लक्षद्वीप में हुआ बोधोदय

मोदी अयोध्या से निकल कर लक्षद्वीप पहुंचे हैं। अख़बारों में उनके वहां होने की एक तस्वीर छपी है।

अयोध्या में नहीं, लक्षद्वीप के शांत, मनोरम परिवेश में उन्हें यह बोधोदय हुआ कि 140 करोड़ जनता की भलाई के लिए उन्हें बहुत कुछ करना है। अख़बारों की रिपोर्ट के अनुसार, इस बात को उन्होंने अपनी डायरी के पन्नों में दर्ज किया है।

दरअसल एक दिन पहले तक अयोध्या में उन्हें राम के साथ ही हमेशा चुनाव याद आ रहे थे। वहां वे विपक्ष के नेताओं के घनघोर दमन के विचारों से घिरे हुए थे।

लक्षद्वीप जाकर उन्हें याद आया जन कल्याण।

कहना न होगा, यही बुनियादी फ़र्क़ है पर्यटन और तीर्थाटन के बीच।

पर्यटन आदमी को मनुष्यत्व और बंधुत्व के भाव से जोड़ता है।

तीर्थाटन आदमी को मूलतः उसके मनुष्यत्व से काटता है, उसमें देवत्व का भाव पैदा करता है।

देवता इस जगत का जीव नहीं होता, इसीलिए उसे सात खून भी माफ़ होता है।

गीता का कर्मवाद सिखाता है- कर्तव्य करो, फल की मत सोचो। यथार्थ में देखा जाता है कि कर्तव्य के नाम पर बुरे से बुरे काम से भी आदमी परहेज़ नहीं करता, मनुष्यता की पूरी तरह से तिलांजलि दे देता है। ‘कर्तव्यपरायण’ नौकरशाही की हृदयशून्यता का यही सत्य है।

कहते हैं कि हिटलर का सबसे विश्वस्त सहयोगी हेनरिख हिमलर, जिसने गैस चेंबर में लाखों लोगों को एक साथ मरवाया था, अपनी जेब में भगवद्गीता की प्रति रखा करता था। उसके बारे में प्रसिद्ध था कि वह हिटलर के सहयोगियों में नैतिक दृष्टि से सबसे मज़बूत व्यक्ति था।

इसीलिए हमारा मानना है कि जो लोग तीर्थाटन को ही पर्यटन का पर्याय बनाना चाहते हैं, वे इससे मनुष्य से उसके स्वातंत्र्य और बंधुत्व के भाव-बोध के विरेचन के बंदोबस्त के अलावा और कुछ नहीं करना चाहते हैं।

शायद धर्मप्राण लोग मर्म की इस बात से बहुत आहत होंगे। पर इतिहास साक्षी है, धर्म दुखी मन के लिए सांत्वनादायी होने पर भी मनुष्यत्व के क्षय का सबसे बड़ा साधन रहा है।

इसीलिए हमारे विवेकानंद यह कहने से नहीं चूके थे कि धर्मांधता ने पृथ्वी को खून से लथपथ कर दिया है। उन्होंने कहा था कि धर्मांधता का यह भयानक दानव अगर न होता, तो मानव समाज आज जो है, उससे कहीं अधिक उन्नत होता।

(अरुण माहेश्वरी लेखक और चिंतक हैं, आप कोलकाता में रहते हैं।)

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