Sunday, April 28, 2024

मेहनत की लूट को बढ़ाने के लिए बेचैन कॉर्पोरेट

पिछले दिनों इंफोसिस के संस्थापक एनआर नारायणमूर्ति ने भारत के श्रमिकों को एक विवादास्पद सलाह दिया। उनका कहना था कि भारत के युवा श्रमिकों को हफ्ते में 70 घंटे काम करना चाहिए। उन्होंने एक वार्ता के दौरान कहा कि ‘‘इसलिए, मेरा आग्रह है कि हमारे युवा यह जरूर कहें कि यह मेरा देश है। हमें एक हफ्ते में 70 घंटे काम करना है।’’ उन्होंने इस वार्ता में और भी बहुत कुछ कहा। उन्होंने काम के घंटे की फैलाव की जगह स्मार्टनेस के साथ काम करने का आग्रह किया जिसका अर्थ यही है कि प्रति घंट काम की उत्पादकता बढ़ाना जरूरी है।

भारत में श्रम उत्पादकता की स्थिति

भारत में श्रम उत्पादकता की दर सामान्य से कम मानी जाती रही है। श्रम उत्पादकता को नापने का सबसे आसान सा सूत्र यही है कि कुल जीडीपी को कुल काम के घंटे से भाग दे दिया जाये। कुल जीडीपी में खेती, उद्योग और सेवा तीनों ही उत्पादों के मूल्य को जोड़ दिया जाता है। आर्थिक सूत्रों में निश्चित ही यह एक कठिन प्रक्रिया है और इसमें से श्रम की उत्पादकता को निकालना भी उतनी ही जटिल प्रक्रिया है।

लेकिन, जब भारत की वित्त मंत्री, प्रधानमंत्री और भाजपा का पूरा तंत्र इस बात का दावा करने में लगा हो कि हम 5 ट्रिलियन डालर की अर्थव्यवस्था बनने की ओर हैं, तब एक कार्पोरेट नारायणमूर्ति का युवा श्रमिकों से यह आग्रह करना कि वे और काम करें और श्रम की उत्पादकता बढ़ाएं, थोड़ी खटकने वाली बात लगती है। जीडीपी विकास की दर श्रम की उत्पादकता के बिना कैसे बढ़ सकता है।

यदि हम मोदी काल के ठीक पहले के कांग्रेस के दस साल के दौर को देखें, तब विकास की दर औसतन 7-8 प्रतिशत के करीब बनी रही। इसके आकलन को लेकर कई विवाद भी रहे। मोदी काल के प्रथम चरण में इस विकास दर को तब धक्का लगा जब नोटबंदी की घोषणा हुई। इसने एकबारगी विकास की दर को 2 से 3 प्रतिशत नीचे ला दिया।

इसके बाद जीएसटी को लागू करने की हड़बड़ी ने इसे लगभग इसी स्तर पर बनाये रखा। मुद्रा के प्रचलन में हुई बाधा और कर वसूलने की प्रक्रिया ने सीधे पूंजी और वित्त की गतिविधियों को प्रभावित किया। इससे खेती, उद्यम और सेवा तीनों ही क्षेत्र प्रभावित हो रहे थे। यहां समस्या श्रम की उत्पादकता का नहीं पूंजी और वित्त की सक्रियता का था।

‘द इकानॉमिक टाइम्स’ की 9 जनवरी, 2020 की योगिमा सेठ शर्मा की रिपोर्ट को देखें, तब उस समय इंडिया रेटिंग्स एण्ड रिसर्च ने कहा था कि यदि हमें 8 प्रतिशत की विकास दर चाहिए तब श्रम की उत्पादकता में 6.3 प्रतिशत दर की जरूरत होगी। यदि इसे 7.3 प्रतिशत बढ़ा दिया जाये तो आर्थिक विकास की दर 9 प्रतिशत हो जायेगी। इस रिपोर्ट में श्रम उत्पादकता को बढ़ाने के लिए दो पक्षों पर जोर दिया था। पहला, यह जीडीपी में सीधी भागीदारी कैसे करे और खुद श्रम की उत्पादकता जिन हिस्सों में पिछड़ रही है, उसे ठीक कैसे किया जाये।

उस समय मैन्यूफैक्चरिंग में श्रम की उत्पादकता 7.2 और सेवा क्षेत्र की स्थिति इससे भी बेहतर थी। लेकिन, जिन क्षेत्रों में यह बेहद कम थी उसमें निर्माण, खेती और खदान थे जिसमें श्रम उत्पादकता क्रमशः 0.4, 3.2 और 4.8 प्रतिशत थी। यहां यह देखना भी उपयुक्त होगा कि इन क्षेत्रों में श्रमिकों का वेतन भी सबसे कम की श्रेणी में है। और, साथ ही पूंजी और श्रम अनुपातिक रिश्ता भी सबसे कम है। और, कुल श्रम भुगतान के मामले में, सभी क्षेत्रों को मिलाकर, अन्य देशों की अपेक्षा बेहद कम है।

कोविड-19 के साथ ही भारतीय अर्थव्यवस्था में एक बड़ा बदलाव आया। खासकर, वित्तीय पूंजी की पकड़ बाजार में अभूतपूर्व तरीके से बढ़ी और याराना पूंजीवाद ने भारतीय रूप ग्रहण कर लिया, जिसके शीर्ष पर अडानी समूह है। इस दौर में, श्रमिकों को न सिर्फ उनकी अस्मिता पर सवालिया निशान खड़ा कर दिया गया, उसके श्रम के मूल्य को रसातल में पहुंचा दिया गया। श्रमिकों के कानूनी अधिकारों को छीनते हुए उन्हें पूंजीपतियों के हवाले कर दिया गया।

उत्तर प्रदेश में पंजीकृत कंपनियों में एक हफ्ते में 72 घंटे तक काम कराने की छूट दी गई। अर्थात उनसे 12 घंटे प्रतिदिन काम लिया जा सकता है। ट्रेड यूनियन बनाने के अधिकार छीन लिए गये। ऐसा नहीं है कि यह काम सिर्फ उत्तर-प्रदेश में हुआ। यह देश के लगभग सभी राज्यों में किया गया।

मेहनत की लूट की दर

हम आये दिन मजदूरों के आंदोलनों की खबर पढ़ते हैं। गांव के मनरेगा मजदूरों से लेकर गुड़गांव के ऑटो सेक्टर तक हमें काम के हालात और श्रम भुगतान यानी मजदूरी को लेकर धरना, प्रदर्शन, कार्यस्थगन जैसी खबरे अखबारों और मीडिया के कोने अतरों में खबर दिख जाती है। ‘ऑस्पेक्ट ऑफ इंडियन इकानॉमी’ अंक 52 में छपे एक लेखः ‘बिहाइंड द प्रजेंट वेव ऑफ अनरेस्ट इन ऑटो सेक्टर’ का हवाला देना उयुक्त होगाः ‘‘अंसतोष भड़कने की घटना सिर्फ ऑटो सेक्टर तक सीमित नहीं है। लेकिन, यहां अधिक सघन है।

पिछले कुछ सालों में इस क्षेत्र में तेज गति से वृद्धि हुई है। 2004-05 में 85 लाख गाड़ियां (जिसमें दो पहिया, तीन पहिया, यात्री और व्यवसायिक गाड़ियां शामिल हैं) से बढ़कर 2011-12 में 2 करोड़ चार गाड़ियां का उत्पादन हो रहा था। यात्री गाड़ियों की उत्पादन संख्या 2004-5 में 12 लाख था, बढ़कर 2011-12 में 30 लाख हो गया। संभावित है कि यह और अधिक होगा। पिछले दशक में ऑटो सेक्टर में इस उछाल को ‘सफलता की कहानी’ कहा गया और सरकार ने ग्लोबल मैन्युफैक्चरिंग में भारत को इसका ‘हब’ बना देने की ओर है, इसमें राज्य की ओर सब्सिडी भी बड़े पैमाने पर दिया गया।

लेकिन, वहीं दूसरी ओर ऑटो सेक्टर में श्रमिकों को दिये गये वास्वविक भुगतान को रहस्य ही बनाकर रखा गया। यदि मुद्रास्फीति की मात्रा को वेतन से निकाल दिया जाये तो मजदूरों को वेतन 2001-2009-10 तक गिरते हुए दिखेगा। (2009-10 में वार्षिक औद्योगिक सर्वे के आंकड़ों के अनुसार) 200-01 में गाड़ी निर्माण में काम करने वाले मजदूरों की वार्षिक आय 79,446 रूपये थी, जो 2004-05 में 88,671 और 2009-10 में 109,575 रुपये हुई।’’

इस लेख के अनुसार उपरोक्त वर्षां के दौरान प्रति मजदूर का श्रम मूल्य अवदान 2.9 लाख रुपये से बढ़कर 7.9 लाख रुपये हो गया। इस श्रम अवदान के अनुपात में उनकी मजदूरी का प्रतिशत 27.4 प्रतिशत से घटकर 15.4 प्रतिशत पर आ गया। अर्थात मजदूर पूंजी के लिए और भी अधिक काम कर रहा था। यहां न सिर्फ श्रम की उत्पादकता और श्रम मूल्य का अवदान, उसके अधिक श्रम काल बढ़ने से, उत्पादकता की तीव्रता से बल्कि अपने श्रम मूल्य की घटाव से भी बढ़ता हुआ दिखता है।

गुड़गांव में मारुती सुजुकी की फैक्टरी में मजदूरों के हड़ताल और संघर्ष के पीछे की सच्चाई ऐसा ही भयावह शोषण है। जहां रोबोटिक उत्पादन प्रक्रिया में न सिर्फ मजदूरों की श्रम भुगतान में कमी रखने के लिए श्रमिकों को कई श्रेणियों में बांटा गया साथ ही लंच और टी ब्रेक के समय को कम किया गया। यहां प्रति सेकेंड के हिसाब से उत्पादन को अधिकतम संख्या तक ले जाया गया।

श्रमिकों का नाजी कैंप

फासीवाद की कई परिभाषाएं हैं। ये परिभाषाएं हमें कई सारे निष्कर्षों तक ले जाती हैं। फासीवाद को आमतौर पर एक प्रतिगामी सांस्कृतिक बदलाव के नजरियें से देखने का प्रचलन भी रहा है। आजकल इसका प्रभाव अधिक दिख रहा है। लेकिन, इसके राजनीतिक अर्थशास्त्र को न समझा जाये तब हम धर्म और संस्कृति के ऐसे उलझाव में फंस सकते हैं, जिसके निष्कर्ष निहायत भ्रमित करने वाले हो सकते हैं।

नारायण मूर्ति के बयान के बाद ओला-कैब के सह-संस्थापक का बयान भी देखने लायक हैः ‘‘यह वह समय नहीं है कि कम काम करें और अपने में मस्त रहें। यह समय कि हम हर तरह से प्रयास करें और एक पीढ़ी का निर्माण करें जैसा कि अन्य देशों के लोगों ने इसी तरह कई पीढ़ियों का निर्माण किया।’’(इंडिया टुडे, 28 अक्टूबर, 2023 को रोशनी चक्रवर्ती के लेख में उद्धृत)। यह काम में जुट जाने का आह्वान है और इसमें सभी को जुट जाना है।

नारायण मूर्ति के हिसाब से 16 घंटे का होगा कार्यदिवस

यहां यह जानना भी जरूरी है कि भारत की आईटी कंपनियां प्रति सप्ताह 5 दिन का कार्यदिवस घोषित कर रखी हैं। यदि काम के घंटे को नारायण मूर्ति के हिसाब से हफ्ते में 70 घंटे कर दिया जाये तब प्रतिदिन काम के घंटे 16 हो जायेंगे। ऐसे में संभवतः 5 से 6 घंटे की नींद ही नसीब हो। इंफोसिस में काम करने वाले श्रमिकों को शुरुआती दिनों में 3.5 लाख रुपये प्रतिवर्ष मिलता है और यह कई सालों से स्थिर बना हुआ है। इस कंपनी के संस्थापक या तो हफ्ते के कार्यदिवस को बढ़ाने के लिए कह रहे हैं या प्रतिदिन अधिक काम करने का आग्रह कर रहे हैं। लेकिन, वह श्रमिकों के वेतन बढ़ाने की बात कतई नहीं कर रहे हैं।

मुनाफा बढ़ाने के लिए एक नया माहौल बनाने की कोशिश

भारत में फैक्ट्रियों में दुर्घटना, आग लगना, निर्माण स्थलों पर मजदूरों का घायल होना और मर जाना, खदान से लेकर सड़क निर्माण तक मजदूरों की दुर्घटनाओं में हो रही मौत की खबर अखबार और मीडिया के किसी कोने में मिल ही जाती है। यह रोजमर्रा की बात हो चुकी है। कोविड-19 के दौरान मजदूरों को खुली सड़क पर मरने के लिए छोड़ देने वाले धन्नासेठ और कंपनियों के मालिक, पूंजीपति जब मजदूरों के श्रम की उत्पादकता, काम के घंटे बढ़ाने की बात कर रहे हैं, तब निश्चय ही वे अपने मुनाफा को बढ़ाने के लिए वे एक नया माहौल बनाने की वकालत कर रहे हैं।

राष्ट्रवाद की भाषा में मजदूरों के शोषण की पटकथा

वे यह काम देश, देश की जीडीपी और उत्पादकता बढ़ाकर विश्व में भारत का नाम स्थापित करने के नाम पर कर रहे हैं। जबकि, आज अधिकांश कंपनियां पूंजी की वास्तविक लागत और निवेश बढ़ाने की बजाय कूपन काटकर पैसा कमाने में लगी हुई हैं। वे भारत की सार्वजनिक उद्यमों पर कब्जा जमाते हुए मजदूरों को और अधिक काम पर लगाते हुए कम मजदूरी पर अधिक मुनाफा कमाने की रणनीति की वकालत कर रहे हैं। और, यह काम वे राष्ट्रवाद की भाषा में कर रहे हैं। निश्चित ही, श्रमिकों को इस भाषा के पीछे की वास्तविक उद्देश्यों को जरूर खोलकर सामने लाना चाहिए और अपने हकों की लड़ाई को आगे बढ़ाना चाहिए।

(अंजनी कुमार स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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