पूरे देश में लोकसभा चुनाव 2024 को लेकर सभी पार्टियां अपने अपने तरीके से विकास के नए-नए मॉडल पेश कर मतदाताओं को अपने पक्ष में मतदान करवाने की हर संभव कोशिश में लगी हैं।
अफसोस तो इस बात का है कि आजादी के 76 वर्ष बीत जाने के बाद भी जनता को अपने-अपने विकास मॉडल से लुभाने की कोशिश हो रही है। हम ये करेंगे, वो करेंगे आदि के वादे किए जा रहे हैं। तब यह साफ हो जाता कि आजादी के 76 वर्ष बाद भी देश और देश की जनता वहीं की वहीं है।
आदमी की मूलभूत आवश्यकता है शुद्ध जल, भर पेट भोजन, स्वास्थ्य, शिक्षा, आवास और रोजगार। आजादी के 76 वर्ष बाद भी अब तक कितनी सरकारें आईं और गईं लेकिन इन आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए जो गंभीरता होनी चाहिए थी वह आजतक नहीं दिखी है। केवल सत्ता हासिल करने के लिए तरह-तरह के तिकड़म किए गए। जनता को आश्वासनों के जाल फंसाया जाता रहा। इतना जरूर हुआ कि जनता की इन तमाम जरूरतों के नाम पर कई योजनाएं लाई गईं, जो भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ती चली गईं और जनता उन योजनाओं का लाभ पाने के लिए लगातार उलझी रहती है, कुछ पाने की आशा में विरोध भी नहीं कर पाती है।
स्थिति यह है कि आज भी लोग खाली पड़ी सरकारी जमीन हो, सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योग की खाली जमीन हो, सड़क किनारे की जमीन हो या रेलवे लाइन के किनारे की जमीन हो, पर अपना बसेरा बनाने को मजबूर हैं और आए दिन अतिक्रमण हटाओ के सरकारी फरमान का शिकार भी होते रहते हैं।

1985 में भारत के प्रधानमंत्री राजीव गांधी द्वारा ग्रामीण विकास मंत्रालय के प्रमुख कार्यक्रमों में से एक इंदिरा आवास योजना शुरू की गई थी। जिसके तहत गांवों में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों को घर देना था, लेकिन इस योजना का सबसे दुखद पहलू यह रहा कि जिनके पास अपनी जमीन होती थी, उन्हें ही इसका लाभ मिलता था। कुछ दिनों बाद यह योजना भी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गयी। 20 हजार रूपए की इस योजना में मात्र 18 हजार रुपए ही लाभार्थी को मिलते थे। प्रखंड कार्यालय द्वारा प्रथम भुगतान के समय ही 2,000 रूपए काटकर भुगतान किया जाता था। इतना ही नहीं, पक्के मकान के मालिकों का नाम गरीबी रेखा से नीचे दर्ज कर उन्हें इंदिरा आवास दिया जाने लगा, जिसका उपयोग वे जानवरों के रहने के लिए करते थे।
मोदी सरकार के आने के बाद 25 जून 2015 को प्रधानमंत्री आवास योजना लाई गई। इस योजना के तहत शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों के लिए उन गरीब लोगों के लिए घर बनाना है जिनके पास अपना घर नहीं है। लेकिन इसका लाभ भी उन्हें ही मिलता है जिनके पास अपनी जमीन है।
जबकि केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय की ओर से की गई सामाजिक आर्थिक एवं जाति आधारित जनगणना -2011 में ग्रामीण भारत की विकट तस्वीर दिखी है। रिपोर्ट के मुताबिक गांवों में हर तीसरा परिवार भूमिहीन है और आजीविका के लिए वह मजदूरी पर ही आश्रित है।
बेघर लोगों के लिए लाई गई योजना इन्दिरा आवास योजना और प्रधानमंत्री आवास योजना के बावजूद आज भी देश में 41.3 फीसदी लोगों के पास अपना मकान नहीं है।
अगर भूमिहीनों और बेघर लोगों का आंकड़ा देखा जाए तो जहां हर तीसरा परिवार भूमिहीन है वहीं हर तीसरा परिवार बेघर भी है।
मतलब साफ है कि आजादी के बाद आजतक विकास की योजनाएं केवल लाॅलीपाॅप साबित होती रही हैं।

शिक्षा की बात करें तो 17 जनवरी, 2024 को शिक्षा की वार्षिक स्थिति रिपोर्ट ASER (Annual Status of Education Report)-2023 जारी की गई। जिसमें भारत में युवाओं के बीच बुनियादी साक्षरता और संख्यात्मकता के स्तर का विश्लेषण किया गया।
असर 2023 ‘बियॉन्ड बेसिक्स’ सर्वेक्षण 26 राज्यों के 28 जिलों में आयोजित किया गया था, जिसमें 14-18 वर्ष के आयु वर्ग के कुल 34,745 युवा शामिल हुए।
सर्वेक्षण में जो बातें सामने आईं उसके अनुसार 14-18 आयु वर्ग के लगभग 43% बच्चे अंग्रेजी में वाक्य नहीं पढ़ सके।
14-18 वर्ष आयु वर्ग के लगभग एक चौथाई किशोर अपनी क्षेत्रीय भाषाओं में दूसरी कक्षा के स्तर का पाठ धाराप्रवाह नहीं पढ़ सके।
2017 में 14-18 वर्ष के 76.6% बच्चे ग्रेड 2-स्तरीय पाठ पढ़ सकते थे, जबकि 2023 में यह संख्या कम होकर 73.6 प्रतिशत हो गई।
ग्रामीण क्षेत्रों में 50 प्रतिशत से अधिक युवा गणित के सामान्य सवाल हल करने में पीछे हैं।
यह भी सामने आया कि 14 वर्ष के 3.9 प्रतिशत और 18 वर्ष के 32.6 प्रतिशत युवाओं का किसी शैक्षणिक संस्थान में दाखिला नहीं है और वे पढ़ाई नहीं कर रहे हैं।
भर पेट भोजन की बात करें तो 2023 का ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत का स्कोर 28.7 फीसदी है जो भूख और भुखमरी की बेहद गंभीर स्थिति को दर्शाता है।
बताने की जरूरत नहीं है कि 125 देशों की ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत 111वें स्थान पर आ गया है। वहीं बाल दुर्बलता दर में भारत 18.7 फीसदी यानी सबसे ज्यादा बाल कुपोषित की स्थिति में है।
भूख से होती रही मौतों में पांच से 13 मिनट में एक आदमी बिना खाने के मर जाता है। भारत में हर साल 7 हजार से 19 हजार लोग भूख से मर जा रहे हैं।
इंडिया फूड बैंकिंग की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 189.2 मिलियन लोग यानी 1,89,20,00,000 लोग कुपोषित हैं।
वहीं सर्वेक्षण बताता है कि लगभग 71 फीसदी लोगों के भोजन में पौष्टिकता की भी कमी देखी गई है और 45 फीसदी लोगों को अपने खाने के इंतजाम के लिए कर्ज तक लेना पड़ता है।
बेरोजगारी की भयावह स्थिति का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जुलाई 2021 में कोलकाता के एक सरकारी अस्पताल में शवों की देखभाल के लिए सहायक (डोम) के छह पदों के लिए आठ हजार आवेदन आए थे। सबसे हैरान करने वाली बात यह थी कि आवेदन करने वालों में इंजीनियर, पोस्ट ग्रेजुएट और ग्रेजुएट उम्मीदवार भी थे। जबकि पद के लिए न्यूनतम योग्यता 8वीं तक थी। उक्त पद के लिए मासिक वेतन 15 हजार रुपए तय थे। आवेदकों में 100 इंजीनियर, 500 पोस्ट ग्रेजुएट और 2,200 ग्रेजुएट आवेदक शामिल थे। इनमें 84 महिलाएं भी थीं।
इंटरनेशनल लेबर ऑर्गनाइजेशन (आईएलओ) और मानव विकास संस्थान (आईएचडी) द्वारा संयुक्त रूप से प्रकाशित भारत रोजगार रिपोर्ट 2024 के मुताबिक भारत के बेरोजगार कार्यबल में लगभग 83% युवा हैं और कुल बेरोजगार युवाओं में माध्यमिक या उच्च शिक्षा प्राप्त युवाओं की हिस्सेदारी 2000 में 35.2% से लगभग दोगुनी होकर 2022 में 65.7% हो गई है।
वहीं अप्रैल 2022 में सीएमआईई (सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी) की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 90 करोड़ लोग रोजगार के योग्य हैं। इनमें 45 करोड़ से ज्यादा लोगों ने अब काम की तलाश भी छोड़ दी है।
सोसाइटी जनरल जीएससी (बेंगलुरू) के अर्थशास्त्री कुणाल कुंडू का कहना है कि रोजगार की अभी जो स्थिति बनी हुई है, वह भारत में आर्थिक असमानताएं को और बढ़ाएगी। इसे ‘K’ शेप ग्रोथ कहते हैं। इससे अमीरों की आय बहुत तेजी से बढ़ती है, जबकि गरीबों की नहीं बढ़ती। भारत में कई तरह के सामाजिक और पारिवारिक कारणों से भी महिलाओं को रोजगार के बहुत कम मौके मिल रहे हैं। आबादी में 49% हिस्सेदारी रखने वाली महिलाओं की अर्थव्यवस्था में हिस्सेदारी सिर्फ 18% है, जो कि वैश्विक औसत से लगभग आधी है
स्वास्थ्य सुविधाओं की बात करें तो देश के ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सुविधाओं की स्थिति काफी भयावह है

ग्रामीण स्वास्थ्य सांख्यिकी रिपोर्ट बताती है कि अस्पतालों व स्वास्थ्य केंद्रों में 31 सौ मरीजों पर मात्र एक बिस्तर है। ऐसे में समूचा भारत स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली की मार झेल रहा है और इसकी वजह से ग्रामीण क्षेत्रों में आम लोग या तो झोलाछाप डाक्टरों से इलाज कराने को विवश हैं या फिर झाड़फूंक से बीमारियों से मुक्ति पाने के प्रयास में काल के गाल में समा जाते हैं। क्योंकि स्वास्थ्य की जो भी सरकारी व्यवस्था है वह भी इसलिए फेल है कि सरकार की ओर से ग्रामीण क्षेत्रों में डाक्टरों की तैनाती होने के बावजूद वे गांवों में नहीं जाते, शहरों में बनाए अपने निजी क्लिनिक में प्रैक्टिस करते हैं।
वहीं दूसरी ओर एक रिपोर्ट बताती है कि देश के ग्रामीण क्षेत्रों में सर्जन चिकित्सकों की लगभग 83 प्रतिशत, बालरोग चिकित्सकों की 81.6 प्रतिशत और जेनरल फिजिशियन की 79.1 प्रतिशत कमी है। वहीं 72.2 प्रतिशत की कमी प्रसूति एवं स्त्री रोग विशेषज्ञों की है।
लोकसभा चुनाव 2024 को लेकर देश कई तरह की चर्चाओं का केंद्र बना हुआ है। मोदी अपनी सरकार के कार्यकाल के दस साल की उपलब्धियों का झुनझुना बजाते हुए राममंदिर बनाने को लेकर चीख-चीख कर बता रहे हैं कि कैसे “500 साल से हमारी कितनी ही पीढियां संघर्ष करती रही, इंतजार करती रही, लाखों लोग शहीद हुए, 500 साल लंबा संघर्ष चला। शायद इतिहास में इतना लंबा संघर्ष कहीं नहीं हुआ, जो अयोध्या में हुआ। 500 साल में जो काम नहीं हुआ, वो कार्य पूरा हुआ और आज अयोध्या में राम मंदिर बन गया।”
वे और उनके चेले-चपाटे मुसलमानों से खतरों और नुकसान की गणित बता रहे हैं। लेकिन यह नहीं बता रहे हैं कि सबके खाते में 15-15 लाख रुपए और हर साल 2 करोड़ नौकरियों का क्या हुआ।
वहीं विपक्ष मोदी सरकार के 10 साल की विफलताओं, अडानी – अंबानी प्रेम, हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य फैलाने, संविधान को खत्म करने के खतरे पर चिंता व्यक्त कर रहा है।
आदमी की मूलभूत आवश्यकता और आर्थिक-सामाजिक असमानता पर नहीं के बराबर बातें हो रहीं हैं। जो लोग इसपर बात कर रहे हैं वे किसी न किसी कारण से इतने हाशिए पर हैं कि उनकी कोई सुनने वाला नहीं है।
वहीं इस चुनाव में भी कुछ बानगी को देखें तो आम जनता अपनी मूलभूत आवश्यकताओं को पाने के लिए किसी फरिश्ते के इंतजार में है। लोगों में वोट देने को लेकर काफी निराशाजनक स्थिति है। वहीं भाजपाई और उसका सरकारी तंत्र लोगों को वोट न देने को लेकर अलग तरह का भय दिखा रहे हैं।
झारखंड के धनबाद जिला का सिंदरी-धनबाद नगर निगम के वार्ड संख्या 55 के गुरुद्वारा के समीप गुलगुलिया बस्ती है, बस्ती की रहने वाली संतोषी देवी कहती है – बस्ती में न तो पीने का पानी है और न ही बिजली की कोई सुविधा है। केवल शौचालय बने हैं लेकिन उसका उपयोग इसलिए नहीं होता है कि वह बनने के बाद ही खस्ताहाल स्थिति में है। सबको भय बना रहता है कि पता नहीं कब गिर पड़ेगा।
संतोषी देवी बताती है कि चुनाव के दिन वोट देने के लिए हमलोग सुबह से ही बस्ती खाली करके चले जाते हैं। लेकिन जीतने के बाद कोई भी नेता हमें कभी देखने नहीं आता है। हमलोग गरीब हैं, हमलोग वोट करने इस डर से जाते हैं कि राशन कार्ड कहीं बंद न हो जाए।
यह पूछे जाने पर कि कौन बताया कि वोट नहीं देने से राशन कार्ड बंद हो जाएगा?
संतोषी कहती है – नेता के आदमी लोग और सरकारी बाबू लोग।
वह बताती है कि बस्ती के लड़कों को रोजगार नहीं मिलने के कारण वे कूड़ा-कचरा चुन-बीनकर परिवार का गुजारा करते हैं। पीने का पानी के लिए बस्ती में न तो चपाकल है, न ही बिजली और न ही पक्का मकान। बस्ती के कुछ लोगों के पास ही राशनकार्ड है। जबकि हर किसी के पास वोटर कार्ड जरूर है।
बस्ती की ही गीता बाउरी कहती है यहां के परिवार झुग्गी झोपड़ी बनाकर रहने को मजबूर हैं। शहर में इधर उधर पड़े प्लास्टिक व प्लास्टिक बोतल चुनकर और कबाड़ वाले को बेचकर अपना जीवन यापन करते हैं।
बस्ती की एक अन्य महिला तुलसी देवी कहती हैं कि हमें ना तो घर मिला और ना ही बिजली, न पानी की सुविधा। नेता लोग चुनाव के समय आते हैं और बड़े बड़े वादे कर चले जाते हैं। और हम गांव वाले इसी आस में अब हमारा जीवन सुधरेगा, वर्षों गुजार देते हैं।
वहीं एक युवा विशाल कुमार बताता है – हमें रोजगार की कोई व्यवस्था नहीं है, हमलोग कचरा बीनकर जीवन जीने को मजबूर हैं। वह बताता है – पता नहीं कितनी सरकार आती है, जाती है लेकिन कोई भी हमलोगों की समस्या को नहीं देखता।
कहना ना होगा कि इन तमाम जन समस्याओं आर्थिक-सामाजिक असमानताओं की जड़ में निजी स्वामित्व है। यह सत्य है कि जबतक निजी स्वामित्व का उन्मूलन नहीं होगा तकतक हम इन जन समस्याओं और असमानताओं से निजात नहीं पा सकते।
(विशद कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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