Friday, March 29, 2024

भारत का ह्वेनसांग कहें या महापंडित, अनवरत यात्री कहे बिना राहुल सांकृत्यायन का परिचय रहता है अधूरा

राहुल सांकृत्यायन, जिन्हें हम आज 14 अप्रैल को उनकी पुण्यतिथि पर याद कर रहे हैं, अपने वक्त में ही ‘भारत के ह्वेनसांग’ बन गये थे और न सिर्फ यह देश बल्कि दुनिया उन्हें ‘महापंडित’ के रूप में जानने, इतिहास, दर्शन, धर्म, अध्यात्म, ज्योतिष, विज्ञान, साहित्य, समाज शास्त्र, राजनीति, भाषा और संस्कृति आदि के क्षेत्र में अप्रतिम अवदान को स्वीकारने और उनके ‘घुमक्कड़ शास्त्र’ की कायल होने लगी थी।

होती भी क्यों नहीं, ज्ञान व तर्क की अद्भुत शक्ति से सम्पन्न बहुभाषाविद तो वे थे ही, तिस पर न ‘घुमक्कड़ी’ की कोई सीमा मानते थे, न ही चिन्तन व मनन की। इसलिए ये पंक्तियां उनका ध्येय वाक्य सी बन गई थीं ‘सैर कर दुनिया की गाफिल जिन्दगानी फिर वहां, जिन्दगी गर कुछ रही भी नौजवानी फिर कहां’?

वे जिस भी देश में गये, वहां के लोगों में घुलमिलकर उनकी भाषा व बोलियां सीखीं और उनकी संस्कृति, समाज व साहित्य के गूढ़ अध्ययन और ग्रंथों के प्रणयन व ‘उत्खनन’ में कुछ उठा नहीं रखा। इस क्रम में आलोचनाओं के शिकार होने के बावजूद अपने व्यक्तित्व व कृतित्व में कभी कोई फांक नहीं आने दी। किसी प्रकार की जड़ता, राग-द्वेष या पूर्वाग्रह की भी उनके निकट कोई गुंजायश नहीं ही थी।

यही कारण है कि छुटपन में ही अपना घर-बार त्यागकर चीन, श्रीलंका, जापान, ईरान, तिब्बत और रूस की घुमक्कड़ी में न उन्होंने कहीं अपने विचारों का प्रवाह रोका, न किसी एक ग्रंथ या पंथ पर जबरन अड़े या टिके रहे। हां, तिब्बत और चीन गये तो वहां से न सिर्फ विपुल, बहुमूल्य व दुर्लभ ग्रंथ ले आये बल्कि उन्हें लोगों तक पहुंचाने के लिए उनके सम्पादन व प्रकाशन का रास्ता भी साफ किया। ये दुर्लभ ग्रन्थ उन्हें पहाड़ों व नदियों के बीच हजारों मील लम्बी कठिन तलाश के बाद हासिल हुए थे, जिन्हें यातायात के दूसरे साधनों के अभाव में खच्चरों पर लादकर वे अपने देश लाये थे।

जानकार बताते हैं कि विचार व ज्ञान के अर्जन को लेकर एक बेचैन-सा असंतोष लगातार उनका पीछा करता रहता था। इसी असंतोष के चलते वे बौद्ध धर्म से जुड़े तो उसका ‘पुनर्जन्मवाद’ स्वीकार नहीं कर पाये और मार्क्सवादी हुए तो तत्कालीन सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी में घुसे सत्तालोलुप व सुविधापरस्त तत्वों के वे कटु आलोचक बन गये। 1940 में ‘बिहार प्रान्तीय किसान सभा’ के अध्यक्ष के तौर पर तो एक आन्दोलन के दौरान किसान सत्याग्रहियों के साथ अपने सिर पर जमींदार के लठैतों की लाठियां खाकर लहूलुहान भी हुए। इसी तरह और कई बार जनसंघर्षों का सक्रिय नेतृत्व भी किया।

प्रसंगवश, माता-पिता के दिये नाम केदारनाथ पांडे को त्यागकर वे पहले रामोदर साधु हुए, फिर राहुल सांकृत्यायन। इसी तरह पहले साधुवेशधारी संन्यासी, फिर वेदान्ती, फिर आर्यसमाजी व अखिल भारतीय किसान सभा के नेता, फिर बौद्ध भिक्षु और अंत में 1917 की रूसी क्रांति से गहरे तक प्रभावित मार्क्सवादी चिन्तक।

संस्कृत, पाली, हिन्दी, उर्दू, तमिल अंग्रेजी, फ्रांसीसी, जर्मन, तिब्बती, फारसी, अरबी और रूसी समेत तीस से ज्यादा भाषाएं बोल, पढ़ व लिख सकने में समर्थ होने के बावजूद उन्हें अपनी भाषा हिन्दी से इतना लगाव था कि उन्होंने अपने सत्तर वर्ष के जीवनकाल में जो एक सौ चालीस पुस्तकें लिखीं और जिनमें से कई आज भी अपने अपने क्षेत्रों की मील की पत्थर मानी जाती हैं, ज्यादातर हिन्दी में ही लिखीं।

गौरतलब है कि उन्होंने इतना सृजन तब किया, जब 1963 में चौदह अप्रैल को पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग में आखिरी सांस लेने से पहले अपने जीवन के आखिरी 18 महीने उन्हें स्मृति और वाणी लोप के भीषण आघात झेलते हुए बिताने पड़े थे। दो खंडों में पहले-पहल मध्य एशिया का इतिहास लिखने वाले वे भारत के पहले लेखक हैं, जिसके लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला था।

हिन्दी में यात्रा साहित्य के तो वे प्रणेता कहें या पितामह ही हैं। दूसरी भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों में भी उनके जैसा घुमक्कड़ी को सभी धर्मों का आधारभूत धर्म, शास़्त्र और संसार का सबसे बड़ा सुख बताने वाला और उनके जितना मन को रमाकर प्रकाशित करने वाली घटनाओं से परिपूर्ण विनोदी, ज्ञान व सूचनावर्धक व रोचक यात्रा वृत्तांत लिखने वाला शायद ही कोई और हुआ हो। उनके अनुसार कोलंबस, डार्विन और वास्कोडिगामा रहे हों या बुद्ध, महावीर, शंकराचार्य, रामानुज और गुरू नानक, अपने-अपने क्षेत्रों में अपना सर्वश्रेष्ठ इसलिए ही दे सके क्योंकि घुमक्कड़ रहे।

उनका मानना था कि नई-नई जगहों और नये-नये देशों में घूमने से ही कोई व्यक्ति विभिन्न प्रकार के नये-नये लोगों और उनकी सभ्यता तथा संस्कृति के संपर्क में आता और सीखने एवं जानने के ऐसे मौके पाता है, जो अन्यत्र कतई उपलब्ध नहीं हो सकते। उनके अनुसार एक घुमक्कड़ी ही है जो मनुष्य को स्वतंत्र, उदार, तर्कशील और मानवीय बनाती है।

लेकिन व्यापक जीवनानुभवों और व्यावहारिकता से सम्पन्न और विविध आयामों से परिपूर्ण सृजनात्मक योगदान के बावजूद उनके प्रति हिन्दी जगत की ‘कृतज्ञता’ का आलम यह है कि वह अब उन्हें उनकी जयंती और पुण्यतिथि पर भी अपवाद स्वरूप ही याद करता है।

उत्तर प्रदेश के जिस आजमगढ़ जिले के पन्दहा गांव में 1893 में नौ अप्रैल को माता कुलवंती व पिता गोवर्धन पांडेय के पुत्र के रूप में उनका जन्म हुआ और बचपन में ही माता को गंवा देने के बाद उन्होंने नानी की गोद पाई, वहां भी अब कर्मकांड के तौर पर घुमक्कड़ लेखक, अनवरत यात्री, उत्कट स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, सामाजिक क्रान्ति के अग्रदूत, सार्वदेशिक दृष्टि सम्पन्न और समाजवाद के संघर्ष का अप्रतिम योद्धा वगैरह बताकर उन्हें याद करने की लकीर भर पीटी जाती है।

शायद इसीलिए कई साल पहले देश के एक अंग्रेजी अखबार ने उनकी याद में एक लेख छापा तो उसके शीर्षक में उन्हें ‘फारगॉटेन जीनियस’ करार दिया यानी महापंडित, जिसे भुला दिया गया। यों, उनकी एक पुस्तक का नाम भी ‘विस्मृत यात्री’ है।

वरिष्ठ आलोचक कर्ण सिंह चैहान की मानें तो राहुल के जीवन, विश्व-दृष्टि और लेखन के सरोकारों में उनकी मृत्यु-पर्यंत होते रहे लगातार परिवर्तनों, शोधों, ग्रहणों और त्यागों का जो सिलसिला है, उसे वास्तविक अर्थों में सत्य की खोज की अनवरत और अधूरी यात्रा ही कहा जा सकता है। लेकिन क्या किया जाये कि हिंदी में व्यक्ति और उसके कर्म की ज्वलंत जीवंतता को अंततः पूज्य मूर्ति में बदल दिया जाता है, ताकि उसकी आधारभूत मान्यताओं को दरकिनार कर उसकी मूर्ति को यदा-कदा समारोहों में पुष्पांजलि के लिए उपयोग में लाया जा सके।

अकारण नहीं कि राहुल का यह कथन भी अब अपवादस्वरूप ही याद किया जाता है कि शोषण पर आधारित तमाम राज्यसत्ताएं न केवल शोषितों के शोषण, अन्याय और अवमानना पर टिकी रहती हैं, बल्कि उनके पक्षधरों के प्रति भी वही व्यवहार करती हैं।

सत्ताएं जो भी करें, राहुल का व्यक्तित्व व कृतित्व कितना अनगढ़ था, आम लोग इसे इस बात से समझ सकते हैं कि उन्होंने महज मिडिल स्कूल तक ही स्कूली शिक्षा पाई थी। क्योंकि शिक्षा और सामाजिक मान्यताओं के प्रति विद्रोही स्वभाव के कारण वे बचपन से ही बार-बार घर से पलायन को मजबूर हुए थे। फिर भी वे जब तक सक्रिय रह पाये, रूढ़ सामाजिक धारणाओं पर अपने जीवन और कर्म से कुठाराघात करते तथा जीवन-सापेक्ष बनकर समाज की प्रगतिशील शक्तियों को संगठित कर संघर्ष एवं गतिशीलता की राह दिखाते रहे।

(कृष्ण प्रताप सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और अयोध्या में रहते हैं)

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