Sunday, April 28, 2024

किसान-मजदूर एकता की ओर बड़ा कदम

नई दिल्ली। शुक्रवार- यानी 16 फरवरी का दिन भारत में बन रही किसान-मजदूर एकता का गवाह बनेगा। संयुक्त किसान मोर्चा और केंद्रीय ट्रेड यूनियनों ने साथ मिलकर एक दिन के औद्योगिक/क्षेत्र विशेष (Sectoral) की हड़ताल और ग्रामीण बंद का आह्वान किया है। 2020 में संयुक्त किसान मोर्चा की अगुआई में शुरू हुए किसान आंदोलन का ट्रेड यूनियनों समर्थन किया था। उससे साझा संघर्ष की नई जमीन तैयार हुई। संयुक्त किसान मोर्चा अपने साथ खेतिहर मजदूरों के संगठनों को भी जोड़ने में सफल रहा है। इस तरह ये तमाम संगठन देश में मोनोपॉली-कॉर्पोरेट और सांप्रदायिकता के मेल से शक्ति पा रहे वर्तमान सत्ता तंत्र के खिलाफ साझा लड़ाई छेड़ने की स्थिति में आए हैँ।

संयुक्त किसान मोर्चा और ट्रेड यूनियनों ने सभी क्षेत्रों के श्रमिक वर्गों को एकजुट करने की पहल की है। इन संगठनों की समझ है कि तमाम मेहनतकश समूह “भाजपा नेतृत्व वाली सरकार की कॉर्पोरेट समर्थक और जन विरोधी नीतियों” की मार झेल रहे हैं। इस तरह इन तमाम तबकों का मोर्चा बनने की वस्तुगत परिस्थितियां निर्मित हो चुकी हैं।

नरेंद्र मोदी सरकार के शासनकाल में नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था अपने चरम रूप में पहुंच गई है। उसका स्वाभाविक परिणाम भारतीय अर्थव्यवस्था पर मोनोपॉली कॉर्पोरेट घरानों का शिकंजा कस जाना है। इन घरानों ने विदेशी वित्तीय पूंजी के साथ अपना याराना मजबूत कर लिया है। नतीजा है कि वैश्विक वित्तीय पूंजी से संचालित पश्चिमी सरकारें और मीडिया भारत की कथित आर्थिक सफलताओं का रोजमर्रा के स्तर पर बखान करते रहते हैं। इसमें एक अहम पहलू यह है कि भारत दुनिया में सबसे तेज गति से उभर रही अर्थव्यवस्था है।

गौरतलब है कि जब पश्चिमी देशों ने चीन से यथासंभव संबंध तोड़ने की नीति अपना ली है, तो उनका स्वार्थ भारत जैसे देशों के बाजार और सस्ते श्रम से जुड़ गया है। ऐसे में भारत की चमकती अर्थव्यवस्था का कथानक प्रचारित करना उनकी अपनी जरूरत बन गई है।

इससे भारत सरकार के लिए अपनी जनता के एक हिस्से को भरमाना आसान हो गया है। तो उसने सबसे तेजी से बढ़ रही अर्थव्यवस्था की बदौलत भारत को पांच से 40 ट्रिलियन डॉलर तक की इकॉनमी बनाने का धुआंधार प्रचार छेड़ रखा है। लेकिन श्रमिक वर्ग और किसानों- दरअसल पूरे आम जन की जमीनी हकीकत इस कहानी के बिल्कुल उलट है।

इस बात को आंकड़ों से सिद्ध किया जा सकता है कि भारत की 60 फीसदी आबादी के उपभोग और जीवन स्तर में हाल के वर्षों में लगातार गिरावट आई है। और यह कोई संयोग नहीं है। बल्कि यह वर्तमान सरकार की नीतियों का सीधा परिणाम है। मोदी सरकार ने अपनी नीतियों से अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों पर कॉर्पोरेट मोनोपॉली कायम होने और कॉर्पोरेट मुनाफे में वृद्धि का मार्ग प्रशस्त किया है। दूसरी तरफ किसानों समेत तमाम आम जन पर टैक्स का बोझ बढ़ाने के साथ-साथ श्रमिक वर्ग के शोषण को बढ़ाने का रास्ता भी उसने साफ किया है। मसलन,

  • शहरी क्षेत्र की जरूरतों के मुताबिक कृषि उत्पादों के आयात और निर्यात को कभी बढ़ावा दिया जाता है, तो कभी रोक दिया जाता है। इससे किसान मुक्त बाजार की नीति के लाभ से वंचित हो जाते हैं, जबकि उसका पूरा नुकसान उन्हें उठाना पड़ता है।
  • कृषि लागत से जुड़ी सामग्रियों और अनेक कृषि उत्पादों पर जीएसटी लागू कर दिया गया है, जिससे किसानों की वास्तविक आमदनी घटी है।
  • कृषि क्षेत्र में पूंजीगत निवेश लगातार घटने के कारण खेती अलाभकारी होती जा रही है।
  • निजीकरण की नीतियांशिक्षाऔर स्वास्थ्य सेवाओं को आम जन की पहुंच से बाहर करती जा रही हैं। इसका खामियाजा किसान और मजदूर वर्ग के परिवार भुगत रहे हैं।
  • देश में बेरोजगारी आज जिस गंभीर अवस्था है, वैसा आजादी के बाद कभी नहीं रहा।
  • सरकार की नई श्रम संहिता का ही परिणाम है कि कई राज्यों में मजदूरों से 12 घंटों तक काम कराने की इजाजत दे दी गई है।

शुक्रवार का प्रतिरोध इन तमाम हालात के खिलाफ है। यह सिर्फ किसानों को एमएस स्वामीनाथन फॉर्मूले के मुताबिक न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) दिलाने के लिए नहीं है। बेशक एमएसपी को सुनिश्चित करने के लिए एक स्पष्ट कानून बनाने की मांग किसान आंदोलन की एक प्रमुख मांग है। लेकिन यह किसानों के एक लंबे मांग पत्रका हिस्सा है। किसान संगठन समझ चुके हैं कि उनकी समस्या की जड़ें उस आर्थिक दिशा में निहित है, जिस पर देश पिछले साढ़े तीन दशकों से चल रहा है। इस दिशा पर चलते हुए एमएसपी की मांग को संपूर्ण रूप से लागू नहीं किया जा सकता है। ना ही कृषि के अलाभकारी बनते जाने की समस्या से निपटा जा सकता है।

इसलिए किसानों ने अब यह मांग भी रखी है कि भारत डब्लूटीओ और अन्य मुक्त व्यापार समझौतों से बाहर निकले। डब्लूटीओ करार के तहत खाद्य सब्सिडी की सीमा लगाई गई है, जिसके रहते सार्थक एमएसपी नहीं दी जा सकती। चूंकि किसान संगठनों ने अपनी लड़ाई को बड़ा दायरा देने की जरूरत महसूस की है, इसलिए उन्होंने खेतिहर मजदूरों, दिहाड़ी मजदूरों, और ट्रेड यूनियनों से संबंधित मांगों को भी अपने मांग-पत्र का हिस्सा बनाया है। उन्होंने देश में सामाजिक सुरक्षा का प्रभावी ढांचा खड़ा करने की मांग भी की है, ताकि पूरे श्रमिक वर्ग को गरिमामय जिंदगी मिल सके।

जिस पॉलिटिकल इकॉनमी को किसानों ने अपनी समस्या की जड़ के रूप में पहचाना है, वही असल में तमाम श्रमिक वर्ग की मुसीबतों की जड़ में भी है। यह समझ ट्रेड यूनियनों में पहले से बनी रही है।

दरअसल इन नीतियों के कारण ही आज देश में सामाजिक अशांति बढ़ने के संकेत मिल रहे हैं। विभिन्न मुद्दों पर समाज के अलग-अलग तबके सड़कों पर उतरने को मजबूर हो रहे हैं। उनके बीच किसान और नौजवानों के संघर्ष ने खास ध्यान खींचा है। नौकरी संबंधी इम्तहान का पर्चा लीक होने, रोजगार के घटते अवसरों और अग्निवीर जैसी योजनाओं के खिलाफ युवाओं का उग्र विरोध जब-तब सामने आता रहा है। उनके अलावा मनरेगा मजदूरों, आंगनबाड़ी कार्यकर्ता, आशा कर्मी, पुराने की पेंशन की मांग करने वाले सरकारी कर्मचारी, शिक्षकों आदि के आंदोलन रोजमर्रा की बात बने हुए हैं। इन सबके बीच कमी आपसी समन्वय की रही है। साथ ही ज्यादातर संघर्षरत समूह यह समझ नहीं बना पाए हैं कि उनकी समस्याओं की जड़ कहां है।

इसका एक बड़ा कारण सांप्रदायिक आधार पर विभिन्न वर्गों में दुराव पैदा करने में सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी को मिली सफलता है। इससे वह बुनियादी मुद्दों को चुनावी राजनीति में अप्रभावी बनाए रखने में अब तक सफल रही है।

बहुत से तबके इस राजनीति का सही चरित्र नहीं समझ पाए हैं। संयुक्त किसान मोर्चा और ट्रेड यूनियनों को इस बात का श्रेय देना होगा कि ना सिर्फ उन्होंने इसे समझा है, बल्कि अब इसके खिलाफ साझा लड़ाई के लिए मैदान में उतरने की शुरुआत भी वे करने जा रहे हैं।

वामपंथी-समाजवादी विमर्श में यह समझ सवा सौ साल पहले बन गई थी कि औपनिवेशिक पृष्ठभूमि वाले देशों में किसान-मजदूर एकता किसी सकारात्मक बदलाव की पूर्व शर्त है। भारत में अतीत में ऐसी एकता बनाने की कोशिशें हुईं, लेकिन बात ज्यादा आगे नहीं बढ़ी। लेकिन अब वस्तुगत परिस्थितियां ऐसी बन गई हैं, जिनके बीच यह एकता अपरिहार्य हो गई है। आशा की जानी चाहिए कि 16 फरवरी 2024 इस बात की पुष्टि का दिन बनेगा।

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं।)

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