कला मनुष्य को एक ऐसी दुनिया से साक्षात्कार कराती है,जिसमें वह सबकुछ दिखता है,जो अमूमन दिखायी पड़ने वाली दुनिया में दिखायी नहीं पड़ता।ऐसा शायद इसलिए,क्योंकि कला को जो कोई अंजाम दे रहा होता है,वह उस कला की बारीरिकयों में उतरकर सृजन के रेशे-रेशे को महसूस कर रहा होता है।
हम जब भी किसी उत्पाद के कोशिकीय या अणु-परमाणु के रचना-स्तर पर जान लेते हैं,तो हमारा भ्रम शर्मसार होने लगता है और हम वास्तविकता के धरातल पर आकर प्रकृति यानी सर्जक के अनगिनत सृजन में से एक होने का अहसास कर पाते हैं और यहीं आकर हम अपनी असली भूमिका को पहचानना शुरू कर देते हैं,भ्रम शून्य की ओर गतिशील होकर पिघलने लगता है,जाति-बिरादरी, धर्म-प्रजाति की पगलाहट तोड़ने लगती है। फिर, आम से दिखने वाले मनुष्य के भीतर ही एक ऐसे ख़ास मनुष्य का जन्म होने लगता है,जिसे अलग-अलग सभ्यता-संस्कृति की भिन्नता,उस विविधता की तरह नज़र आने लगता है,जिसे इस प्रकृति यानी ‘मूल’ ने बख़्शा है।
यही कारण है कि दुनिया की तमाम सभ्यतायें कला की दीवानी रही हैं। बेशक, इन कलाओं ने राजा-रानियों,महाराजा-महारानियों,बादशाह-सुल्तानों या सम्राटों और राजकुमारों-शाहज़ादों-राजकुमारियों-शाहज़ादियों का भरपूर मनोरंजन किया है। कला से होते मनोरंजन ने उनके मन को उस रंग से रंजित किया है,जो पदार्थ,भौतिकता या दैहिकता के पास नहीं है।इसकी सबसे बड़ी ताक़त,कला के साथ रहने-ढलने वालों को अच्छे प्राणी में रूपांतरण की शक्ति है।
कला हमें ऐसे रंगती है कि हम भेद से अभेद की तरफ़ चलने लगते हैं; व्यष्टि से समष्टि होने लगते हैं।जहां व्यष्टि या अभेद होगा,वहां की सभ्यता और संस्कृति दोनों,रगड़शील नहीं,बल्कि गतिशील होगी।रगड़शीलता,सभ्यता-संस्कृति को खरोंच देती है; गतिशीलता उन्हें गतिहीनता या सड़ांधता से बचाये चलती है। यही कारण है कि दुनिया की हर धार्मिक-अधार्मिक-आस्तिक-नास्कित सभ्यता अपने चरम को तभी छू पायी है,जब वहां की कला-चित्रकला-मूर्तिकला-नृत्य और संगीतकला आदि वहां के शासन-प्रशासन की तरह ही आवश्यक मानी गयी है।
कृष्ण के होठों से बांसुरी छीन ली गयी होती,तो शायद भारतीय सभ्यता इतनी बेरंग होती कि हमारे भीतर की अहिंसा इतनी भी बची नहीं होती कि हम हिंसा करने वालों से नफ़रत करने के लायक़ भी बच पाते;हजरत दाऊद की आवाज़ में अगर प्रकृति की लहरें संगीत बनकर बेचैन नहीं हुई होतीं,तो अल्लाह के अमनपसंद इस्लाम,बहुत पहले ही मुल्लों के हिंसा पसंद इस्लाम की भेंट चढ़ गया होता।
शुक्र है कि सनातन धर्म के पास कृष्ण हैं,जिनकी बांसुरी की धुनें सुनकर पशु-पक्षी-नर-नारियां और यहां तक कि यमुना की धारा,गोवर्धन की विराटता ठिठक जाते थे और शुक्र है कि इस्लाम के पास हजरत दाऊद की आवाज़ है,जिसे सुनकर पहाड़ भी अपना सर झुका लेता था,हवायें ठहर जाती थीं,तारे चहक लगते थे और ज़र्रे-ज़र्रे में ख़ुदा नुमाया होने लगता था।
पिछली शताब्दी में भारतीय धरती पर कृष्ण की बांसुरी और हजरत दाऊद की आवाज़ की परंपरा में एक और आवाज़ पैदा की थी,जिसमें राष्ट्रभक्ति का सायरन था; भक्ति का समर्पण था;प्रकृति का ‘तेरा तुझको सौंप दूं’ का अर्पण था;हर मनुष्य के लिए मनुष्य हो जाने का आग्रह था;समाज से भेद से अभेद की तरफ़ चल देने की प्रेरणा थी;इन तमाम चीज़ों के नहीं होने पाने की छटपटाहट गाता ‘मन रे तूं काहे न धीर धरे’ का अनुग्रह था।
मगर अल्लाह को मंज़ूर वह आवाज़,मुल्लों को रास नहीं आयी और रफ़ी साहब को फ़र्ज़ी इस्लाम का फ़रमान सुना डाला,”इस्लाम के ऐतबार से किसी हाज़ी का इस तरह गाना हराम है,आप गाना गाना छोड़ दीजिए,क्योंकि यह इस्लाम के ख़िलाफ़ है।” रफ़ी साहब ने मुल्लों के फ़रमान को सर माथे पर रखा,और 1971 में हज से लौटने के बाद गाना गाना छोड़ दिया। हिन्दी फ़िल्म इंडस्ट्री में बेचैनी पैदा हो गयी,क्योंकि यही वह दौर था,जब रफ़ी साहब अपने हुनर के चरम पर थे।
संगीतकार नौशाद को ये बात पता चली,वे रफ़ी साहब के पास गये और उन्होंने रफ़ी साहब को समझाया-बुझाया, “आप ईमान का काम कर रहे हैं,आपका गाना हराम कैसे हो सकता है !” इस्साम की सही तस्वीर रखते ही रफ़ी साहब गाने के लिए फ़ौरन तैयार हो गये। कहते हैं कि रफ़ी साहब बेहद मासूम इंसान थे,तो फिर उन्हें इस बात का पछतावा भी शायद हुआ हो कि मौलवियों के कहने पर उन्होंने अपने अनगिनत चाहने वालों को परेशान कर दिया था।
आज 24 दिसंबर है और आज ही के दिन रफ़ी साहब की जयंति है।उनकी ज़िंदगी के इस वाक़ये से हमें इस बात की सीख लेनी होगी कि ‘पंडितों का सनातन’ और ‘मुल्लों के इस्लाम’ में ज़्यादा फ़र्क़ नहीं है,क्योंकि दोनों असली सनातन और असली इस्लाम को सड़कों के हवाले कर देता है और धर्म या मज़हब सड़क पर आते ही सियासत की आफ़त ले आते हैं,क्योंकि दरअस्ल तब न वह धर्म रह जाता है और न उसमें मज़हब बच पाता है और फिर अपने-अपने क्षेत्र के अनगिनत रफ़ियों की आवाज़ पर धर्म-मज़हब की पाबंदियां लगा दी जाती है।
दुनिया बेसुरी होने लगती है,धर्म और मज़हब बेनूर होने लगते हैं,हिंसा फ़न काढ़े धर्म-मज़हब को बार-बार डंसने को तैयार बैठी होती है और सभ्यता और संस्कृति ? शायद शब्दों का कंकाल रह जाता है,कर्मकांडों,बेतूके बयानों और तानों और तकिया क़लामों का जंजाल बना रह जाता है।फिर तो, रफ़ी के गाने के ऐतबार से यही कहा जा सकता है- ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है !
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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