Sunday, April 28, 2024

जस्टिस फातिमा बीवी ने न्यायपालिका में रचा था इतिहास

23 नवम्बर 2023 को हमने भारत की प्रथम महिला सुप्रीम कोर्ट जज फ़ातिमा बीवी को खो दिया। वह सुप्रीम कोर्ट की पहली महिला जज थीं। जस्टिस फ़ातिमा 96 वर्ष की थीं और उन्होंने लम्बे समय तक देश में महिला अधिकार की मशाल को जलाए रखा। उनका कामकाज का दायरा कोर्टरूम से बाहर तक फैला हुआ था।

जस्टिस फ़ातिमा का चमत्कारिक कैरियर

30 अप्रैल 1927 को केरल में पठनामथिट्टा में जन्मीं फ़ातिमा बीवी ने तिरुअनन्तपुरम के यूनिवर्सिटी काॅलेज से बीएससी करने के बाद विधि की शिक्षा लेने का निर्णय इसलिए लिया कि उनके पिता ने देश की प्रथम उच्च न्यायालय की जज अन्ना चंदी की सफ़लता देखकर प्रेरणा ली और फ़ातिमा को विधि पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया। वह यहीं से एलएलबी की पढ़ाई करने लगीं।

1950 में वह वकालत के पेशे में आईं और उन्होंने बार काउंसिल की परीक्षा में स्वर्ण पदक भी हासिल किया। उनके परिश्रम ने उन्हें एक-के-बाद-एक पदोन्नति दी। वह 1958 में केरल के अधीनस्थ न्यायिक सेवाओं में मुन्सिफ़ बनकर आ गईं, फिर 1968 में अधीनस्थ न्यायाधीश बनीं, उसके बाद 1972 में मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट बनीं और 1974 में जिला सेशन्स जज बन गईं।

1980 में वह आयकर अपीलीय न्यायाधिकरण की सदस्य नियुक्त की गईं। 1984 में उच्च न्यायालय की न्यायाधीश बनने के बाद वह अपने कैरियर के शीर्ष पर तब पहुंचीं जब उन्हें सुप्रीम कोर्ट में पहली मुस्लिम महिला जज के रूप मे 1989 में नियुक्त किया गया। इसके साथ ही एशिया और भारत में महिलाओं के न्यायपालिका में प्रवेश का रास्ता प्रशस्त हुआ।

उनके अपने शब्दों में.. “अब इस क्षेत्र में कई महिलाएं हैं- बार और बेंच दोनों में। हालांकि उनकी भागीदारी कम है। उनका प्रतिनिधित्व पुरुषों के बराबर नहीं है। इसका ऐतिहासिक कारण भी है.. महिलाएं देर से मैदान में उतरी हैं। महिलाओं को न्यायपालिका में समान प्रतिनिधित्व मिलने में समय लगेगा।”

उनके अनुसूचित जाति एवं कमज़ोर वर्ग कल्याण संघ बनाम कर्नाटक राज्य में फैसले का एक अंश “यह हमारे संवैधानिक ढांचे के मूलभूत नियमों में से एक है कि प्रत्येक नागरिक को राज्य या उसके अधिकारियों द्वारा मनमाने अधिकार के प्रयोग से संरक्षित किया जाता है..”समय के अनुसार बेहद प्रासंगिक है।

मानवाधिकार आयोग की अध्यक्ष और तमिलनाडु में राज्यपाल पद से इस्तीफा

सेवानिवृत्त होने के बाद उन्हें 1993 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष बनाया गया था। उन्होंने दंगों और हत्या के तमाम मामले लिए और अपराधियों को सज़ा दिलवाई। इसी वर्ष वह केरल पिछड़ा वर्ग आयोग की अध्यक्ष भी बनीं। इससे पहले 1990 में उन्हें डी लिट प्राप्त हुआ। उन्हें महिला शिरोमणि पुरस्कार और भारत ज्योति पुरस्कार के साथ यूएस-इंडिया बिज़नेस लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड से भी सम्मानित किया गया था।

लेकिन 2001 में उन्हें तमिलनाडु के राज्यपाल के पद से वापस बुला लिया गया। उनपर आरोप था कि वे संविधान की रक्षा करने के मामले में अपने कर्तव्य का पालन करने में अक्षम रहीं। उस समय जयललिता की सरकार थी। एम करुणानिधि को भ्रष्टाचार के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। वे पूर्व मुख्यमंत्री और डीएमके के सुप्रीमो होने के नाते लोकप्रिय राजनेता थे।

मुरासोली मारन और टीआर बालू को जिस तरह बल-प्रयोग के साथ गिरफ्तार किया गया और 78 वर्षीय करुणानिधि को जिस प्रकार घसीटते हुए ले जाया गया, उससे मीडिया में तहलका मच गया था। अटल बिहारी की सरकार ने तब अपनी जांच टीम भेजी और तय किया कि फ़ातिमा बीवी का रवैय्या पक्षपातपूर्ण था। फ़ातिमा जी न इस्तीफा दे दिया।

क्यों भारत में महिला जजों की संख्या है कम?

फ़तिमा बीवी की नियुक्ति को 33 वर्ष हो गए पर देश में ज्यादा कुछ बदला नहीं है। भारत और यूएस जैसे विकसित देश में भी महिला न्यायाधीशों की संख्या आज कम है। कई अध्ययन बताते हैं कि इसके सामाजिक-सांस्कृतिक कारण हैं। और भी कई कारणों का पता लगाया गया है।

मसलन, ऐन्टिओक युनिवर्सिटी के एक अध्ययन के अनुसार अधिकतर महिला जजों द्वारा भ्रष्ट राजनेताओं को सज़ा दी गई है, जबकि पुरुष जज उनके प्रति नरम रुख प्रदर्शित करते हैं। इसी प्रकार घरेलू हिंसा के मामलों में महिला जज अधिक सख्त व कारगर साबित हुई हैं। विश्लेषकों का मानना है कि इस वजह से न्यायपालिका में प्रणालीगत बाधाओं के अलावा महिलाओं के प्रति पूर्वाग्रह भी है।

एक साक्षात्कार में जब जस्टिस फ़ातिमा से पूछा गया कि क्या न्यायपालिका महिला-विरोधी है, उन्होंने झट जवाब दिया..‘‘बेशक, यहां भी पितृसत्ता का बोलबाला है, पर अब कुछ महिलाएं आ रही हैं, अलबत्ता काफी धीमी रफ़्तार से। इसका कारण सर्वोच्च न्यायालय में नियुक्त होने वाली सक्षम महिलाओं की कमी नहीं है। ऐसी सक्षम महिलाएं हैं जिनपर विचार किया जा सकता है और उन्हें नियुक्त किया जा सकता है। पर यह करना कार्यपालिका का काम है।” फ़ातिमा बीवी उच्च न्यायपालिका में महिला आरक्षण के पक्ष में थीं।

अब तक सिर्फ 11 महिलाएं जज बनीं

1. फ़ातिमा बीवी 1989-92, केरल उच्च न्यायालय से

2. सुजाता मनोहर 1994-99, केरल उच्च न्यायालय सीजे से

3. रूमा पाॅल 2000-2006, कलकत्ता उच्च न्यायालय से

4. ज्ञानसुधा मिश्र 2010-14, सीजे झारखंड उच्च न्यायालय से

5. रंजना देसाई 2014-20, बम्बई उच्च न्यायालय से

6. आर भानुमति 2014, सीजे झारखंड उच्च न्यायालय से

7. इंदु मल्होत्रा 2018-21, एचएलसी, विधि व न्याय मंत्रालय

8. इंदिरा बनर्जी 2018-22, सीजे मद्रास उच्च न्यायालय से

9. हिमा कोहली 2021-24, सीजे तेलंगाना उच्च न्यायालय से

10. बेला त्रिवेदी 2021-25, गुजरात उच्च न्यायालय से

11. बी वी नागरथना 2021-27, कर्नाटक उच्च न्यायालय से

वर्तमान में सीजेआई सहित 34 जजों में से 3 महिला सिटिंग जज हैं। जहां तक उच्च न्यायालयों की बात है तो कुल 788 जजों में से केवल 107 महिला जज हैं, यानि केवल 13 प्रतिशत। भारत में निचली न्यायपालिका में 15,806 न्यायाधीशों की मौजूदा संख्या में महिलाओं का प्रतिनिधित्व मात्र 27.6 प्रतिशत है। (इंडिया जस्टिस रिपार्ट 2022 के आंकड़े)

महिला जजों का विभाजन इस प्रकार है-

मद्रास, पंजाब व हरियाणा-13

दिल्ली-10, बम्बई-9, कलकत्ता-9, तेलंगाना-9

इलाहाबाद-8, गुजरात-7, कर्नाटक-5, केरल-5

गुवाहाटी-4, मप्र-3 राजस्थान-3, आंध्र प्रदेश-2, झारखण्ड-2

छत्तीसगढ़, हिमाचल, उड़ीसा, जम्मू व काश्मीर, सिक्किम- सभी में 1-1

बाकी राज्यों, बिहार, मणिपुर, मेघालय, त्रिपुरा और उत्तराखंड में- 0

क्या न्यायपालिका में पितृसत्ता और ब्राह्मणवाद हावी है?

देश की प्रथम हाईकोर्ट जज लीला सेठ ने अपनी आत्मकथा ‘ऑन बैलेंस’ में लिखा है कि- वह न्यायपालिका में एक महिला होने के कारण आने वाली अतिरिक्त कठिनाइयों का सामना करती रहीं। उनकी भूमिका एक महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी के साथ आई- कि उनकी गलतियां भारत की अदालतों में न्यायाधीश बनने वाली महिलाओं की क्षमता पर प्रश्नचिन्ह लगा देंगी, और उनके बाद आने वाली महिलाओं को प्रभावित करेंगी।

कुछ पुरुष न्यायाधीशों के लिए एक महिला के साथ काम करना कितना कठिन था- इस बात से उनके न्यायालय का व्यवहार भी प्रभावित हुआ- उन्हें अपने विश्वास को बनाए रखने के लिए, और अपनी ताकत दिखाने से बचने के लिए नरम लेकिन दृढ़ रहना पड़ा।

उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के साथ अपने पहले सामाजिक कार्यक्रम में, उनके सहकर्मियों ने टिप्पणी की थी कि चूंकि वह यहां हैं, उन्हें अब खानपान के बारे में चिंता करने की ज़रूरत नहीं होगी- लीला सेठ चाय की सारी व्यवस्था करेंगी। हम कल्पना ही कर सकते हैं कि मर्दवादी समाज और न्यायपालिका में जस्टिस फ़ातिमा बीवी ने क्या कुछ झेला होगा।

हम दखते हैं कि जो महिलाएं ’ग्लास सीलिंग’ तोड़कर कुछ भी हासिल करती हैं, उन्हें बहुत सारी कठिनाइयों का सामना करना होता है, तभी वे पुरस्कार पाने के योग्य मानी जाती हैं। वे सैकड़ों महिलाओं के लिए प्रेरणा स्रोत बनती हैं, पर उन सबको पुनः वैसी ही परिस्थितियों का मुकाबला करना पड़ता है जैसे 33 वर्ष तक जस्टिस फ़ातिमा को करना पड़ा।

इसके अलावा कार्मिक, लोक शिकायत, कानून और न्याय पर संसदीय स्थायी समिति को दी गई न्याय विभाग की रिपोर्ट में कहा गया है कि, “2018 से दिसंबर 2022 तक, उच्च न्यायालयों में कुल 537 न्यायाधीश नियुक्त किए गए, जिनमें से 1.3 प्रतिशत अनुसूचित जनजातियों से थे। 2.8 प्रतिशत अनुसूचित जाति से, 11 प्रतिशत अन्य पिछड़ा वर्ग श्रेणी से और 2.6 प्रतिशत अल्पसंख्यक समुदायों से थे।” आखिर, यह कैसा न्याय है?

इन परिस्थितियों को कैसे बदला जाए? आसान तो नहीं लगता!

(कुमुदिनी पति, सामाजिक कार्यकर्ता और इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्र संघ की पूर्व उपाध्यक्ष हैं।)

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