Saturday, April 27, 2024

बेरोजगारी का विकराल रूपः सरकार ने डाल दिए हथियार

तो नरेंद्र मोदी सरकार की तरफ से यह दो टूक कह दिया गया है कि बेरोजगारी जैसी समस्याओं से उलझना उसका काम नहीं है। यह एक तरह से बेरोजगारों को पैगाम है कि वे अपना देखें- सरकार के भरोसे ना रहें!

यह साफगोई एक लिहाज से ठीक है। सरकार जो सचमुच सोचती है, उसे उसने कह दिया है, तो दूसरे लोगों के लिए आज की सत्ता एवं कुल राजनीति के बारे में अपनी राय बनाना अब आसान हो सकता है।

भारत सरकार की ये सोच उसके मुख्य आर्थिक सलाहकार वी. अनंत नागेश्वरन ने जताई। उन्होंने कहा कि सरकार से बेरोजगारी की समस्या के हल की अपेक्षा करना उचित नहीं है। उन्होंने कहा- ‘यह सोचना गलत है कि सरकार के हस्तक्षेप से हर सामाजिक-आर्थिक समस्या का हल ढूंढा जा सकता है।’ (Government can’t solve all social, economic problems such as unemployment: CEA – The Hindu)

नागेश्वरन ने यह बयान उस मौके पर दिया, जब देश में रोजगार के हाल के बारे में अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) और इंस्टीट्यूट ऑफ ह्यूमन डेवलपमेंट की ताजा रिपोर्ट जारी की जा रही थी। आईएलओ संयुक्त राष्ट्र की एजेंसी है। इस लिहाज से वह अपनी रिपोर्टें आधिकारिक आंकड़ों के आधार पर ही तैयार करती है। ताजा रिपोर्ट को भी आधिकारिक आंकड़ों को लेकर तैयार किया गया है। इसलिए सरकार इसके निष्कर्षों का खंडन नहीं कर सकती।

दरअसल, आधिकारिक मौका होने के कारण ही नागेश्वरन वहां मौजूद थे। इस रिपोर्ट (India Employment Report 2024: Youth education, employment and skills (ilo.org)) सेभारत में बेरोजगारी की विकराल तस्वीर सामने आई है। खास पहलू यह सामने आया है कि ये समस्या निरंतर गंभीर होती जा रही है। देश की कथित उच्च आर्थिक वृद्धिसे अपेक्षित तो क्या, पहले जितना भी रोजगार पैदा नहीं हो रहा है।

नागेश्वरन की टिप्पणी का मतलब बहुतसाफ है। बेरोजगारी की समस्या इतना विकराल रूप ले चुकी है कि सरकार ने अब उसके सामने हथियार डाल दिए हैं। उसने मान लिया है कि इसे दूर या कम करना उसके वश में नहीं है।

मगर नागेश्वरन से लोग यह सवाल जरूर पूछेंगे कि अगर सत्ता पक्ष की यह सोच है, तो जिस सरकार के वे आर्थिक सलाहकार हैं, उसके मुखिया ने 2014 के अपने चुनाव अभियान में हर साल दो करोड़ नौकरियां देने का वादा क्यों किया था? और फिर यह भीकि सरकार की जब सामाजिक-आर्थिक समस्याओं को हल करने में कोई भूमिका ही नहीं है, तो फिर गरीबी घटाने और देश को विकसित बनानेजैसे दावे कर सरकार अपनी कथित कामयाबियों का ढिंढोरा क्यों पीटती है?

नागेश्वरन के बयान का मतलब है कि समाज और अर्थव्यवस्था में जो होता है, वह स्वचालित प्रक्रिया का हिस्सा है। इसमें कुछ लोग विजयी होते हैं और कुछ पिछड़ जाते हैं। यह एक स्वाभाविक परिघटना है। इसमें सरकार कुछ नहीं कर सकती। बेरोजगार वे लोग हैं, जो पिछड़ गए हैं। या इसे इस रूप में भी कहा जा सकता है कि वे रोजगार पाने के लिहाज से अयोग्य हैं।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जब से राष्ट्रीय स्तर पर उदय हुआ है, वे अनेक बार कह चुके हैं कि सरकार की अर्थव्यवस्था में कोई भूमिका नहीं होनी चाहिए। इसी सोच के तहत सत्ता में आते ही उन्होंने योजना आयोग को भंग कर दिया था। और इसी नजरिए के तहत उन्होंने नागेश्वरन जैसे बिजनेस मैनेजमेंट की पढ़ाई करने वाले विशेषज्ञों को अपना प्रमुख आर्थिक सलाहकार बनाया है।

बिजनेस मैनेजमेंट की शिक्षा देने वाले संस्थानों में लोकतांत्रिक जवाबदेही का सिद्धांत नहीं पढ़ाया जाता। संभवतः इसलिए कि वहां पढ़ने गए लोग कंपनियों का मुनाफा कैसे अधिक से अधिक बढ़ाया जाए, उसका कौशल सीखने जाते हैं। इसी योग्यता के आधार पर उन्हें आकर्षक नौकरी मिलती है। जब वे सरकार के सलाहकार बनते हैं, तो कंपनी प्रबंधन के ढंग से ही देश चलाने की रूपरेखा तैयार करते हैं। लाजिमी है कि इसमें किसी सामाजिक उत्तरदायित्व की बात शामिल नहीं होती।

इसीलिए देश की जो आर्थिक दिशा तय की गई है, उसमें ना तो बेरोजगारी का बढ़ना आश्चर्यजनक है, और ना ही नागेश्वरन की टिप्पणी। मगर वे ऐसे बयान देकर बच कर निकल नहीं सकते। बिजनेस मैनेजमेंट के शिक्षा संस्थानों में भले पढ़ाई के केंद्र में मुनाफा बढ़ाने के तरीके रहते हों, लेकिन लोकतांत्रिक राजनीति ऐसे सिद्धांतों से नहीं चल सकती। लोकतंत्र में सत्ता लोगों के वोट से मिलती है। इसीलिए वोट पाने के लिए नेताओं को जन-कल्याण के प्रति अपने को वचनबद्ध करना पड़ता है। इसीलिए नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार को आर्थिक मोर्चों पर अपने को सफल दिखाने के लिए बार-बार आंकड़े जुटाने या गढ़ने पड़ते हैं। बहरहाल, अब नागेश्वरन ने ऐसे सारे प्रयासों की पोल खोल दी है। उन्होंने जो कहा है, उसका मतलब है कि सरकार की तरफ से गरीबी, बेरोजगारी, विकास आदि जैसे मुद्दों पर जो कहा जाता है, वह सिरे से असत्य है।

फिलहाल, हम आईएलओ और आईएचडी की रिपोर्ट की तरफ लौटते हैं। इस रिपोर्ट ने साल 2000 से 2022 तक के रोजगार ट्रेंड की कहानी हमारे सामने रखी है। ये वह काल है, जिसमें सत्ता की कमान भाजपा नेतृत्व वाली सरकारों के पास 12 साल और कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकार के पास 10 साल रही है। इस रूप में ये कहानी दलगत दायरों से उठकर नीतिगत दायरों में पहुंच जाती है। यानी बेरोजगारी का आज जो हाल है, उसके लिए किसी सरकार विशेष को पूर्णतः जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। बल्कि दोषी वे आर्थिक नीतियां हैं, जिन पर वैसे तो पिछले साढ़े तीन दशक से, लेकिन अगर रिपोर्ट के विचार-काल की ही बात करें, तो सवा दो दशक से- देश को ले जाया गया है। इन आर्थिक नीतियों पर संसदीय राजनीति में लगभग पूरी आम सहमति रही है।

इन नीतियों का एक परिणाम रोजगार-विहीन आर्थिक विकास- Jobless Growth का रुझान है। इस रिपोर्ट ने पुष्टि की है, जॉबलेस ग्रोथ की धारणा तथ्यों पर आधारित है। (Jobless growth a reality, employment trails GVA by wide margin – Jobs and Career News | The Financial Express)

रिपोर्ट में बताया गया हैः

  • 2012 से 2019 तक भारतीय अर्थव्यवस्था में सकल मूल्य वर्धन (gross value added- GVA)का वार्षिक औसत 6.7 प्रतिशत रहा। (मोटे तौर पर GVA का अर्थ होता हैः कुल जीडीपी वृद्धि+टैक्स-सब्सिडी)
  • जबकि इस दौरान रोजगार में महज 0.01 प्रतिशत की औसत वृद्धि हुई। जाहिर है, इसे नगण्य ही माना जाएगा।
  • दरअसल, इस दृष्टि से हालात बिगड़ते ही चले गए हैं। मसलन, 2000 से 2012 तक GVA में औसत वृद्धि 6.2 प्रतिशत रही थी।
  • जबकि इस दौर में रोजगार में औसत वृद्धि 1.6 प्रतिशत थी।
  • इस दौरान युवा बेरोजगारी में तीन गुना बढ़ोतरी हुई है। साल 2000 में युवा बेरोजगारी की दर 5.7 प्रतिशत थी, जो 2019 में 17.5 प्रतिशत हो गई।

इस रिपोर्ट में श्रम भागीदारी दर (labour participation rate) का पैमाना वही रखा गया है, जो मोदी सरकार ने तय किया हुआ है। और इस पैमाने पर विभिन्न वर्गों की श्रम भागीदारी दर 2022 में 2000 की तुलना में कम थी। 2000 में पुरुष श्रम भागीदारी दर लगभग 80 फीसदी थी, जो 2022 में 76 प्रतिशत के करीब आ गई। महिलाओं में यह आंकड़ा लगभग 35 से घटकर 30 प्रतिशत के नीचे आ गया।

  • रिपोर्ट में यह अत्यंत चिंताजनक आंकड़ा बताया गया है कि भारत में बेरोजगार लोगों के बीच नौजवानों का हिस्सा 83 प्रतिशत है।
  • माध्यमिक और उच्चतर शिक्षा प्राप्त नौजवानों में बेरोजगारी दर 2000 में 35.2 प्रतिशत थी, जो आज 65.7 प्रतिशत तक पहुंच चुकी है।
  • बीते दो दशकों में कुछ विरोधाभासी संकेत देखे गए हैँ। कुछ अवधियां ऐसी रहीं, जब गैर-कृषि रोजगार पहले की तुलना मे अधिक तीव्र गति से बढ़ा। लेकिन दीर्घकालिक रुझान गैर-कृषि रोजगार में अपर्याप्त वृद्धि का रहा है।
  • रिपोर्ट में इस तरफ ध्यान खींचा गया है कि देश में आज भी लगभग 90 प्रतिशत कर्मी अनौपचारिक क्षेत्र में काम कर रहे हैं। औपचारिक रोजगार में 2000 के बाद वृद्धि शुरू हुई थी, लेकिन 2018 के बाद इसमे गिरावट आ गई।
  • रिपोर्ट में बताया गया है कि शिक्षा के स्तर के साथ-साथ युवाओं में बेरोजगारी दर बढ़ती गई है। यानी जो जितना अधिक शिक्षित है, उसके उतना अधिक बेरोजगार रहने की स्थिति पैदा हो गई है। आज बेरोजगारी की दर सबसे ज्यादा ग्रैजुएट डिग्री धारी लोगों में है।

  • 2022 में माध्यमिक या उच्चतर स्तर की डिग्री रखने वाले लोगों में बेरोजगारी दर आम नौजवानों की तुलना में छह गुना अधिक थी। ये दर 18.4 प्रतिशत थी। ग्रैजुएट नौजवानों में यह दर नौ गुना अधिक यानी 29.1 प्रतिशत थी।

  • इस रिपोर्ट के मुताबिक पढ़ने-लिखने में अक्षम नौजवानों में 2022 में बेरोजगारी दर 3.4 प्रतिशत थी। इसी स्तर से शिक्षित नौजवानों में बेरोजगारी दर की तुलना रिपोर्ट में की गई है।

रिपोर्ट से भारतीय अर्थव्यवस्था के बारे में एक अन्य चिंताजनक तस्वीर यह उभरी है कि खेतिहर मजदूरों के गैर कृषि क्षेत्र में काम पाने की रफ्तार बेहद धीमी है। कृषि क्षेत्र से जिन मजदूरों का संक्रमण हुआ है, वे अधिकाशतः कंस्ट्रक्शन या सेवा क्षेत्र में गए हैं। कुल अर्थव्यवस्था में कारखाना क्षेत्र (मैनुफैक्चरिंग) का हिस्सा महज 12 से 14 प्रतिशत बना हुआ है। इस क्षेत्र में अतिरिक्त रोजगार के अवसर नहीं बन पा रहे हैं। जबकि नियमित रोजगार की सबसे अधिक संभावना इसी क्षेत्र में होती है।

एक अन्य अत्यंत चिंताजनक मुद्दा न्यूनतम वेतन का है। रिपोर्ट के मुताबिक अखिल भारतीय स्तर पर 40.8 प्रतिशत नियमित कर्मियों और 51.9 प्रतिशत अस्थायी कर्मियों का दैनिक वेतन वैधानिक न्यूनतम मजदूरी से नीचे बना हुआ है। कंस्ट्रक्शन सेक्टर में 39.3 प्रतिशत नियमित कर्मिर्यों और 69.5 प्रतिशत अस्थायी कर्मियों को वैधानिक न्यूनतम मजदूरी से कम पर का करना पड़ता है।

इस हकीकत का नतीजा यह है कि देश में आजीविका असुरक्षा व्यापक रूप से फैली हुई है। चंद श्रमिक ही ऐसे हैं, जिन्हें सामाजिक सुरक्षाएं हासिल हैं। ऐसे में demographic dividend यानी बड़ी आबादी का लाभ देश को मिलने की तमाम कहानियां बेबुनियाद दिखने लगती हैं। जिस देश में लोग इतने बदहाल हों, वहां बाजार में विस्तार या वास्तविक अर्थव्यवस्था के खुशहाल होने की बातें भी खोखली ही होंगी।

और अब तो इन हालात की जिम्मेदारी से सरकार ने अपना पल्ला भी झाड़ लिया है। तो यह अब आम जन को तय करना है कि वे इस गंभीर मसले के हल की शुरुआत कैसे और कहां से करें! साथ ही वे इसके लिए किसे उत्तरदायी मानें!

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं।)

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