Sunday, April 28, 2024

किसान-मजदूर संयुक्त सम्मेलन का घोषणापत्र संविधान, लोकतंत्र और देश की साझी एकता को सुनिश्चित करेगा

24 अगस्त को राजधानी दिल्ली के तालकटोरा इंडोर स्टेडियम में आयोजित “किसान-मजदूर संयुक्त सम्मेलन” भारतीय लोकतंत्र की यात्रा के फासीवादी मंजिल में ऐतिहासिक कदम है। यह एकता सम्मेलन इस तथ्य को रेखांकित करता है कि पिछले 9 वर्षों से मोदी रिजीम की कॉर्पोरेट परस्त नीतियों ने भारत के सभी तबकों की जिंदगी पर बुरा असर डाला है। आम लोगों का जीवन इतना कठिन होता गया है कि उनके लिए वर्तमान दौर में सरवाइव करना मुश्किल है।

इसके संकेत हम किसानों, मजदूरों, छोटे मझोले व्यापारियों, छात्रों आदि में बढ़ती आत्महत्या की प्रवृत्ति, रोजगार हीनता, छोटे उद्योगों की बंदी, गांवों से श्रम शक्ति का पलायन, उद्योगों में छंटनी और महंगी होती शिक्षा-स्वास्थ्य व्यवस्था की आ रही रिपोर्ट में देख सकते हैं। इन नीतियों का सीधा असर किसानों, मजदूरों, छात्रों, आदिवासियों, दलितों और राजकीय संस्थानों में कार्यरत श्रमिकों पर पड़ रहा है।

स्वाभाविक है कि संकट में फंसी भारत की 90% आबादी इन नीतियों के हमले से छटपटा रही है और वह इसके खिलाफ विभिन्न तरह के संघर्षों में उतर रही है।

अभी तक लोगों में अकेले लड़ने की प्रवृत्ति प्रधान थी। अलग-अलग संस्थानों में कार्यरत अलग-अलग पेशे में लगे नागरिक मोदी सरकार की नीतियों के खिलाफ पिछले 9 वर्षों से संघर्षरत हैं। अकेले लड़ते हुए भारत के लगभग सभी तबकों ने यह महसूस किया कि फासीवादी नीतियों का जिस स्तर का हमला है। उसका अकेले-अकेले मुकाबला नहीं किया जा सकता। क्योकि विभिन्न तबकों के विरोध के बावजूद निजीकरण का रथ जनता के सीने पर तेजी से दौड़ते हुए आगे बढ़ता जा रहा है।

संयुक्त प्रतिरोध की चेतना का विकास

पहले चरण में एक पेशे में कार्यरत तबकों में आपसी एकता की समझ बनी। यानी पेशागत विभिन्न विचारों के संगठनों के संयुक्त मंच बने और समन्वय की प्रक्रिया ने गति पकड़ी। इस संदर्भ में ताज़ा उदाहरण के बतौर हम उत्तर प्रदेश में “बिजली कर्मचारियों के संयुक्त संघर्ष” को देख सकते हैं।

पहले चरण में मोदी सरकार ने ज्ञान के केंद्रों पर हमला शुरू किया। छात्रों और शिक्षण संस्थानों पर हमले के खिलाफ 2016 में  संयुक्त छात्र प्रतिरोध की शुरुआत हुई। जिसके समर्थन में युवा भी आगे आये। रोहित वेमुला की संस्थानिक हत्या के बाद वामपंथी छात्र संगठनों और दलित-आदिवासी छात्रों में एकता की शुरुआत हुई। जब हमले की जद में जेएनयू, जामिया, अलीगढ़, हैदराबाद आदि विश्वविद्यालय और आईआईटी मद्रास आए तो इलाहाबाद, बीएचयू, जादवपुर जैसे विश्वविद्यालय के साथ और शिक्षक भी समर्थन में उत्तर पड़े। यह प्रथम चरण की संयुक्त एकता के संकेत थे।

हालांकि नव उदारवादी नीतियों के दुष्प्रभाव के कारण ट्रेड यूनियनों व सरकारी संस्थानों के एसोसिएशनों का कोआर्डिनेशन पहले से बना हुआ है। जिसके आह्वान पर कई बार सफल राष्ट्रीय बंद और हड़तालें हुई थीं। इन हड़तालों के समर्थन में छात्र, युवा, किसान व असंगठित मजदूर भी सड़कों पर उतरे थे।

इसके अलावा पर्यावरण तथा जल, जंगल, जमीन और जीविका की सुरक्षा के लिए काम करने वाले सामाजिक संगठनों (गैर राजनीतिक मंचों, एनजीओ और गांधी-जेपी के विचारों की संस्थाओं) पर आर्थिक और प्रशासनिक दमन होते ही राष्ट्रीय स्तर पर जन आंदोलन की समन्वय समिति (एनएपीएम) भी बनी।

मोदी सरकार आने के बाद संघ के संरक्षण में हिंदुत्व के लंपट गिरोहों के हमलों में निर्दोष अल्पसंख्यकों की हत्याएं शुरू हुईं। नोएडा में योजनाबद्ध तरीके से गोमांस रखने के नाम अखलाक और कन्नड़ विद्वान एमएम कलवर्गी की हत्या के बाद पूरे देश में लेखकों, पत्रकारों, साहित्यकारों, नागरिक अधिकार संगठनों ने सड़कों पर उतर कर संयुक्त संघर्ष को नई ऊंचाई पर पहुंचाया। जिसका चरम था लेखकों, साहित्यकारों, कवियों, कलाकारों, वैज्ञानिकों का पुरस्कार वापसी अभियान।

मोदी सरकार का पहला कार्यकाल

मोदी सरकार का पहला कार्यकाल योजनाबद्ध तरीके से संस्थानों पर कब्जा करने, राज्य और संघ द्वारा संरक्षित लंपट गिरोहों के आतंक का विस्तार करने और नफरती एजेंडे को वैधता दिलाने के लिए हर संभव सत्ता प्रायोजित अभियान चलाने में बीता। साथ ही लोकतांत्रिक संस्थाओं के कार्य विभाजन को कमजोर करते हुए एग्जीक्यूटिव की शक्ति को मजबूत कर राज्य पर अपनी पकड़ को पक्का किया। जिससे विरोधियों और असहमति के विचारों पर दमन को संस्थाबद्ध किया जा सके।

इसके साथ ही मीडिया और सूचना के स्रोतों पर सरकार के नियंत्रण को सुदृढ़ किया गया। जिससे असहमति के विचारों और जनता के आंदोलन, दुख दर्द की खबरों पर नियंत्रण किया जा सके।

कांग्रेस के इतिहास के सर्वकालिक दौर में सबसे कमजोर स्थिति में पहुंचने, विपक्ष की लोकतांत्रिक प्रतिबद्धता के कमजोर होने और फासीवाद के खतरे को नजरअंदाज करने के कारण मोदी सरकार को कोई बड़ी चुनौती नहीं दी जा सकी। इसलिए सरकार अपने विभाजनकारी एजेंडे को शिक्षण संस्थानों से लेकर पारंपरिक धार्मिक त्योहारों, सामाजिक क्रियाकलापों और नागरिक जीवन के सभी क्षेत्रों में विस्तारित करने में सफल रही। अस्मिता आधारित राजनीति की आंतरिक कमजोरी का लाभ उठाते हुए भाजपा ने इन पार्टियों के साथ गठबंधन बना लिया।

खैर मोदी का पहला कार्यकल कॉर्पोरेट नियंत्रण को बढ़ाने, सरकारी उपक्रमों को बेचने, लोकतांत्रिक संस्थाओं को अंदर से कमजोर करने तथा सड़क पर संघ परिवार के लंपट गिरोहों के आतंक को ठोस कर विपक्ष और अल्पसंख्यकों पर हमले करने के लिए याद किया जाएगा। पहले कार्यकाल के पूरा होते-होते क्रोनी कैपिटलिज्म (मित्र पूंजीवाद) की परिघटना आम जन में दिखाई देने लगी थी। सीधे कहा जाए तो हिंदुत्व-कॉर्पोरेट गठजोड़ का फासीवादी ढांचा 5 वर्षों में ठोस आकार ले चुका था।

मोदी का दूसरा कार्यकाल

मोदी के दूसरे कार्यकाल की शुरुआत ही संघ की विभाजनकारी नीतियों को आक्रामक ढंग से लागू करने के साथ हुई। सबसे पहले कश्मीर को बांटा गया। नागरिकता कानून (सीएए-एनआरसी) आया। पहले कार्यकाल में किए गए वादों को हवा में उड़ते हुए मोदी सरकार अपने मूल चरित्र के अनुकूल लोकतांत्रिक संस्थाओं पर हमलावर हो गई। साथ ही मित्र पूंजीपतियों को राजस्व जुटाने के नाम पर सरकारी संस्थाओं को बेचने की गति तेज हो गई।

पहली जन गोलबंदी

एनआरसी के खिलाफ मुस्लिम महिलाओं का सड़क पर उतरना और शाहीन बाग की परिघटना का उदय भारत के जन आंदोलन के इतिहास का सर्वथा नवीन संस्करण था। जिन महिलाओं को केंद्र कर मोदी सरकार मुस्लिम समाज का दानवीकरण कर रही थी। उन्हीं महिलाओं ने “शाहीन बाग” नाम से आंदोलन का नया सिंबल गढ़ दिया और आंदोलनों के इतिहास के शब्दकोश में नया शब्द जुड़ गया। इन अर्थों में आंदोलन सिर्फ कुछ मांगों तक ही सीमित नहीं होते। वे नई भाषा-संस्कृति और सामाजिक संबंधों की नई इबारत भी गढ़ते हैं।

पूरे देश में शाहीनबाग लोकतंत्र के संघर्ष का नए प्रतीक बन गया। जिसके समर्थन में नागरिक अधिकार संगठनों से लेकर कॉलेजों-विश्वविद्यालयों के छात्र, शिक्षक, सामाजिक जीवन के सभी क्षेत्रों के नागरिक मैदान में उतर आए। उन्हें दमन झेलना पड़ा। जेल गए। उनके ऊपर रासुका से लेकर राष्ट्रद्रोह तक के मुकदमे कायम हुए। लेकिन आम मुस्लिम महिलाओं के साथ छात्र-छात्राएं पीछे नहीं हटीं। यहां से साझा संघर्षों की नींव पड़ी। शाहीन बाग अजेय हो गया।

इस आंदोलन को खत्म करने के लिए भाजपा और संघ ने पुलिस और लंपट तत्वों को आगे करते हुए दिल्ली को दंगों में झोंक दिया। महामारी के बाद में सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ आंदोलन में शामिल लड़कियों, छात्रों को गिरफ्तार कर लंबे समय तक जेल में रखा गया।

महामारी और मोदी सरकार

कोविड-19 महामारी बीजेपी के लिए आपदा में अवसर बन कर आई। विस्तारित चर्चा की जरूरत नहीं है। महामारी के बीच में तीन कृषि कानून और चार श्रम कोड यानी संहिताएं लाई गईं। कृषि कानून के खिलाफ किसानों के विश्व प्रसिद्ध 13 महीने के आंदोलन ने संयुक्त संघर्ष की नई दिशा का रास्ता खोला। जिसमें भिन्न-भिन्न हितों वाले किसान संगठन एक मंच पर आए और संयुक्त किसान मोर्चा बना।

हालांकि 2017 में मंदसौर गोलीकांड के बाद अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के बैनर तले किसान संगठन पहले से ही संगठित होना शुरू कर चुके थे। कृषि कानून ने इस प्रक्रिया में कैटलिस्ट का काम किया।

किसानों ने दमन-षडयंत्र का मुकाबला करते हुए बलिदान, साहस, धैर्य और प्रतिकूल परिस्थितियों से जूझने की बेमिसाल नजीर पेश की और 13 महीने तक दिल्ली को घेरे रखा, जिससे मोदी सरकार को पीछे हटना पड़ा।

किसान आंदोलन की सफलता के पीछे नागरिक समाज के साथ छात्र-नौजवान, मजदूर, महिलाएं, बुद्धिजीवी, डॉक्टर, सामाजिक कार्यकर्ता छोटे-मझोले कारोबारी, दुकानदार, सोशल मीडिया के स्वतंत्र पत्रकारों के साथ गुरुद्वारों, मस्जिदों जैसे धार्मिक स्थलों के सहयोग ने भारत में साझा हितों के लिए एकजुट होने की स्वतंत्रता आंदोलन की परंपरा को पुनर्जीवित किया। किसान आंदोलन की यह सबसे बड़ी उपलब्ध थी। मोदी सरकार को झुका देने के बाद एसकेएम संघर्षरत शक्तियों में आत्मविश्वास का सृजन कर सका और उन्हें एक मंच पर लाने का आधार बन गया।

किसान-मजदूर संयुक्त सम्मेलन 

दिल्ली के तालकटोरा इंडोर स्टेडियम में आयोजित यह सम्मेलन फासीवाद के खिलाफ व्यापक जन एकता के निर्माण का आधार तैयार करता है। सम्मेलन के आयोजन में मजदूर और किसान संगठनों की संयुक्त भागीदारी थी। सम्मेलन ने व्यापक अर्थों में कॉरपोरेट हिंदुत्व गठजोड़ की विध्वंसक और कॉर्पोरेट परस्त नीतियों के खिलाफ साझा मांग पत्र और आंदोलन का एजेंडा तैयार किया है। एकता सम्मेलन ने 3 अक्टूबर को लखीमपुर खीरी किसान नरसंहार के दिन काला दिवस मनाने और 26 से 28 नवंबर तक सभी राज्यों में राज भवनों के समक्ष महापड़ाव की घोषणा की है।

इसके अलावा सम्मेलन ने एक घोषणा पत्र तैयार किया है। जिसको लेकर आने वाले समय में जनता को जागृत करते हुए आंदोलन को आगे बढ़ाया जाएगा। 24 अगस्त का एकता सम्मेलन निश्चय ही भारत में संविधान, लोकतंत्र और भारत की साझी एकता को सुनिश्चित करने में मील का पत्थर साबित होगा।

भाजपा सरकार द्वारा मणिपुर में किये जा रहे नस्लीय‌ नरसंहार, महिलाओं के साथ बर्बरता और दिल्ली के ठीक बगल में मेवात के नूंह में राज्य प्रायोजित भीड़ द्वारा किए गये दंगों और सरकार द्वारा एक तरफ निर्दोष मुसलमानों के खिलाफ की गई कार्रवाई से उत्पन्न आक्रोश का प्रभाव सम्मेलन में छाया रहा। मेडलिस्ट महिला पहलवानों पर हुए दमन, उत्पीड़न और उनके साथ यौनिक अत्याचार को सम्मेलन ने गंभीरता से लिया। इस तरह सम्मेलन फासीवाद के आक्रामक दौर में जनप्रतिरोध की तैयारी में बदल गया। जिसके दूरगामी प्रभाव दिखाई देंगे।

कुछ सवाल

सम्मेलन में मजदूर संगठनों और ट्रेड यूनियन के पदाधिकारी शामिल थे। उनका अच्छा खासा आधार सम्मेलन में भाग लिया था। लेकिन भविष्य की नीतियां बनाने, साझा कार्रवाई को गति देने तथा मजदूर वर्ग की नेतृत्वकारी भूमिका को स्थापित करने की दिशा में मजदूर नेता कोई ठोस प्रस्ताव या वैचारिक दिशा का प्रवर्तन करते हुए नहीं दिखे। आज की ऐतिहासिक जरूरत को देखते हुए मजदूर आंदोलन को नेतृत्वकारी भूमिका निभाने की सख्त जरूरत है।

मिला-जुला कर कहा जाए तो संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) की एक छोटी सी टीम इस एकता सम्मेलन के केंद्रक की भूमिका में थी। जिसके अपने अंतर्विरोध और समस्याएं भी साफ-साफ झलक रही थीं।

दूसरी बात, इस सम्मेलन में मुख्यतः वाम जनवादी विचारधारा के मजदूर-किसान संगठन सक्रिय भूमिका निभा रहे थे। सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर उनमें अघोषित प्रतिद्वंद्विता दिखाई दे रही थी। जिसके बीज शुरूआत से ही एसकेएम में रहे हैं। मोर्चा अभी तक इस निम्न पूंजीवादी प्रवृत्ति पर विजय नहीं पा सका है। जिससे फासीवाद विरोधी संघर्ष में चट्टानी एकता निर्माण में बाधा आ सकती है।

तीसरी बात, किसान आंदोलन में किसान यूनियनों की महत्वपूर्ण भूमिका थी। आंदोलन के दौरान मीडिया और सरकार की निगाह में कुछ नेता बहुत चर्चित हुए हैं। इस सम्मेलन में पंजाब और कमोबेश हरियाणा के किसान यूनियन तो सक्रिय रूप से भागीदारी निभा रहे थे। लेकिन इन दो राज्यों के बाहर खासकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान यूनियनों की खास दिलचस्पी नहीं दिखाई दी। उनकी भागीदारी औपचारिक रही। उनके वर्ग आधार में मौजूद संकट एकता सम्मेलन में उनकी सक्रियता में बाधा पहुंचा रहा है। जिसे ऐतिहासिक किसान आंदोलन में भी महसूस किया गया था।

किसान यूनियन की व्यक्तिवादी कार्यशाली, नेतृत्व में संगठन से ऊपर समझने की कमजोरी और मनमाने फैसले लेने की प्रवृत्ति ने कई बार आंदोलन को संकट में डाला है। इसलिए इस तरह के किसान नेताओं पर फासीवाद विरोधी एकता के दौरान हमें सतर्क दृष्टि रखते हुए और ठोस नीति पर अमल करना होगा।

किसान यूनियनों में आपसी प्रतिद्वंद्विता होने के कारण व्यापक और जुझारू फासीवाद विरोधी किसान संगठनों की एकता नहीं बन सकती। इसके अलावा व्यक्तिवादी और घुमंतू किसान नेताओं की हवाई घोषणाओं और बड़-बोले पन के चलते सुसंगत नीति पर अमल करना एक कठिन काम है। लोकतंत्र और संविधान पर जिस तरह का हमला है उसके देखते हुए हमें एसकेएम में शामिल किसान संगठनों की कार्य पद्धति पर सतर्क और सचेत दृष्टि रखती होगी। जो आंदोलन के विकास की किसी खास मंजिल पर सत्ता के साथ अवसरवादी गठजोड़ में जा सकते हैं।

आदिवासियों, दलितों, छोटी राष्ट्रीयताओं, जनजातियों और हाशिए के समाज को उनके सवालों पर संगठित करते हुए उन्हें प्रतिनिधित्व देने पर विशेष जोर देना होगा। इसके लिए सम्मेलन की नेतृत्वकारी कमेटी को उनके साथ विशेष संबंध बनाने की कोशिश करनी चाहिए।

इसके अलावा छात्रों-युवाओं के उभर रहे मोर्चों को आने वाले सम्मेलनों में विशेष तौर पर आमंत्रित करना चाहिए। इस समय उनकी भूमिका को बढ़ाने की सख्त जरूरत है। बेरोजगार नौजवानों में रोजगार के सवाल को लेकर संगठित होने की नई प्रवृत्ति दिख रही है। इसलिए सम्मेलन को ऐसे मोर्चों के साथ संवाद विकसित करते हुए उन्हें जन एकता का अभिन्न अंग बनाना होगा। जिसकी संभावना बहुत प्रबल है।

हिंदुत्व विचारधारा की अंतर्निहित महिला विरोधी दृष्टि के कारण महिलाओं पर हमले बढ़े हैं। जिस कारण कमजोर वर्गों की महिलाएं (जैसे दलित, आदिवासी) इसकी शिकार हो रही हैं। अब महिला विरोधी हिंसा का विस्तार समाज के उच्च वर्गीय महिलाओं तक फैलता जा रहा है। इसलिए किसी फासीवाद विरोधी मोर्चे में महिलाओं की भागीदारी अति आवश्यक कार्यभार है।

यह सही है कि किसानों-मजदूरों और अन्य तबकों का संयुक्त मंच किसी राजनीतिक दल या विचारधारा से खास तौर से निर्देशित नहीं होगा। लेकिन आज के दौर में फासीवाद की राजनीति से निरपेक्ष होकर नहीं रहा जा सकता। चूंकि हमारे समाज के व्यापक संकट का कारण यही राजनीति और विचारधारा है। इसलिए दक्षता पूर्वक आज की राजनीतिक स्थिति पर नजर रखते हुए आने वाले भविष्य में जनता के हितों को सर्वोपर रखते हुए हमें एक जन आंदोलन, जन संघर्ष, जन राजनीति को विकसित करना ही होगा। जो सड़कों पर चल रहे जनसंघर्षों की ताकत के द्वारा भारत के राजनीति की दिशा तय कर सके।

हम समझते हैं कि आज जब 2024 के चुनाव का समय नजदीक आ रहा है तो राजनीतिक ध्रुवीकरण की गति तेज हो चुकी है। इस दिशा में सम्मेलन ने जो शुरुआत की है। उसमें लोकतांत्रिक संघर्ष को आगे बढ़ाने की अपार संभावनाएं है। उम्मीद है कि भारत के जनगण एकता, लोकतंत्र और समाज के समक्ष खड़े सबसे कठिन मानवीय संकट के तूफानी काल में ये संभावनाएं साकार रूप ग्रहण करेंगी और हमारा लोकतंत्र सशक्त, पारदर्शी, समावेशी आयाम ग्रहण करते हुए आगे बढ़ेगा।

(जयप्रकाश नारायण किसान नेता और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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