हाईकोर्ट के कैसे-कैसे आदेश: कभी ज्योतिष पर भरोसा तो कभी मनुस्मृति पर

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पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक रेप पीड़िता के केस में आरोपी की जमानत पर सुनवाई करते हुए उसकी कुंडली के मांगलिक होने की जांच करने का आदेश दिया था, अब गुजरात हाईकोर्ट ने एक रेप पीड़िता द्वारा गर्भपात कराने को लेकर दायर की गई याचिका को खारिज कर दिया। साथ ही उन्होंने हिंदू ग्रंथ मनुस्मृति का हवाला देते हुए टिप्पणी की कि लड़कियों के लिए कम उम्र में शादी करना और 17 साल की उम्र से पहले बच्चे को जन्म देना सामान्य बात थी। कोर्ट को क्या हो गया है? देश संविधान के अनुरूप चलता है मनुस्मृति से नहीं। भारत का संविधान एक क्रांतिकारी और परिवर्तनकारी दस्तावेज है। इसके मूल में स्वतंत्रता, न्याय, समानता और बंधुत्व के मूल्य निहित हैं। मनुस्मृति के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता है।

डॉ अम्बेडकर के लेखन और भाषणों के 17वें खंड में बाबासाहेब ने कहा है कि मनुस्मृति का अलाव काफी इरादतन था। हमने उसका अलाव जला दिया क्योंकि हम इसे उस अन्याय के प्रतीक के रूप में देखते हैं जिसके तहत हम सदियों से कुचले जाते रहे हैं।

डॉ अम्बेडकर ने स्वयं कहा था कि भारतीय आज दो भिन्न विचारधाराओं द्वारा शासित हैं। संविधान की प्रस्तावना में निर्धारित उनका राजनीतिक आदर्श स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के जीवन की पुष्टि करता है। उनके धर्म में सन्निहित उनका सामाजिक आदर्श उन्हें नकारता है। दोनों को मिलाना घोर गलत होगा।

रेप पीड़िता की कुंडली जांच करने वाले इलाहाबाद हाईकोर्ट के विवादित आदेश पर भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड ने ऐसे समय पर इंटरवीन किया जब कोर्ट में छुट्टियां चली रही हैं और शनिवार व रविवार को सुनवाई नहीं होती है। सीजेआई के निर्देश के बाद एक बेंच ने तत्काल इस मामले की सुनवाई कर हाईकोर्ट के फैसले को स्टे कर दिया है। दरअसल, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक रेप पीड़िता के केस में आरोपी की जमानत पर सुनवाई करते हुए उसकी कुंडली जांचने का आदेश दिया था।

एक प्रोफेसर पर एक महिला ने शादी का झांसा देकर रेप करने का आरोप लगाया था। आरोपी प्रोफेसर पर केस दर्ज होने के बाद अरेस्ट कर जेल भेज दिया गया था। जेल में बंद प्रोफेसर ने जमानत की याचिका 23 मई को हाईकोर्ट में दायर किया। जमानत याचिका के लिए आवेदन करने वाले ने हाईकोर्ट को बताया कि वह महिला से इसलिए शादी नहीं कर सकता क्योंकि वह मांगलिक है। 23 मई को उच्च न्यायालय ने लखनऊ विश्वविद्यालय के ज्योतिष विभाग के प्रमुख को महिला की कुंडली की पड़ताल करने का आदेश दिया ताकि यह जांचा जा सके कि उसका दावा सही है या नहीं। कोर्ट ने महिला की कुंडली सीलबंद लिफाफे में जमा करने को कहा और निर्देश दिया कि एक सप्ताह के भीतर रिपोर्ट पेश की जाए।

इलाहाबाद हाईकोर्ट के अजीबो-गरीब आदेश की जानकारी होने पर सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ ने बिना देर किए हस्तक्षेप कर रजिस्ट्री को तत्काल केस की सुनवाई करने के लिए बेंच गठित करने का निर्देश दिया। सीजेआई ने यह निर्देश विदेश में होने के बाद भी दिया। सीजेआई का यह कदम और विशेष हो जाता है क्योंकि अभी सुप्रीम कोर्ट की छुट्टियां चल रही हैं और शनिवार-रविवार को कोई सुनवाई नहीं होती है।

लेकिन सीजेआई को शनिवार सुबह इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश के बारे में पता चला और उन्होंने रजिस्ट्री को इस मामले की सुनवाई के लिए एक बेंच गठित करने का निर्देश दिया। इस आदेश के बाद जस्टिस सुंधाशु धूलिया और पंकज मित्तल की बेंच का गठन हुआ और शनिवार को दोपहर 3 बजे एक स्पेशल सुनवाई में हाईकोर्ट के आदेश पर रोक लगा दिया गया। अगली सुनवाई अब जुलाई में होगी।

सुप्रीम कोर्ट ने एचसी के आदेश पर यह कहते हुए रोक लगा दी कि जमानत याचिका में ज्योतिष रिपोर्ट की आवश्यकता नहीं है और उसे मेरिट के आधार पर जमानत याचिका का मूल्यांकन करने का निर्देश दिया।

गुजरात हाईकोर्ट ने दुष्कर्म पीड़िता द्वारा गर्भपात कराने को लेकर दायर की गई याचिका को खारिज कर दिया। साथ ही उन्होंने हिंदू ग्रंथ मनुस्मृति का हवाला देते हुए टिप्पणी की कि लड़कियों के लिए कम उम्र में शादी करना और 17 साल की उम्र से पहले बच्चे को जन्म देना सामान्य बात थी। गुजरात हाईकोर्ट के जस्टिस समीर दवे ने बुधवार को सुनवाई के दौरान कहा कि यदि लड़की और भ्रूण दोनों स्वस्थ हैं तो वह याचिका की अनुमति नहीं दे सकते हैं।

दुष्कर्म पीड़िता 16 साल 11 महीने की है और उसके गर्भ में सात महीने का भ्रूण है। उसके पिता ने गर्भपात की अनुमति के लिए हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया क्योंकि उसकी गर्भावस्था 24 हफ्ते की उस सीमा को पार कर गई है जिसमें अदालत की अनुमति के बिना गर्भपात किया जा सकता है।

बुधवार को उनके वकील ने जल्द सुनवाई की मांग करते हुए कहा कि लड़की की उम्र को लेकर परिवार चिंतित है। जस्टिस दवे ने कहा कि चिंता इसलिए है क्योंकि हम 21वीं सदी में जी रहे हैं। जस्टिस दवे ने कहा कि अपनी मां या परदादी से पूछो कि पहले शादी की उम्र चौदह-पंद्रह थी और लड़कियां 17 साल की होने से पहले अपने पहले बच्चे को जन्म देती थीं। लड़कियां लड़कों से पहले परिपक्व हो जाती हैं। आपको एक बार मनुस्मृति पढ़नी चाहिए।

जस्टिस दवे ने ने कहा कि अगर भ्रूण या लड़की में कोई गंभीर बीमारी पाई जाती है तो अदालत गर्भपात पर विचार कर सकती है। लेकिन अगर दोनों सामान्य हैं, तो अदालत के लिए इस तरह का आदेश पारित करना बहुत मुश्किल होगा। डिलीवरी की संभावित तारीख 16 अगस्त है। इसके लिए उन्होंने अपने चैंबर में विशेषज्ञ डॉक्टरों से सलाह ली।

अंत में, अदालत ने राजकोट सिविल अस्पताल के चिकित्सा अधीक्षक को डॉक्टरों के एक पैनल द्वारा लड़की की जांच कराने का निर्देश दिया, ताकि यह पता लगाया जा सके कि गर्भ में पल रहे बच्चे और लड़की की क्या स्थिति है। जस्टिस दवे ने कहा कि डॉक्टरों को लड़की का अस्थि परीक्षण भी करना चाहिए और एक मनोचिकित्सक को उसकी मानसिक स्थिति का पता लगाना चाहिए। अस्पताल को सुनवाई की अगली तारीख 15 जून तक रिपोर्ट जमा करने को कहा।

भारत का संविधान सभी वर्गों, जातियों, लिंग और लैंगिकता के लोगों के साथ समान व्यवहार करता है। संविधान स्वयं इस तरह से बनाया गया था जिसने भारत के सामाजिक रीति-रिवाजों पर स्मृतियों की पकड़ को उखाड़ फेंका। डॉ अम्बेडकर ने कहा,“हिंदू समाज में असमानता को समाप्त करना तब तक संभव नहीं है जब तक कि ‘स्मृति’ धर्म की मौजूदा नींव को हटाकर उसके स्थान पर एक बेहतर नींव नहीं रखी जाती है। हालांकि, मुझे इस बात की निराशा है कि हिंदू समाज इतनी बेहतर नींव पर पुनर्निर्माण करने में सक्षम है। हमें यह समझना चाहिए कि संविधान एक क्रांतिकारी और परिवर्तनकारी दस्तावेज है। इसके मूल में स्वतंत्रता, न्याय, समानता और बंधुत्व के मूल्य निहित हैं। मनुस्मृति के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता है।”

दरअसल इस समय संविधान और मनुस्मृति के बीच जंग छिड़ी हुई है। न्यायपालिका में भी ऐसे तत्वों का प्रवेश हो गया है जो समय समय पर इसमें घी डालते रहते हैं। संविधान और मनुस्मृति चाक और पनीर की तरह अलग हैं, और कुछ भी दोनों को मिला नहीं सकता। मनुस्मृति ने जाति व्यवस्था को मजबूत करने की कोशिश की; संविधान अस्पृश्यता को समाप्त करता है। मनुस्मृति ने एक अच्छी महिला के सिद्धांतों को अपने पति के अधीन रहने के रूप में निर्धारित किया जबकि संविधान उसे एक समान मानता है।

वास्तव में मनुस्मृति की आत्मा और संविधान की आत्मा एक दूसरे के विपरीत है। संविधान के पारित होने के बावजूद हमारी बहुत-सी मान्यताएं मनुस्मृति के अनुरूप ही हैं। इसीलिए कार्यपालिका और न्यायपालिका के माध्यम से यह कोशिश की जाती है कि जब भी अन्यायपूर्ण परंपरा और संविधान के बीच टकराव होता है, तो संविधान के पक्ष में निर्णय लिया जाए।

(जे.पी.सिंह वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार हैं।)

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