फिलहाल अपना मकसद साध लिया है ईरान ने

जैसी की आशंका थी, फिलस्तीनी प्रतिरोध से सुलगी और गजा में इजराइली नरसंहार से भभकी युद्ध की लपटें अब पश्चिम एशिया में क्षेत्रीय युद्ध का रूप ले रही हैं। इजराइल पर ईरान के जवाबी हमले ने हालात को खतरनाक मोड़ पर पहुंचा दिया है। अब अगर इजराइल ने फिर से ईरान या ईरानी ठिकानों पर हमला किया, तो इस युद्ध का और विकराल रूप देखने को मिल सकता है। वो युद्ध क्या रूप लेगा, इसका अभी अंदाजा लगाना भी मुश्किल है। 

यह पहला मौका है, जब ईरान ने इजराइल पर सीधा हमला किया। आखिर यह जोखिम उसने क्यों उठाया? इसे समझने के लिए संयुक्त राष्ट्र में ईरान के प्रतिनिधि ने जो कहा, उस पर ध्यान देना उपयोगी होगा। उन्होंने कहा-

“छह महीने से ज्यादा समय से अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस- खासकर अमेरिका ने गजा नरसंहार की जिम्मेदारी से बचाने के लिए इजराइल को ढाल प्रदान किया है। जबकि ये देश हमारे राजनयिक परिसरों पर इजराइल के सशस्त्र हमलों के खिलाफ हमारे आत्म-रक्षा के अधिकार से इनकार करते हैं। ठीक उसी समय, जब आत्म-रक्षा के नाम पर ही, उन्होंने असहाय फिलस्तीनियों के इजराइली नरसंहार को वाजिब ठहराया है।…    

ईरान ने अपनी कार्रवाई पूरी तरह से संयुक्त राष्ट्र घोषणापत्र की धारा 51 के तहत मिले आत्म-रक्षा के अधिकार के दायरे में रखी। इस अधिकार को अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत भी मान्यता मिली हुई है। यह कार्रवाई जरूरी और आनुपातिक थी।”

इसके साथ ही ईरान ने यह एलान किया कि उसका इस टकराव को और भड़काने का कोई इरादा नहीं है। जाहिर है, ईरान ने बीते एक अप्रैल को सीरिया की राजधानी दमिश्क में ईरानी दूतावास पर हुए इजराइली हमले के जवाब में 13 अप्रैल को इजराइल पर मिसाइल और ड्रोन दागे। ईरान का खास निशाना वह हवाई अड्डा बना, जहां से दमिश्क में बम गिराने के लिए इजराइली विमानों ने उड़ान भरी थी। अब उपलब्ध वीडियो से इस बात की तस्दीक होती है कि उस हवाई अड्डे को क्षतिग्रस्त करने में ईरान सफल रहा। 

जब इजराइल अपने दूतावास पर हुए हमले का जवाब देने की तैयारी में था, तब अमेरिका ने कई दूसरे देशों के माध्यम से उससे संपर्क किया था। अमेरिका ईरान पर दबाव बनाना चाहता था, ताकि वह इजराइल को बख्श दे। लेकिन तुर्किये से आई खबरों के मुताबिक तुर्किये के माध्यम से ईरान ने अमेरिका को सूचित कर दिया था कि वह इजराइल पर सीमित हमला करेगा। 

ईरान ने इस वादे का पालन किया। उसने सिर्फ एक दौर में मिसाइलें और ड्रोन दागे। उसके बाद उसने संयुक्त राष्ट्र को सूचित किया कि उसका मकसद फिलहाल पूरा हो गया है। अब इजराइल फिर हमला करेगा, ईरान तभी उसका जवाब देगा।

ईरान के इस जिम्मेदार रुख की संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की हुई आपात बैठक में अनेक देशों ने सराहना की। उनमें चीन और रूस भी शामिल हैं। इन देशों ने संयुक्त राष्ट्र घोषणापत्र के अनुच्छेद 51 के तहत मिले ईरान के आत्म-रक्षा के अधिकार का समर्थन किया है। 

खबरों के मुताबिक अमेरिका ने इजराइल को सलाह दी है कि वह ईरान पर फिर से हमला ना करे। खुद अमेरिकी मीडिया में आई खबरों के मुताबिक जो बाइडेन ने ईरानी हमले के बाद जब इजराइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू को फोन किया, तब उन्होंने यह साफ कर दिया कि उनके ईरान से युद्ध में अमेरिका प्रत्यक्ष भागीदारी नहीं करेगा। वैसे आम राय यही है कि अगर युद्ध ज्यादा भड़का, तो अमेरिका के पास इजराइल की रक्षा में सामने आने के अलावा कोई और चारा नहीं बचेगा। जबकि ईरान ने कहा है कि अगर अमेरिका ने उसके ठिकानों को निशाना बनाया, तो अमेरिकी ठिकाने भी उसके हमलों की जद में आएंगे।

इसलिए ये युद्ध अभी क्या रुख लेगा, इस बारे में ठोस रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता। बहरहाल, संयुक्त राष्ट्र में चीन के प्रतिनिधि ने जो कहा उस पर ध्यान दिया जाना चाहिए। उन्होंने रेखांकित किया कि ताजा घटनाएं गजा में चल रहे टकराव का ही परिणाम हैं। ये हमें याद दिलाती हैं कि फिलस्तीनी सवाल केंद्र में बना हुआ है। यानी जब तक फिलस्तीन का मसला हल नहीं होगा, अभी चल रहे टकरावों का अंत भी नहीं हो सकता। 

फिलहाल, आम समझ यही है कि ईरान ने जवाबी हमला करके अपने कई मकसद हासिल कर लिए हैं: 

  • यह ठीक है कि ईरानी हमलों से इजराइल को मामूली क्षति ही पहुंची। लेकिन ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि ईरान के हमले का सबको पहले से आभास था। एक अप्रैल के बाद ही इजराइल ने ईरानी मिसाइलों को इंटरसेप्ट करने की तैयारियां शुरू कर दी थीं। इस काम में उसे अमेरिका और ब्रिटेन का भी साथ मिला। दरअसल, हमले के समय बहुत-सी ईरानी मिसाइलों और ड्रोन्स को इन दोनों देशों के इंटरसेप्टरों ने रोका। 
  • मगर औचक इस तरह से नहीं होते। यह अनुमान लगाया जा सकता है कि ईरान अचानक हमला करता, तो इजराइल को कहीं ज्यादा गंभीर नुकसान होता। अब यह भी साफ हो चुका है कि ईरान ने इन हमलों के दौरान अपनी सुपरसोनिक मिसाइलों का इस्तेमाल नहीं किया।
  • तो कुल मिलाकर शनिवार रात हुए ईरानी हमले प्रतीकात्मक महत्त्व के थे। उनके जरिए ईरान एक संदेश देना चाहता था, जिसमें वह सफल रहा। 
  • संदेश यह है कि पश्चिम एशिया के समीकरण अब बदल चुके हैं। इजराइल के अभेद्य किला होने का गुमान अब टूट चुका है। वो दौर चला गया, जब इजराइल निर्भय रहते हुए किसी भी विरोधी को निशाना बना लेता था।
  • इन हमलों ने एक बार फिर से ध्यान फिलस्तीनी समस्या की तरफ खींच लिया है। इससे इजराइल से सामान्य संबंध बनाने के इच्छुक पश्चिम एशियाई देशों के लिए ऐसा करना अब और मुश्किल हो गया है।
  • ईरान की कई मिसाइलों और ड्रोन्स को जॉर्डन ने इंटरसेप्ट किया। जॉर्डन के शाह अब्दुल्ला अमेरिका के अनुगामी माने जाते हैं और उनके इजराइल से मधुर संबंध रहे हैं। लेकिन हमलों के बाद उन्हें भी यह सफाई देनी पड़ी कि उनके देश ने ऐसा अपनी जनता को सुरक्षित रखने के लिए किया- यानी इजराइल को बचाना उनका मकसद नहीं था। स्पष्टतः जॉर्डन में इजराइल विरोधी उग्र जन भावना को देखते हुए शाही सरकार को बचाव की मुद्रा में जाना पड़ा। 
  • ईरान के समर्थक कई समूह उस इलाके में सक्रिय हैं। लेबनान स्थित हिज्बुल्ला, यमन स्थित हूती और सीरिया एवं इराक में स्थित इस्लामी गुट उनमें शामिल हैं। ईरान यह संदेश देने में कामयाब रहा है कि किसी बड़े युद्ध में ये समूह भी इजराइल के खिलाफ हमले करेंगे।

यह तो निर्विवाद है कि इस समस्या का एकमात्र समाधान फिलस्तीनियों के लिए स्वतंत्र राष्ट्र का निर्माण ही है। यहां तक कि इजराइल का संरक्षक अमेरिका भी जुबानी तौर पर इसे स्वीकार करता है। लेकिन सवाल घूम-फिर कर यहां पहुंच जाता है कि आखिर ये समाधान निकलेगा कैसे? इसलिए कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद अंतरराष्ट्रीय विवादों को हल करने के लिए बनीं संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्थाएं अब निष्प्रभावी हो चुकी हैं। अमेरिका ने अपनी चुनौती विहीन शक्ति और प्रभाव के दौर में संयुक्त राष्ट्र की भूमिका को सीमित कर दिया। तब वह तमाम विवादों के समाधान एकतरफा तौर पर थोपता था।

अब जबकि अमेरिका की शक्ति और प्रभाव में गिरावट के कारण एकध्रुवीय विश्व का दौर गुजर चुका है, तब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोई प्रभावी व्यवस्था मौजूद नहीं दिखती। लगभग तीन दशक बाद दुनिया एकध्रुवीयता से निकल कर बहुध्रुवीयता की तरफ बढ़ रही है। इसमें अमेरिका एकतरफा समाधान थोपने की हैसियत में नहीं रहा। ऐसा मुख्य रूप से चीन के एक महाशक्ति के रूप में उभरने और रूस के साथ उसके धुरी बना लेने के कारण हुआ है। इस बीच ईरान खुद भी एक ताकत के रूप में उभरा है। व्यावहारिक तौर पर वह भी चीन और रूस की धुरी का हिस्सा है। मगर यह धुरी भी अभी इतनी प्रभावी नहीं है कि जिससे अमेरिका के नेतृत्व वाली पश्चिमी धुरी को समन्वय बना कर चलने के लिए मजबूर कर सके।

अगर ऐसा होता, तो इजराइल को ओस्लो समझौते का पालन करने के लिए मजबूर किया जा सकता था। उस समझौते में फिलस्तीनियों के लिए स्वतंत्र राष्ट्र का प्रावधान है, जिसे इजराइल ने तब स्वीकार किया था। जब तक अमेरिका की पश्चिमी धुरी ताकतवर है, तब तक इस समाधान पर अमल की गुंजाइश बहुत कम है। इसलिए कि पश्चिमी देशों में यहूदीवादी (Zionist) लॉबी इतनी मजबूत है कि वह इजराइल की धुर-दक्षिणपंथी एवं कट्टर ताकतों की मंशा के विरुद्ध पश्चिमी सरकारों को कोई कदम नहीं उठाने देती है। 

फिलहाल, दुनिया में बन रहे नए शक्ति संतुलन का नतीजा यह है कि पुराने विवाद फिर उठ रहे हैं। अमेरिकी वर्चस्व के दिनों में बहुत से विकासशील देश अपनी आवाज नहीं उठा पाते थे। अब वे खुल कर ऐसा कर रहे हैं। एक समझ यह है कि फिलस्तीनी हमास ने सात अक्टूबर 2023 को जो हमले किए, वे इन्हीं नई बनी परिस्थितियों का परिणाम थे। 

पुराने विवादों के साथ आज नए विवाद भी खड़े हो रहे हैं। बातचीत से इनमें से किसी का समाधान निकालने के लिए आज की दुनिया में कोई विश्वसनीय या प्रभावशाली मध्यस्थ नहीं है। युद्ध के हालात बनने, युद्धों के लंबे समय तक जारी रहने और उनका दायरा बढ़ने का यह एक प्रमुख कारण है। यूक्रेन से लेकर फिलस्तीन और एशिया-प्रशांत क्षेत्र तक में ऐसे टकरावों के उदाहरण हमें देखने को मिल रहे हैं। 

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार और अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार हैं।)

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