ग्राउंड रिपोर्ट: उगते कंक्रीट के जंगल और बढ़ती आबादी से सिमटते चारागाह और हाशिये पर गड़ेरिया चरवाहे

कैमूर-भभुआ\चंदौली। उत्तर प्रदेश के चंदौली, वाराणसी, गाजीपुर, सोनभद्र, भदोही, मिर्जापुर, बलिया, देवरिया, बस्ती, गोरखपुर, लखीमपुर खीरी, मऊ, आजमगढ़ और सीमावर्ती राज्य बिहार के कैमूर-भभुआ व सासाराम समेत दोनों राज्यों में करीब 15 लाख से अधिक पाल-गड़ेरिया समाज के लोग अपनी रोजी-रोटी के लिए 100, 200 व 300 की झुंड में भेड़ों की चरवाही पर निर्भर हैं। कम संसाधन में बेशुमार चुनौतियों से निबटने में माहिर मेहनतकश गड़ेरिया समाज बदलते मौसम, सिमटते चारागाह, बढ़ती संक्रामक बीमारी, बेहताशा गर्मी-लू, सूखते जलस्रोत, महंगी दवाएं, चारा-भूसे की महंगाई, आबादी से दूर उगती कंक्रीट की कालोनियां, आकाशीय बिजली और चौरतफा बढ़ते मोटर वाहनों के दबाव के आगे विवश होता दिख रहा है। बदलते दौर के हिसाब से भारत के अन्य ग्रामीण समाज अपने को अपडेट करने की हर जुगत में लगा है, ताकि वह नए चुनौतियों के हिसाब से ढल जाए। इधर, मौजूदा परिस्थितियों में गड़ेरिया समुदाय पिछड़ता दिख रहा है। समाज की आगे बढ़ने की दौड़ में पिछड़ने की अपनी पीड़ा चराई में जुटे सभी गड़ेरिये खुलकर बयान कर रहे हैं।

घास चरती भेड़ें

संकुचित होते चराई के इलाके

“मेरे गोल में 150 से अधिक भेड़ और एक दर्जन बकरियों का झुंड है। जिसमें तीन लोगों की साझेदारी है। बारी-बारी से सभी अपनी चराई और दवाई की जिम्मेदारी उठाते हैं। साथ में मुनाफा कमाते हैं और साथ में नुकसान भी उठाते हैं। हम लोगों के जानवर सामान्य मौसम और फसलों से खेतों के खाली होने पर फरवरी से लेकर जून के अंतिम सप्ताह तक चराई के लिए मैदानों में रहते हैं। पुन: मानसून के आने और खेतों में धान की रोपाई हो जाने से पहले पहाड़ों पर लौट जाना होता है। यह सफर बहुत कठिन और काफी थकाऊ होता है। हाल के कई सालों से भेड़ की झुंड को चराई के लिए चराई के मैदान और चारा कम मिल रहा है। अब अधिकतर जनपदों के खेत और चराई के मैदान सिमटने लगे हैं। इसलिए बाजार से ऊंची कीमत पर खली-चुन्नी व भूसा खरीदना पड़ता है। कम चारा और पानी की सहज उपलब्धता नहीं होने से भेड़ों का स्वास्थ्य भी प्रभावित हो रहा है।” उक्त बातें कैमूर निवासी महेंद्र पाल ने ‘जनचौक’ को बताया।

धान की रोपाई शुरू होते ही भेड़ों के झुंड लौटने लगते हैं वापस

सिर्फ खपता जा रहा जीवन

महेंद्र आगे बताते हैं कि “पिछले साल 2022 में मेरी 30-32 भेड़ें प्रतिकूल मौसम और संक्रामक बीमारी से मर गईं। साल 2023 में अब तक (24 जून) 16 भेड़ों की कई कारणों से मौत हो चुकी है। पहाड़ों पर चराई के दौरान कई-कई बार तो आकाशीय बिजली की चपेट में आने से चरवाहों की भेड़ गोल को बहुत नुकसान होता है। हम लोग घुम्मकड़ पाल समाज के चरवाहें हैं, सभी तरह के नुकसान उठाकर आगे बढ़ते रहते हैं। पीढ़ियों से चली आ रही चराई की परंपरा से जुड़े हैं। अब इस पेशे में जीवन को बतौर घुमक्कड़ी खपाने के अलावा कोई मुनाफा नहीं है। हमारी नई पीढ़ी के बच्चे चराई से दूरी बना रहे हैं। अंतत: वे मजदूरी करने लगे हैं।”

अपनी भेड़ों के साथ चरवाहे महेंद्र पाल

ऋतु प्रवासियों की बढ़ती चुनौतियां

आमतौर पर भेड़ों की चराई कम ऊंचाई के पहाड़ों व पठारों पर की जाती है। यूपी-बिहार में रहने वाले गड़ेरिया समाज के चरवाहे मुख्यत: ऋतु प्रवासी होते हैं। सर्दियों के सीजन में अपने कुनबे व आबादी के पास भेड़ों के झुंड होते हैं, ऐसे समय में चरवाहों को बाजार से कड़ी प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है। महंगा चारा, जलावन, छप्पर, कीड़ीनाशक दवाएं और टॉनिक की व्यवस्था के लिए साहूकारों से कर्ज तक लेना पड़ता है।

मई-जून में अपनी हरियाली खो चुके विंध्याचल रेंज के जंगल

सर्दी के बाद गर्मी का सीजन आता है। मैदानी इलाकों में तापमान 45 डिग्री सेल्सियस को पार कर जाता है। वहीं, अप्रैल, मई और जून में औसत 43 डिग्री सेल्सियस तापमान और लू में पहाड़ आग उगलने लगते हैं। सभी पानी के जलस्रोत सूख जाते हैं। तब चरवाहे हरी घास, पानी और अनुकूल मौसम की तलाश में भेड़ों के झुंड के साथ मैदानों की ओर पलायन करते हैं। जुलाई में मानसून आने के बाद इन्हें घर लौटना पड़ता है। चरवाहों के जीवन में इस चक्र में कभी ब्रेक नहीं लगता है। बढ़ती आबादी से रास्ते, ठीहे व मैदान और संसाधन सीमित होते जा रहे हैं।”

बढ़ती आबादी डाल रही चरवाही की प्रकृति पर असर

राम अकबाल की उम्र 58 साल है। वह बिहार राज्य के कैमूर भभुआ के चांद थानाक्षेत्र के`निवासी है। राम अकबाल की कई पीढ़ियां भेड़ की चराई में गुजर गई, जिन्हें वे गिनाने में असमर्थ थे। वह बताते हैं कि “हाल के दशक में झुंड को पहाड़ से मैदान की ओर लाने में कम दिक्कत होती है, लेकिन मैदानों से वापस पहाड़ों\ठीहे पर झुंड के साथ लौटने के क्रम में कई स्थानों पर रास्ते बंद हो जाते हैं। अब के समय में इन परेशानियों से बचने के लिए ट्रक\पिकअप आदि बड़े मोटर वाहनों को किराए पर लेकर जाना पड़ता है। यह प्रक्रिया हमारी बचत को लगभग चट कर जाती है।

मई महीने में पानी की कमी से सूखी कर्मनाशा नदी की धारा

मैदानी प्रवास के दौरान मई-जून में पहले कुछ किसान अपने खेतों में गोबर\खाद के लिए भेड़ों को चराई के लिए हम लोगों से संपर्क करते थे। जिसके एवज में 10 किलों गेहूं, 10 किलो चावल, 02 किलो आलू, 250 ग्राम दाल, 100 ग्राम तेल और 150 रुपए नकद देते थे। देखिये अब हमलोगों को भेड़ों के झुंड के साथ लौटने का समय आ गया है। एक भी किसान ने अपनी खेतों में भेड़ों को नहीं बैठाया। पिछली बार चंदौली जनपद के विकासखंड बरहनी के किसान रामविलास मौर्य के खेतों में भेड़ों की बैठाई हुई थी। नहर को छोड़िये इस बार तो कई स्थानों पर चरवाहों की जीवन रेखा कर्मनाशा नदी सूख गई थी।”

जलाने से क्या मिलता है?

चंदौली के सिधना-बेलवानी गांव के दिनेश पाल की कई पीढ़ियां भेड़ पालन में जुटी हैं। दिनेश नई पीढ़ी के ग्रेजुएट युवक हैं, उनके गुट में 300 से अधिक भेड़ें हैं। वह कहते हैं “मैदानों में चराई के लिए रबी सीजन के फसलों के अवशेष चरवाही के लिए विशेष आकर्षण होते हैं। जहां-तहां खूब ढेर सारा चारा, लेकिन हाल के दो दशक में हार्वेस्टिंग के बाद किसान गेहूं व अन्य फसलों के अवशेष को जला दे रहे हैं। इससे फसली अवशेष के साथ आसपास की घास भी जल जाती है।

रबी सीजन में कटाई के बाद जले हुए गेहूं के खेत

मानों अवशेषों को जलाने की प्रक्रिया एक ट्रेंड सी बन गई है। किसान पहले खेती-किसानी अवशेष को सड़ने आदि के लिए छोड़ देते थे। अब तो सीधे कूड़े की तरह जला दिया जा रहा है। ऐसे में जब गर्मी के दिनों में चारे और पानी के तलाश में इन इलाकों में झुंड के साथ पहुंचते हैं तो मायूस हो जाते हैं। दोबारा मेहनत कर नए चारागाह और पानी की तलाश करनी पड़ती है। इससे चरवाहों के जीवन पर असर पड़ रहा है।”

चोरों के निशाने पर भेड़ों के झुंड

दिनेश आगे कहते हैं “अब हम लोगों के भेड़ों के झुंड चोरों के निशाने पर हैं। पिछले साल पड़ोसी गांव तेजोपुर में पहचान के भेड़ चरवाहे अपनी भेड़ों के झुंड के साथ चराई कराने आये थे। रात के समय में हाईप्रोफ़ाइल चोरों ने झुंड के पास मोटर गाड़ी लगाकर 40 भेड़ों को लादकर भाग गए। इसके अलावा कुत्ते और सियार भी भेड़ों के झुंड को नुकसान पहुंचाते हैं।

नई पीढ़ी के ग्रेजुएट युवक दिनेश

कमोबेश इस पृथ्वी पर चरवाहे ही लाखों किलोमीटर के जंगल, पहाड़-पठार और मैदानों को पांव-पांव नापकर सबसे पहले पानी, हरे-भरे जंगल, वनस्पति, उपजाऊ खेत को खोजकर और मानव आबादी को सुपुर्द किया था। मौजूदा दौर में सरकारी उपेक्षा, योजनाओं में चरवाहों, पाल-गड़ेरियां समुदाय की अनदेखी और चराई के लिए विशेष सुविधा की योजना की अदूरदर्शिता से चराई और चरवाहें हासिये पर जा पहुंचे हैं। अब जल्द की कुछ नहीं किया गया तो बहुत देर हो जाएगी।”

(बिहार के कैमूर-भभुआ और यूपी के चंदौली से पवन कुमार मौर्य की ग्राउंड रिपोर्ट।)

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