Sunday, April 28, 2024

झारखंड ने तोड़ दिया मोदी और शाह का गरूर

झारखंड में शबरी और केवट की संतानों ने बता दिया कि उन्हें राम मंदिर से पहले रोटी, रोजगार और खेत के लिए पानी चाहिए। उन्होंने बता दिया कि उन्हें विभाजनकारी नागरिकता कानून और एनआरसी नहीं बल्कि शिक्षा, स्वास्थ्य, सुकून और भाईचारा चाहिए। उन्होंने यह भी बता दिया कि गौरक्षा के नाम पर झारखंड को सांप्रदायिक गुंडागर्दी बर्दाश्त नहीं है। उन्होंने यह भी साफ कर दिया कि उन्हें विकास के नाम पर राज्य के जल-जंगल-जमीन और अन्य प्राकृतिक संसाधनों को लूटने की कॉरपोरेट घरानों को खुली छूट देना स्वीकार नहीं किया जा सकता। नक्सली उन्मूलन के नाम पर बेगुनाह आदिवासियों को मारा जाना भी उन्होंने मंजूर नहीं किया। उन्होंने एक देश-एक विधान के नाम पर जम्मू-कश्मीर के दो टुकडे कर उसका विशेष राज्य का दर्जा खत्म करने की कवायद को भी खारिज कर दिया। कुल मिलाकर जिन-जिन मुद्दों पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह ने भारतीय जनता पार्टी के लिए वोट मांगे थे, आदिवासी बहुल झारखंड की जनता ने उन सभी मुद्दों को सिरे से खारिज कर दिया।
पिछले एक साल में झारखंड ऐसा पांचवा राज्य है, जहां भाजपा को सत्ता से बेदखल होना पड़ा है। पिछले साल दिसंबर में मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भाजपा को हार का मुंह देखना पड़ा था। फिर लोकसभा चुनाव के बाद महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा के चुनाव हुए जिसमें महाराष्ट्र भाजपा के हाथ से निकल गया और हरियाणा में वह अपनी हार के बावजूद चुनाव नतीजों के बाद गोवा की तर्ज पर खरीद-फरोख्त और जोड़तोड़ के सहारे सरकार बनाने में कामयाब हो गई। गोवा और हरियाणा जैसा ही किस्सा झारखंड में भी दोहराने की तैयारी थी। तमाम एग्जिट पोल त्रिशंकु विधानसभा और भाजपा के सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने का अनुमान जता रहे थे, लिहाजा चुनाव नतीजों के बाद बहुमत का जुगाड़ करने के मकसद से भाजपा के प्रबंधक रांची पहुंच गए थे लेकिन जनादेश इतना स्पष्ट रहा कि भाजपा के सामने हार मंजूर करने के अलावा कोई चारा नहीं रहा।
दरअसल इस चुनाव में भाजपा की पिछले पांच साल से चल रही राज्य सरकार के पास अपनी ऐसी कोई उपलब्धि नहीं थी जिसके आधार पर वह जनता से वोट मांगती। पिछले पांच साल के दौरान इस आदिवासी बहुल राज्य में भाजपा की सरकार आदिवासियों के हितों के खिलाफ जितने काम कर सकती थी और गरीब आदिवासियों का जितना ज्यादा उत्पीड़न कर सकती थी, उसने किया। इसी वजह से झारखंड के आदिवासियों में नाराजगी थी।
रघुबर दास सरकार ने आदिवासियों की हजारों एकड़ जमीन एक पूंजीपति घराने को बिजली घर लगाने के लिए दे दी थी और उनके विरोध को बेरहमी से कुचल दिया था। उन दस हजार से ज्यादा आदिवासियों पर देशद्रोह का मामला दर्ज कर दिया था, जिन्होंने अपने घर के बाहर पत्थरों पर यह लिख दिया था कि जो संविधान में आदिवासियों को अधिकार दिए हैं, हम उसकी बात करेंगे और उन अधिकारों के खिलाफ सरकार के किसी भी फैसले को मंजूर नहीं करेंगे। किसान विरोधी काश्तकारी कानून में बदलाव को भी सूबे के लोगों ने पसंद नहीं किया।
सूबे की सरकारी नौकरियों में स्थानीय लोगों की बहाली का मुद्दा बार-बार उठता रहा। हाई स्कूल शिक्षकों की नियुक्ति में दूसरे राज्यों के उम्मीदवारों को अवसर दिए जाने का मामला भी खूब उछला। राज्य लोकसेवा आयोग की एक भी परीक्षा पिछले पांच सालों में नहीं हो पाई है। अस्थायी शिक्षकों, आंगनबाड़ी सेविकाओं और सहायिकाओं पर लाठी चार्ज की घटनाओं से भी राज्य सरकार के प्रति नाराजगी थी।
पिछले पांच साल के दौरान नफरत से प्रेरित अपराधों के लिए यह राज्य खुला मैदान बन गया था। पूरे पांच साल के दौरान मॉब लिंचिंग की 22 घटनाएं सूबे में हुई और इन घटनाओं को अंजाम देने वाले तत्वों को न सिर्फ राज्य सरकार की सरपरस्ती हासिल रही बल्कि केंद्र सरकार के मंत्री भी मॉब लिंचिंग के गुनहगारों का सार्वजनिक तौर फूलमाला पहनाकर अभिनंदन करते रहे।
ऐसा नहीं है कि भाजपा नेतृत्व को झारखंड की सियासी हवा का अंदाजा नहीं था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष तथा गृह मंत्री अमित शाह को अच्छी तरह मालूम था कि वहां इस बार का चुनावी मैदान भाजपा के लिए बहुत आसान नहीं है और कोई चमत्कार ही भाजपा की सत्ता में वापसी करा सकता है। खुफिया एजेंसियों के जरिए भी उन्हें लगातार जमीन हकीकत की जानकारी मिल रही थी। इसीलिए झारखंड का कार्यक्रम महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनाव कार्यक्रम के साथ नहीं कराया गया, जबकि प्रधानमंत्री मोदी पूरे देश में एक साथ चुनाव कराने की बात अक्सर करते रहते हैं।
झारखंड का चुनाव अगर महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनाव के साथ कराया जाता तो मोदी और शाह चुनाव प्रचार के लिए झारखंड को पर्याप्त समय नहीं दे पाते। भाजपा के इन दोनों शीर्ष नेताओं की सुविधा का ध्यान रखते हुए चुनाव आयोग ने पूरी तरह से भाजपा के सहयोगी दल की भूमिका निभाई। महज 81 सीटों वाली विधानसभा का चुनाव उसने तीन सप्ताह में पांच चरणों में कराया, ताकि प्रधानमंत्री और गृह मंत्री को वहां चुनाव प्रचार के लिए ज्यादा से ज्यादा समय मिल सके। हालांकि चुनाव आयोग की यह हिकमत अमली भी भाजपा के किसी काम न आ सकी।
बहरहाल, दोनों नेताओं ने अपने आपको पूरी तरह चुनाव प्रचार में झोंका और अपनी तयशुदा रणनीति के तहत अनुच्छेद 370, तीन तलाक कानून, राम मंदिर, नागरिकता संशोधन कानून, एनआरसी जैसे केंद्र सरकार के प्रमुख फैसलों पर लोगों से वोट मांगे। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पैदा करने और नफरत भरे भाषण देने के लिए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को भी चुनाव प्रचार मंै उतारा गया। प्रधानमंत्री मोदी ने कुल नौ, जबकि अमित शाह और योगी ने 11- 11 रैलियां कीं।
चूंकि मोदी और शाह को मतदान के पहले और दूसरे चरण में ही भाजपा के बुरी तरह पिछड़ने के संकेत मिल गए थे, लिहाजा मतदान के तीसरे चरण के पहले ही ताबड़तोड़ नागरिकता संशोधन विधेयक संसद में पेश कर उसे नौ दिसंबर को लोकसभा में 12 दिसंबर को राज्यसभा पारित कराया गया। नौ दिसंबर के बाद मतदान के तीन चरणों के लिए हुए चुनाव प्रचार में मोदी और शाह ने अपनी सरकार के इस फैसले का जोर-शोर से उल्लेख किया।
जब तीसरे चरण के संकेत भी भाजपा के अनुकूल नहीं मिले और फीडबैक यह मिला कि मुख्यमंत्री समेत प्रमुख उम्मीदवार पिछड़ रहे हैं तथा पार्टी को पिछली बार से भी कम सीटें मिलने जा रही हैं तो आखिरी के दो चरणों में मोदी और शाह ने आक्रामक प्रचार की रणनीति अपनाते हुए खुद ही खुलकर हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण का कार्ड खेला। वैसे आखिरी दो चरण की 31 सीटों में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का कार्ड पहले भी काम करता रहा है क्योंकि उनमें कई विधानसभा क्षेत्र ऐसे हैं, जहां मुस्लिम आबादी अच्छी खासी है।
आखिरी दो चरणों की अपनी चुनावी रैलियों में गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि चार महीने में अयोध्या में आसमान छूने वाला राम मंदिर बन जाएगा। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी मंदिर के नाम पर वोट मांगे। उन्होंने सीधे तौर पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का श्रेय भाजपा को देते हुए कहा कि मंदिर बनवाने वाली पार्टी को वोट दे। खुद प्रधानमंत्री ने 15 दिसंबर को दुमका की चुनावी रैली में नागरिकता कानून का विरोध करने वालों को इशारों-इशारों में मुस्लिम बताते हुए कहा कि इस कानून के खिलाफ आंदोलन कर रहे लोगों को उनके कपड़ों से पहचाना जा सकता है।
मोदी कहीं भी चुनाव प्रचार करें और पाकिस्तान का जिक्र न करे, यह तो हो ही नहीं सकता। उस रैली में भी वे यहां तक कह गए कि पाकिस्तानी मूल के लोग ही इस कानून का विरोध कर रहे है। जाहिर है कि सांप्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण के लिए मुस्लिम पहनावे और पाकिस्तान में जन्मे लोगों की मिसाल दी गई। इतना ही मोदी अपनी आदत के मुताबिक यहां भी विपक्षी नेताओं को पाकिस्तान और आतंकवादियों का समर्थक बताने से बाज नहीं आए।
पूरे पांच चरणों के चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री ने बेरोजगारी, महंगाई, झारखंड के विकास, राज्य की बिगड़ती कानून व्यवस्था की स्थिति का भूल कर भी जिक्र नहीं किया। इस सबके बावजूद झारखंड की जनता ने भाजपा को बुरी तरह नकार दिया। राज्य सरकार के कई मंत्री ही नहीं, मुख्यमंत्री, प्रदेश भाजपा अध्यक्ष और विधानसभा अध्यक्ष तक अपनी सीट नहीं बचा पाए। सबसे शर्मनाक हार मुख्यमंत्री रघुबर दास की हुई, जिन्हें उन्हीं की सरकार में मंत्री रहे और पार्टी का टिकट न मिलने पर निर्दलीय उम्मीदवार के तौर मैदान में उतरे वरिष्ठ नेता सरयू राय ने 15 हजार वोटों के अंतर से पराजित किया।
दूसरी ओर भाजपा का मुकाबला कर रहे झारखंड मुक्ति मोर्चा, कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल के महागठबंधन ने समय से सीटों का बंटवारा और मुख्यमंत्री पद को लेकर सहमति कायम कर ली थी। पिछले चुनाव में इन तीनों दलों ने अलग-अलग रहकर लडने का नतीजा देख लिया था और उससे सबक लेकर पहले से ही सचेत हो गए थे। महागठबंधन ने पूरा चुनाव स्थानीय मुद्दों पर लड़ा, जिसका उन्हें फायदा भी मिला। झारखंड में 26.3 प्रतिशत आबादी आदिवासियों की है और 28 सीटें उनके लिए आरक्षित हैं। महागठबंधन झारखंड मुक्ति मोर्चा के आदिवासी नेता आदिवासी नेता हेमंत सोरेन को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया, जबकि भाजपा ने लगातार दूसरी बार गैर-आदिवासी रघुबर दास को ही इस पद के लायक समझा।
कुल मिलाकर झारखंड में भाजपा को मिली हार स्पष्ट तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह की निजी हार है। सूबे की जनता ने उनके फैसले को और उनके एजेंडे को सिरे से खारिज कर दिया। पिछले एक साल में पांच राज्य और उसमें भी मोदी के दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने के सात महीने के भीतर ही दो राज्यों का भाजपा के हाथ से निकल जाना पूरी पार्टी और खासकर मोदी-शाह की जोडी के लिए साफ इशारा है कि वह अति-आत्मविश्वास और आत्म-मुग्धता की स्वनिर्मित कैद से बाहर निकले और यह मुगालता दूर कर लें कि उनके हर फैसले और विभाजनकारी एजेंडे पर पूरा देश उनसे सहमत है।

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