक पति ने अपनी पत्नी के चरित्र पर शक के कारण उसकी हत्या कर उसे टाइल्स काटने वाली मशीन से काटकर पानी के टैंक में बंद कर दिया। इसके बाद किसी दूसरे लड़के के साथ भागने की अफवाह को उड़ा दिया। फिलहाल जांच में आरोपी पकड़ा गया है।

इस तरह की घटना दर्शाती है कि भले ही 21वीं सदीं में हम बहुत आगे निकल गए हों लेकिन महिलाओं के प्रति हिंसा के मामले थमने का नाम नहीं ले रहे हैं।

इस बारे में महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्याल में स्त्री अध्ययन की विभागाध्यक्ष और एसोसिएट प्रोफेसर सुप्रिया पाठक का 21वीं सदीं में महिलाओं के लिए बराबरी का नारा देने और बढ़ती हिंसा पर कहती हैं कि महिलाओं के प्रति लगातार हिंसा की घटनाएं इसलिए बढ़ रही हैं क्योंकि पिछले कुछ सालों में पब्लिक प्लेस में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ी है। जब तक महिलाएं घरों से बाहर नहीं निकली थीं। किसी बड़े संस्थान में निर्णय लेने के पद पर भी नहीं थीं। जब तक ऐसी स्थिति नहीं थी।

लेकिन पिछले सालों में महिलाओं की उपस्थिति कई जगहों में बढ़ी है। पहले किसी भी सीट पर सिर्फ जाति के आधार पर बंटवारा हो रहा था। लेकिन अब महिलाओं ने भी इसमें अपनी हिस्सेदारी दे दी। जिसके कारण नौकरी पेशे और पढ़ाई-लिखाई के मामले में जगह को और बढ़ाया है।

वह कहती हैं कि नौकरी के एक बड़े हिस्से में महिलाओं ने अपनी हिस्सेदारी दी है। इसको ऐसा समझा जा सकता है कि पहले एक पूरा पिज्जा किसी एक तबके को ही मिल रहा था। लेकिन अब इस हिस्से का एक बड़ा हिस्सा बंट जा रहा है और लोग इस सच्चाई को स्वीकार नहीं करना चाह रहे हैं। जिसके कारण हिंसा बढ़ रही है।

महिलाओं के साथ लगातार बढ़ती रेप की घटना का जिक्र करते हुए वह कहती हैं कि अब के दौर में महिलाओं के रेप के मामले में कितनी क्रूरता देखने को मिल रही है। यहां तक कि रेप के मामलों में न्याय भी नहीं मिल पा रहा है। ऐसे में हम कैसे कह दें कि बराबरी के आधार पर महिला दिवस मनाया जाए।

(जनचौक संवाददाता पूनम मसीह की रिपोर्ट)

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